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सामाजिक सुरक्षा और भारत में इन्शुरन्स, हेल्थ इन्शुरेंस सेक्टर ... (पूरा लेख पढ़ें, हर एक भारतीय के लिए जरूरी विषय!) - Social Sector, Max Bupa, Health Insurance, Hindi Article, Issues and Solution, Dark Sector of Insurance Companies, Negatives, Positives



आप सबको मेरा प्रणाम (Letter to Health Insurance companies),
माँ-पा की दृष्टि से मुझे अहसास है कि बदलती सामाजिक चुनौतियों के बीच, परिवारों की टूटन के बीच, बढ़ते स्वास्थ्य खर्चों के बीच, किसी कैजुअलिटी से निपटने जैसे चुनौतियों के बीच 'बीमा' 21वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ उपहारों में से एक है. आप यकीन मानिये, विश्वास कीजिये बीमा में क्योंकि वाकई 'बीमा आग्रह की विषय-वस्तु ही है. (Insurance is a subject matter of solicitation)' मैं अपने माँ-पा को धन्यवाद देती हूँ कि मेरे जन्म के साढ़े तीन साल पहले से उन्होंने मेरे आने की बाकायदा प्लानिंग की थी, मुझे कोई मेडिकल दिक्कत आये तो उसके इलाज में कोई फाइनेंसियल दिक्कत नहीं आये, इसके लिए उन्होंने खूब जांच-पड़ताल करके, ऑनलाइन पालिसीबाजार.कॉम पर हेल्थ पॉलिसीज की तुलना करने मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स से वही पालिसी ली, जिसमें पूरा मैटरनिटी कवर था, न्यू बोर्न बेबी पैदा होने के दिन से कवर था (Max Bupa Health Insurance Policy Number: 30254705201603, Custome ID: 0000280615, Date: 01/09/2016). पालिसी लेने के बाद, बिना किसी देरी के उन्होंने समय पर प्रीमियम भरा इसके लिए मैं अपने माँ और पापा का तहे दिल से धन्यवाद करती हूँ. संयोगवश मैं समय से कुछ पहले ही, यानी आठ महीने पूरे होते ही सिजेरियन से इस संसार में आयी और आपको पता ही होगा, ऐसे प्री-मैच्योर बच्चों को नर्सरी में रखना पड़ता है, तो मुझे भी रहना पड़ा. दिल्ली के उत्तर नगर क्षेत्र के महिंद्रू हॉस्पिटल से मैं भी जनकपुरी के शिशु सदन मल्टी स्पेशलिटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल में रेफर कर दी गयी. डॉक्टर्स ने मेरा बढ़िया इलाज किया और 27 सितंबर से 6 अक्टूबर तक यह इलाज चला, जिसके बाद मैं ठीक हो गयी. निमोनिया, पीलिया जैसे इन्फेक्शन इत्यादि से मैंने जल्द ही रिकवर कर लिया. जिस दिन मैं हॉस्पिटल में भर्ती हुई थी, उसी दिन तय प्रक्रिया का पालन करते हुए हॉस्पिटल ने और मेरे पापा ने मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स की टीम को इसकी जानकारी भी दे दी और पहली प्री-ओथ आईडी (कैशलेश हेल्थ इन्शुरन्स का क्लेम प्रोसेस करने हेतु मिला कोड) अप्रूव भी हो गया. मेरे पापा ने हेल्थ इन्शुरन्स कंपनी के कस्टमर केयर को बीच-बीच में फोन करके टर्म्स/ पॉलिसीज का अपडेट लेते रहे, डॉक्टर्स से, टीपीए टीम से सलाह लेते रहे, पर अंतिम दिन किसी भूकंप की तरह हेल्थ इन्शुरन्स कंपनी ने अपना रिएक्शन दिया और जब हॉस्पिटल ने फाइनल बिल भेजा तो उन्होंने अपने एक क्लॉज का हवाला देकर पूरा क्लेम ही रिजेक्ट कर दिया (Social Sector, Max Bupa, Health Insurance, Hindi Article, Issues and Solution, Dark Sector of Insurance Companies, Negatives, Positives). 

