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सदन के बाद भी हैं जिम्मेदारियां - Without social responsibilities changing is not possible, juvenile law, hindi article by mithilesh

फेसबुक पर आप बैठ जाइए तो किसी मुद्दे की इतनी परतें उधड़ती हैं कि कभी-कभी सोचना मुश्किल हो जाता है कि आखिर असल मुद्दा था क्या? निर्भया केस में खुद को बुद्धिजीवी कहने वाले एक महानुभाव निर्भया के माँ-बाप पर ही पिल पड़े थे कि उन्होंने इस केस के लिए मुआवजा क्यों लिया, और बलिदान क्यों नहीं हो गए! अगर वह बलिदान नहीं हो सकते तो, उन्हें आज जुवेनाइल बिल के लिए आवाज उठाने का अधिकार नहीं है. फेसबुक पर मैंने उनकी कड़ी निंदा और भर्त्स्ना करते हुए लिखा कि आखिर हम व्यक्तिगत सोच से ऊपर उठकर कब 'मुद्दे' को समझना शुरू करेंगे. इस मामले का सन्दर्भ लेना मैंने इसलिए जरूरी समझा क्योंकि भेड़चाल की तरह आज एक बार फिर सभी लोग एक कानून के पीछे पड़ गए, मानो इधर कानून पास हुआ और उधर रेप जैसी विकृति से हमारा समाज मुक्त हो जायेगा! बेशक, यह एक कानूनी प्रावधान है और होना भी चाहिए, लेकिन क्या यह जिम्मेदारियां और समस्याएं इतनी आसान हैं कि चंद मेजें थपथपा देने से हल निकल आएगा! इस पर चर्चा आगे की पंक्तियों में करेंगे, पहले राज्यसभा में निर्भया कांड के तीन साल बाद हुई गतिविधियों पर एक नज़र डालना उचित रहेगा! राज्यसभा में दिनभर चली बहस के बाद जुवेनाइल जस्टिस बिल पास हो गया आखिर, और इसके साथ ही किशोर अपराधियों की उम्र सीमा 18 से घटाकर 16 साल कर दी गई है. इस बिल के पास होने का सीधा मतलब यह है कि अब 16 साल तक की उम्र में भी जघन्य अपराध करने पर आरोपी पर बालिग की तरह केस चल सकेगा और 10 साल की अध‍िकतम सजा होगी. राज्यसभा में इस बिल को महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने पेश किया था और गौर करने वाली बात यह है कि यह बिना किसी संसोधन के पास भी हो गया! यह वही बिल है, जो निर्भया काण्ड के तीन साल बाद तक इस सदन में अँटका था, मगर जन-दबाव ने एक दिन में कई बदलाव कर दिए. समझना दिलचस्प होगा कि हर सत्र में हंगामा कर रही कांग्रेस ने भी इस बार हंगामा करने का जोखिम नहीं लिया. खैर, इस बिल के पास होने में एक आम सहमति जैसा माहौल था, मगर कुछ ने इसका विरोध भी किया. 

सीपीएम सांसदों ने वोटिंग से पहले ही सदन से वॉकआउट किया और इस सम्बन्ध में सीपीआई के सीताराम येचुरी ने कहा कि कानून निर्माताओं के तौर पर हमें भावनाओं में आकर फैसला नहीं लेना चाहिए, इसलिए बिल को पास कराने की जगह इसे सेलेक्ट कमिटी के पास भेजा जाए. येचुरी ने यह तर्क भी दिया कि निर्भया के दोषी नाबालिग को फिर से सजा नहीं दी जा सकती और आगे अगर 14 साल के नाबालिग ने ऐसा कोई घृणित कार्य किया तो क्या हम फिर उम्र सीमा घटाकर 14 कर देंगे? हालाँकि, राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी मांग को खारिज कर दिया. इस क्रम में, इस बिल के लिए अभियान चलाने वालीं निर्भया की मां आशा देवी की इस सम्बन्ध में टिप्पणी थीं 'मुझे तसल्ली है आगे के लिए, पर दुख भी है कि निर्भया को न्याय नहीं मिला. गौरतलब है कि निर्भया के माता-पिता और सैंकड़ों लोग इस बिल को पास करने और नाबालिग दोषी को रिहा ना करने के लिए लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. निर्भया के माता-पिता भी इस बिल पर बहस के दौरान राज्यसभा में मौजूद रहे तो इससे पहले वे संसदीय कार्य राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से भी मिले थे. हालाँकि, इस बिल का विरोध चर्चित वकील राम जेठमलानी ने भी किया, किन्तु यह समझना आवश्यक हो जाता है कि आज के हालात में यह बिल क्यों आवश्यक है. संसद में बिल पेश करते हुए सरकार ने इस मामले में साफ़ कहा कि मौजूदा कानून की वजह से जुवेनाइल अपराधियों के कई मामले पेंडिंग पड़े हुए हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक उन अपराधों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा था जिनमें शामिल लोगों की उम्र 16 से 18 साल के आसपास थी. एनसीआरबी का डेटा यह बताने के लिए काफी था कि 2003 से 2013 के बीच ऐसे अपराध में इजाफा हुआ है. इस दौरान 16 से 18 साल के बीच के अपराधियों की संख्या 54 फीसदी से बढ़कर 66 फीसदी हो गई. नाबालिग की उम्र बदलने की कितनी जरूरत है, यह इसी से पता चलता है कि 2014 में नाबालिगों के खिलाफ देशभर में 38,565 केस दर्ज हुए है. यह जानकारी गृह राज्यमंत्री ने लोकसभा में दी है. इनमें भी 56 फीसदी मामले उन नाबालिगों के खिलाफ दर्ज किए गए जिनके परिवार की मासिक आय 25 हजार रुपये तक है. इस सफाई के अतिरिक्त भी अगर सोचा जाय तो आज के समय में इंटरनेट, टीवी, फिल्मों जैसे माध्यमों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब 'बच्चे, बच्चे' नहीं रहे! जहाँ तक बात इस नए बिल की है तो, नए जुवेनाइल जस्टिस बिल में प्रावधान है कि रेप और हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वाले 16 साल के अपराधियों पर वयस्कों की तरह मामला चलेगा. 

