
यह तीनों मुद्दे खुद पाकिस्तान के लिए घातक रहे हैं और इसीलिए वह एक 'अक्षम-राष्ट्र' के रूप में जाना जाता है. इस हद तक कि इसके आम नागरिक भी पूरे विश्व में नकारात्मक रूप से चिन्हित हैं. अब ज़रा गौर कीजिये, 2008 के मुंबई हमले के बाद की स्थिति, नरेंद्र मोदी की भारतीय सत्ता में मजबूत रूप से जमने के बाद की स्थिति और एक साल पहले पाकिस्तान में पेशावर के स्कूल पर आतंकियों के हमले से उत्त्पन्न स्थिति का इस देश पर क्या प्रभाव पड़ा! 2008 के बाद दोनों देशों के बीच पूरी तरह डायलॉग बंद हो जाने से 'भारत-विरोध' का मुद्दा एक तरह से गौण हो गया, क्योंकि हाफिज सईद और लखवी पर यह देश कार्रवाई करने से तो रहा! नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही जिस तरह वैश्विक स्तर से निवेश लाने और छवि निर्माण में भारत जुटा, उसने पाकिस्तान को आर्थिक रूप से गहरे चिंतन में धकेल दिया. चीन का पाकिस्तान में 46 बिलियन डॉलर के भारी-भरकम इन्वेस्टमेंट का इकॉनोमिक कॉरिडोर मुख्यतः इसी चिंतन से उपजा परिणाम था. मोदी के आने से पाकिस्तान के हित में एक और जो बड़ा फायदा हुआ, वह था नवाज शरीफ की मजबूती! चूँकि, भारत लोकतान्त्रिक रूप से बेहद मजबूत हो रहा था और वैश्विक बिरादरी में उसकी बढ़ती इज्जत में यह सबसे बड़ा फैक्टर भी है, यह बात पाकिस्तानी आवाम के साथ सेना को भी बखूबी समझ आई, तात्कालिक रूप से ही सही, और मजबूरन सेना ने सरकार के साथ तालमेल करना शुरू किया. दिसंबर 2014 में पेशावर अटैक के बाद चरमपंथ के खिलाफ खुद फ़ौज को मैदान में उतरना पड़ा और एक बड़ी संख्या में आतंकियों को इस देश ने फांसी पर भी चढ़ाया है. अब पाकिस्तान में जाकर नरेंद्र मोदी द्वारा बेहद करीबी दिखाने से इन सारे बदलावों पर से ध्यान हटकर अंततः 'भारत-विरोध' पर ही जाएगा, क्योंकि भारत करेगा आतंकवाद पर बात, पाकिस्तान करेगा कश्मीर पर बात ... और बात गोल-गोल घूमती रहेगी! इसके दुष्परिणामों में यह बात भी सामने आएगी कि चरमपंथी, जो अभी पाकिस्तानी फ़ौज और अवाम द्वारा कुचले जा रहे हैं, वह कश्मीर को लेकर अपनी आवाज के सहारे अपनी आतंकी जड़ को और मजबूत करेंगे.
दूसरी ओर, नवाज शरीफ से नरेंद्र मोदी की गुफ्तगू और बिरयानी दावतों से पाकिस्तानी सेना और शरीफ के बीच भी एक दीवार जरूर खड़ी होगी और फ़ौज को शायद 'तख्तापलट' का एक बहाना भी मिल जाए! मतलब पाकिस्तान के लिए, जो अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर ही रहा है, आतंक के खिलाफ आतंरिक रूप से लड़ने का ज़ज़्बा दिखा ही रहा है कि पीएम मोदी ने उन्हें फिर से 'भारत-विरोध' में उलझाने का सब्जबाग दिखा दिया है. पहले बाजपेयी और अब मोदी जैसे इन्नोवेटिव लोगों को आखिर यह समझ क्यों नहीं आता कि बातचीत का मतलब विभिन्न स्टारों पर बँटा पाकिस्तान यह समझता है कि भारत उसको 'कश्मीर' दे देगा? यह संभव है क्या? ... इसका सीधा, टेढ़ा और सपाट उत्तर है 'नहीं'! तो ऐसे में पाकिस्तानी चरमपंथी खिसियाकर कभी 'आतंकी' हमला करते हैं, कभी उनकी सरकार 'यूएन' और दुसरे मंचों पर 'कश्मीर मुद्दा' उठाती है, तो उनकी सेना 'सीधा हमला' करने की मूर्खता भी करती है! अब ज़रा सोचिये, अगर बातचीत ही न की जाए, या फिर अनमने ढंग से टाइम-पास बातचीत की जाय तो फिर बाद के मुद्दे आने की नौबत ही न आये और पाकिस्तानी भी हारकर अपने विकास में लगें, अपने यहाँ आतंक को निशाना बनाएं, लोकतंत्र को मजबूत करें! वर्तमान और निकट भविष्य के भारतीय नेताओं को 'नियति' शब्द पर भरोसा करना चाहिए, क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बीच किसी तरह की 'कूटनीति' नहीं है, बल्कि सीधी दुश्मनी है, जिसके सबूत 1947 से 1965 और बांग्लादेश की स्वतंत्रता से लेकर कारगिल तक बिखरे पड़े हैं. और अब तो चीन-पाकिस्तान का ऐसा मजबूत गठजोड़ है जो कतई भारत-पाक को करीब नहीं आने देना चाहेगा? यही क्षेत्रीय संतुलन अफगानिस्तान और बांग्लादेश को लेकर भारत के साथ भी है! ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान से बातचीत नहीं की जा सकती, किन्तु पहले वह इस स्थिति में तो आये... !!

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