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लगभग 1 लाख का बिल था और आप समझ सकते हैं कि ऐसे में मेरे माँ-पा पर क्या बीती होगी. खैर, टर्म्स तो टर्म्स होती हैं और एकबारगी तो मेरे माँ-पा के ध्यान में आया कि हो सकता है कि यह केस टर्म्स का उल्लंघन ही हो, किन्तु तब मेरे माँ-पा को भारी आश्चर्य हुआ जब हॉस्पिटल के डॉक्टर्स ने बताया कि इन्शुरन्स कंपनी ने जो ऑब्जेक्शन उठाया है, वह न केवल मेडिकली टर्म्स में मिस-इन्टरप्रेट किया गया है, बल्कि यह जान बूझकर टालने के लिए ही किया गया है, ताकि कस्टमर अपना क्लेम छोड़कर भाग जाए. चूंकि, मेरे पापा लेखन, पत्रकारिता और ऑनलाइन दुनिया से गहरे जुड़े हुए हैं तो फिर उनका दिमाग सक्रीय हुआ. इसके बाद कंपनी द्वारा कैशलेश रिजेक्शन के दिए गए कारणों को उन्होंने अध्ययन किया, टर्म्स पॉलिसीज देखी, हॉस्पिटल के डॉक्टर्स के साथ-साथ उन्होंने दूसरे हॉस्पिटल के डॉक्टर्स से भी इस सम्बन्ध में कन्सल्ट किया और सबमें यही बात सामने आयी कि मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स कंपनी पैसा नहीं देना चाहती है, और इसलिए उसने यह रास्ता निकाल लिया है. इस सम्बन्ध में मेरे माँ मेरे साथ हॉस्पिटल में थीं तो पापा ने 6 अक्टूबर 2016 को सुबह 11 बजे से शाम 8 बजे तक संघर्ष किया कि कंपनी अपना वादा निभाये, किन्तु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा. यह पूरा मामला समझने के लिए आपको विभिन्न जगहों को लिखे गए लेटर, आप इन लिंक्स पर पढ़ सकते हैं और जरूर पढ़ें, क्योंकि आज के समय की यह महत्वपूर्ण जरूरत बन चुका है (Fraud Cases of Insurance Companies like Max Bupa Health Insurance). अमेरिका जैसे देशों में जहाँ 80 फीसदी से अधिक जनता इन्शुरन्स-सेक्टर पर डिपेंडेंट है, वहीं भारत में इसकी संख्या 10 फीसदी से आगे जा रही है. बेहद फ़ास्ट ग्रोइंग क्षेत्र है यह, किन्तु ट्रांसपेरेंसी के नाम पर कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं है. मेरे पापा ने इस संघर्ष में जो कुछ निष्कर्ष निकाला है, वह कुछ पॉइंट्स में दर्ज है:
  1. कंपनियां इन्शुरन्स लेते समय एजेंट के माध्यम से, खुद भी हर तरह का वादा करती हैं, मार्केटिंग का सहारा लेती हैं किन्तु वह इस सोच के साथ चलती हैं (खासकर प्राइवेट इन्शुरन्स कंपनीज, Private Insurance Companies and their business model) की ग्राहक को क्लेम देना ही नहीं है. इसके लिए वह न केवल गलत टर्म्स/ कंडीशन बनाती हैं, बल्कि उसमें द्विअर्थी शब्दों का इस्तेमाल भी करती हैं, जिनसे बाद में उन्हें बच निकलने का रास्ता मिल जाए. टर्म्स एंड कंडीशन का हिंदी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध न होने के कारण ग्राहकों की .00001% संख्या भी उसे न तो पढ़ पाती है, न समझ पाती है. इन तमाम कारणों से यह पूरा इन्शुरन्स क्षेत्र 'डार्क रूम' की तरह है, जहाँ बहुत कुछ क्लियर नहीं है, जस्टीफ़ाइड नहीं है.
