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वसुधैव कुटुंबकम, काशी से क्योटो और...

अब तक हम 'वसुधैव कुटुंबकम' का मन्त्र ही सुनते आये थे, किन्तु 2015 के आखिरी महीने में इस मन्त्र को 'वसुधा' की ही खातिर सुनते देखना एक अविश्वसनीय अनुभव सा प्रतीत होता है. पूरे विश्व में जहाँ एक ओर मुसलमानों और उनकी कथित 'आतंकी' संस्कृति को लेकर होहल्ला मचा हुआ है, लोग समर्थन और विरोध में अपनी आवाजें बुलंद कर रहे हैं, ठीक ऐसे समय संस्कृति नगरी के रूप में विख्यात काशी में दो संस्कृतियों के मधुर मिलन की गवाही का नज़ारा अपने आप में अद्भुत, अनुपम, अद्वितीय दृश्य है. तमाम समझौतों को एक ओर रख दीजिये, तमाम वैश्विक राजनीति को एक पल के लिए छोड़ दीजिये, तमाम कटुताओं को कुछ देर के लिए भुला दीजिये और नज़रें टिकाइए माँ गंगा के दशाश्वमेघ घाट पर, जहाँ भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भारतीय वेशभूषा में  शांतचित्त बैठे जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे अलौकिकता, आध्यात्मिकता को महसूस कर रहे हैं. आज जब किसी आम आदमी के पास 10 मिनट का भी समय नहीं है कि वह रूककर आत्मनिरीक्षण करे, वैसे समय में क्या आध्यात्मिक उन्नति व्यक्ति मात्र के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं है? पूरे विश्व में सिर्फ मुस्लिम समस्या पर ही टकराव हो ऐसा कदापि नहीं है, बल्कि जलवायु जैसे सबके लिए आवश्यक मुद्दे पर पेरिस में कड़ा टकराव और दुराव नज़र आया. यह सम्मेलन इस बात का भी दुर्भाग्य से गवाह बना, जब अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने धमकी दी कि अगर विकासशील देश विकसित देशों पर अधिक ज़िम्मेदारी उठाने और पैसे की मदद देने का दबाव बनायेंगे तो अमेरिका इस समझौते से खुद को दूर कर लेगा. यही नहीं, कैरी ने तीखे तेवर दिखाते हुये कहा कि समझौते के हर शब्द पर नुक़्ताचीनी नहीं हो सकती और इस धमकी के तत्काल बाद कैरी सम्मेलन हॉल से भी, किसी नाराज बच्चे की भांति बाहर निकल गये. इसके बाद चीन ने राजनीति करते हुए विकासशील देशों की ओर से कहा कि कुछ देश अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रहे हैं जो वार्ता की भावना के अनुकूल नहीं है. कौन सही है, कौन गलत है इससे पर हटकर ज़रा सोचिये कि गंगा आरती के मन्त्र, गंगा नदी के किनारे पर्यावरण की चिंता, शंखध्वनि का आध्यात्मिक स्वर क्या आप ही समस्याओं का हल नहीं बता रहा है? क्या यहाँ से सम्पूर्ण वसुधा को मानवता की राह पर चलने का सन्देश नहीं मिल रहा है? 