हालाँकि, अब जब जुवेनाइल बिल दोनों सदनों से पास हो गया है, तो क्या इस बाबत आश्वस्त हुआ जा सकता है कि कार्य समाप्त हो गया है! क्या सच में यह पूरी की पूरी समस्या मात्र कानूनी ही थी अथवा इस प्रक्रिया के कई सामाजिक पेंच भी कहीं न कहीं उलझे हुए हैं, जिनके प्रभाव कहीं ज्यादे व्यापक हैं. बिखरते परिवार, बढ़ती अश्लीलता और नग्नता, टूटती हुई सामाजिक संरचना की जिम्मेदारी आख़िरकार कौन उठाएगा, इस बात का जवाब आज भी अनसुलझा ही रह गया है और जब तक इसका जवाब सामने नहीं आ जाता है, तब तक बमुश्किल ही आश्वस्त हुआ जा सकता है. आज के आर्थिक युग में किस प्रकार से दबाव बढ़ता जा रहा है कि लोगबाग बस अर्थ के पीछे भागते जा रहे हैं, उनके पास समय नहीं है अपनों के पास बैठने का, उनके पास बिलकुल भी समय नहीं है अपनों को पास बिठाने का! ऐसे में अनर्थ की सम्भावना को किस प्रकार रोका जा सकता है. बच्चों का मामला इसलिए भी संवेदनशील है, क्योंकि समाज की नींव यही तो है! फेसबुक और समाज के तमाम बुद्धिजीवियों को इस बाबत मंथन करना पड़ेगा कि आज एक बच्चा अपने माँ-बाप के प्रति ही क्यों हिंसक हो जाता है, जैसा कि बिल पास होने के दिन ही एक खबर आयी, जिसमें आईएस परीक्षा में असफल होने पर एक व्यक्ति ने अपने माता-पिता सहित 22 लोगों पर तलवार से हमला कर दिया था. बुद्दिजीवियों को यह भी सोचना पड़ेगा कि आखिर, एक ऐसे छद्म व्यक्ति को समाज किस प्रकार स्वीकार कर पा रहा है, जिसकी खुद अपने सगे और चचेरे भाइयों से तो नहीं पटती है, किन्तु वह ढोंग करके समाज में 'व्यवहार-कुशल' होने का स्वांग रचने में सफल हो जाता है. प्रश्न कई हैं, और उनके जवाब भी मिल जायेंगे, अगर बुद्धिजीवी खुद ढोंग करना छोड़ दें और समाज के प्रति वास्तव में जिम्मेदारी निभाएं! अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सहिष्णुता-असहिष्णुता के नाम पर ढेर सारी बकवास करने वाले लोगों ने 'रेप जैसी विकृति' को स्वीकार जैसा कर लिया है, अन्यथा उनकी लेखनी, उनके नाट्य, उनके वक्तव्य और उनके ट्वीट में इसकी आग नज़र आती. वह न तो सड़क पर उतरे और न ही किसी पुरस्कार वापसी अभियान का हिस्सा बने... बस चुप्पी साध गए! शायद उन्हें तराजू में तौल कर बताना पड़ेगा कि समाज के लिए असल में असहिष्णुता है क्या... निर्भया जैसी अनगिनत मासूमों के साथ खिलवाड़ या राजनीति! जनता को सदन से बिल पास कराकर एक 'लॉलीपॉप' थमा दिया गया है और कुंद कर दिया गया है, समस्या का हल खोजने का ज़ज्बा. या फिर यह आंकलन गलत है, और बदल जायेगा इस बिल से माहौल.... !!

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