  2. हॉस्पिटल्स के साथ इन्शुरन्स कंपनी का रिलेशन (Relation of Hospitals and Insurance Companies), कम्युनिकेशन मरीज को/ उपभोक्ता को कभी पता नहीं चल पाता है. कौन सी मेल जा रही है, उसे कथित 'एमओयू' के कारण छिपाया जाता है. मांगे पर मरीज से सम्बंधित पूरी कम्युनिकेशन आखिर क्यों उपलब्ध नहीं कराया जाता, इसका कारण स्पष्ट नहीं है. चूंकि यह लोगों के हितों से जुड़ा सीधा विषय है, इसलिए इसे आरटीआई में शामिल किया जाना चाहिए.
  3. ३. कॉर्पोरेट पॉलिसीज को क्लेम में कंपनियां थोड़ी रियायत भी बरतती हैं तो पर्सनल पॉलिसीज होल्डर्स को क्लेम के समय वह बेहद निचले स्तर पर काउंट करती हैं. समझा जा सकता है कि अगर मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स जैसी किसी कंपनी का कोई कॉर्पोरेट पालिसी है तो उसका क्लेम देने में वह देरी नहीं करेगा, क्योंकि उसे बड़ा बिजनेस लॉस होने का डर रहता है, जबकि पर्सनल पालिसी होल्डर्स (Personal Policy Holders versus Corporate Policy Holders) की उसे कतई परवाह नहीं होती है, क्योंकि कोई कितना लड़ लेगा? पर्सनल इन्शुरन्स (हेल्थ इन्शुरन्स कंपनीज) वालों का क्लेम देने में कंपनियां हर हाल में इनकार करने का मूड बनाये रहती हैं और कई लोग समय की कमी से फाइट नहीं कर पाते और इसी का फायदा उठाकर कंपनियां लोगों का जायज़ हक़ मारकर अपना प्रॉफिट बढ़ाती रहती हैं.
  4. मेडिकल इन्शुरन्स के सेक्टर में अमेरिका जैसे देशों में एमबीबीएस/ एमडी जैसे स्पेशलाइजेशन होते हैं, ताकि बदलती रिसर्च/ बीमारियों, क्लेम इत्यादि गूढ़ विषयों को समझा जा सके. किन्तु, इस केस में लड़ते समय मेरे पापा को जो जानकारी विभिन्न डॉक्टर्स द्वारा दी गयीं, उसके अनुसार भारत में इसकी शुरुआत नहीं हो सकी है, जिसके कारण साधारण से साधारण विषयों और शब्दों की इन्शुरन्स कंपनियां मनमानी व्याख्या (Specialization courses in Medical Insurance, Stop wrong interpretation of Medical terms) निकाल सकती हैं और उन पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं होता है. 
  5. वकीलों की फ़ौज का डर दिखलाती हैं इन्शुरन्स कंपनियां. वह क्लेम के लिए डिस्कस करने पर, आईआरडीए या कंज्यूमर कोर्ट की बात कहने पर यह बताने से नहीं चूकती हैं कि उनके पास ऐसे-ऐसे सीनियर वकीलों की फ़ौज (Are you a Insurance Victim? They have a army of Lawyers, Indian Judiciary System and Insurance Companies) है, जिनकी बात जज काट ही नहीं सकते. इसलिए वह केस या फाइट करने को अपने प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चलती हैं और इसके लिए वह अपनी प्रॉफिट का मोटा हिस्सा वकीलों पर खर्च करती हैं. सीधी बात है, ऐसे में उपभोक्ता को न्याय किन किस्तों में और कितना मिलने की उम्मीद होती है यह हमारी न्यायिक प्रणाली से भी सम्बन्ध रखता है. इन्शुरन्स से इतर भी हमारी न्यायिक प्रणाली में सुधार की बातें कही जाती रही हैं और ऐसे में जाहिर तौर पर व्यवस्था में खामियों का फायदा उठाने और ग्राहकों का क्लेम मारने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं इन्शुरन्स कंपनियां.