क्या अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प और सऊदी राजकुमार और अरबपति अलवालीद बिन तलाल को काशी घाट का यह दृश्य नहीं देखना चाहिए कि किस तरह जापान की बौद्ध संस्कृति और प्राचीन भारतीय संस्कृति एक दूजे का सम्मान कर रही है? बताते चलें कि अपने मुसलमान विरोधी बयान के कारण आलोचना झेल रहे रिपब्लिकन नेता डोनाल्ड ट्रंप की सऊदी राजकुमार से ट्विटर पर तकरार हुई है.  दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति माने जाने वाले सऊदी राजकुमार और अरबपति अलवालीद बिन तलाल ने इस समबनध में ट्वीट किया है कि "आप न सिर्फ रिपब्लिकन पार्टी, बल्कि सभी अमरीकियों के लिए भी कलंक हो. राष्ट्रपति पद की रेस से हट जाइए, आप कभी नहीं जीतेंगे." राजकुमार तलाल के इस बयान का ट्रंप ने भी ट्विटर पर तल्ख जबाव देते हुए लिखा सऊदी राजकुमार अपने पिता के पैसे से अमरीकी राजनेताओं को नियंत्रित करना चाहते हैं'. "जब मैं राष्ट्रपति चुन लिया जाऊंगा तो ये नहीं चलेगा." दोनों की बातें काफी हद तक सही हो सकती हैं, लेकिन क्या एक दूसरे की कमियों को पूरी दुनिया को बताने वाले इन दोनों महाशयों को अपनी कमियों की ओर देखने के लिए काशी के उस आध्यात्मिक दृश्य की ओर नहीं ताकना चाहिए, जिसमें खामोश होकर भारतीय पीएम मोदी और दुनिया के सबसे तकनीक संपन्न देश कहे जाने वाले जापान के पीएम तल्लीन होकर संभवतः खुद की मनः स्थिति का आंकलन कर रहे हैं? आखिर, सम्पूर्ण वसुधा को इससे बेहतर दूसरा दृश्य और क्या देखने को मिल सकता है? दौड़ेगी बुलेट ट्रैन, बनेगी परमाणु से बिजली और तमाम रणनीतिक सहयोग से क्षेत्रीय संतुलन भी सधेगा, किन्तु यह दृश्य तो इन सहयोगों से कई हज़ार किलोमीटर आगे है! बाकी समझौते तो द्विपक्षीय हो सकते हैं, लाभ-हानि के पैमाने पर आंकलित होंगे, कित्नु गंगा-आरती का यह दृश्य, जिसमें 1 घंटे तक दो देशों के सर्वोच्च नेता, विश्व शांति की प्रार्थना करते दिखे, वह दृश्य तो सर्वपक्षीय है न! भारत-जापान के करीब आने पर नाक-भौं सिकोड़ने वाली चाइनीज मीडिया और रणनीतिकारों को भी गंगा-आरती के इस दृश्य ने सोचने पर जरूर मजबूर किया होगा, कुछ पलों के लिए ही सही. सीरिया में आतंक मचाये हुए और मानवता का क़त्ल-ए-आम कर रहे आईएस के धर्मांधों को भी धर्म का यह स्वरुप देखने की फुरसत जरूर ही निकालनी चाहिए, साथ ही साथ उन मुस्लिम माँ-बाप को भी अपने युवकों को इस्लामिक स्टेट का विकृत स्वरुप अवश्य ही समझाना चाहिए! 

आखिर, जब जापान की बौद्ध और हमारी भारतीय संस्कृति काशी और क्योटो में आध्यात्मिकता-आधुनिकता के प्रकाश में मिल सकते हैं तो टकराव और आतंक मचाने वालों को धर्म का यह सुगन्धित रूप क्यों नहीं रास आना चाहिए? निश्चित रूप से काशी में, मानवता के पक्षधरों को इसमें मानवता की सुगंध ही दिखी होगी, वहीं छोटी सोच के समूहों को इसमें रणनीति और कूटनीति के साथ प्रदूषण ही नज़र आया होगा. हर-हर महादेव का नारा, काशी विश्वनाथ का जयकारा, जिन्होंने पूरे विश्व के कल्याण के लिए हलाहल विष का पान किया था, उनकी स्तुति देखने मात्र से तमाम योजनाकारों के मन में सकारात्मकता, एक पल के लिए ही सही, जरूर आयी होगी. हाँ! काशी-क्योटो के इस आध्यात्मिक मिलन पर उन्हें हुआ विश्वास कितनी देर तक रहेगा, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्पष्ट कहा गया है कि 'जाको रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तीन तैसी'. इसलिए, समस्त वसुधा और मानवता को काशी-क्योटो के प्राचीनता-आधुनिकता के अद्भुत मिलन से विश्व शांति का मार्ग अवश्य खोजना चाहिए! टकराव, असंतुष्टि और वर्चस्व की राह को छोड़कर सहअस्तित्व का काशी में अद्भुत दर्शन हमें यह बताने के लिए ही है कि आध्यात्मिकता, धर्म को अंततः मानवता का हित ही सोचना चाहिए, कुछ और नहीं!

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