  6. कोई लायबिलिटी नहीं: चूंकि कंपनियों की कोई इन्वेस्टमेंट या प्रोडक्शन होती नहीं है और वह आपसे पैसे लेकर, आपके प्रीमियम से अपनी आमदनी बढ़ाकर आप ही को आँख दिखलाती हैं. अंदाजन 100 लोग जो इन्शुरन्स कराते हैं, उसमें से 70 लोगों से ज्यादा लोग क्लेम करते ही नहीं हैं और बाकी 30 लोग जो क्लेम करते हैं, उनमें 20 व्यक्तियों का क्लेम रिजेक्ट करने का टारगेट लेकर चलती हैं ये कंपनियां. चूंकि पूरा मामला कॉर्पोरेट स्टाइल में चलता है, इसलिए इसके एक्सेक्यूटिव्स, मैनेजर्स, सीनियर्स और मालिक तक क्लेम-रिजेक्ट करने को ही अपना धर्म मानते हैं. एक दूसरे हॉस्पिटल के सीनियर डॉक्टर ने इस सम्बन्ध में मेरे पापा को बताया कि अगर किसी क्लेम को वेरीफाई करने के लिए इन्शुरन्स कंपनी से कोई बन्दा हॉस्पिटल में आता है, तो वेरीफाई 'ओके' करने के लिए कंपनी तनख्वाह के अतिरिक्त, उसे 100 रूपये इंसेंटिव देती है, जबकि अगर वह केस को 'रिजेक्ट' कर देता है तो उसे इसी काम के लिए 250 से 400 रूपये तक दिए जाते (Dark Are of Insurance companies, Max bupa health insurance buying, know positives and negatives) हैं. समझा जा सकता है कि इन्शुरन्स कंपनियों का 'प्रॉफिट' वही है, जितना क्लेम वह 'रिजेक्ट' कर सकें. दूसरी भाषा में जितने लोगों को वह चीट कर सकें, वही मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स जैसी तमाम प्राइवेट इन्शुरन्स/ हेल्थ इन्शुरन्स कंपनियों का असल प्रॉफिट होता है. जाहिर तौर पर इस स्थिति से निपटने की पारदर्शी कोशिशों की आवश्यकता है.

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इसके परिणाम, साइड इफेक्ट्स, हल और रास्ते (Side effects of Insurance/ health insurance) जो होते हैं या हो सकते हैं:
सरकार के सामाजिक सुरक्षा के प्रयासों को इन्शुरन्स कंपनियों की मनमानी से गहरा धक्का पहुँचता है, खासकर गरीब और मिडिल क्लास के लोग सामाजिक स्तर पर और भी नीचे जाते हैं. आज के समय में छोटे से छोटा रोग भी आपसे लाखों रूपये खर्च करा देता है तो कैंसर या दूसरी क्रिटिकल केयर (Critical care coverage by insurance companies) जैसी बीमारियां तो आपके घर-बार को बर्बाद कर सकती हैं. जाहिर तौर पर लोग इससे बचने के लिए इन्शुरन्स/ हेल्थ इन्शुरन्स पॉलिसीज में सालों-साल इन्वेस्ट करते हैं. एमरजेंसी में क्लेम के समय रिजेक्शन उन्हें दोहरा नुक्सान पहुँचता है (क्लेम का सालों-साल दिया गया पैसा और तात्कालिक खर्च) आर्थिक बर्बादी, सामाजिक प्रतिष्ठा में भारी नुक्सान और कई बार आत्महत्या के रास्ते पर (Social Sector, Max Bupa, Health Insurance, Hindi Article, Issues and Solution, Dark Sector of Insurance Companies, Negatives, Positives) धकेल सकता है. हालाँकि, कहने को आईआरडीए जैसे संस्थान हैं किन्तु अन-ऑफिशियल कम्युनिकेशन में टीपीए इत्यादि का काम सुपरवाइज़ करने वाले एक एमडी डॉक्टर ने पापा को बताया कि चढ़ावा हर जगह चढ़ता है. निश्चित रूप से इन मामलों में इस सरकारी संस्था को अत्यधिक टाइट और ट्रांसपेरेंट होने की आवश्यकता है, जिससे इन्शुरन्स कंपनियों की मनमानी पर लगाम लगे तो उपभोक्ता को निराश होने से बचाया जा सके. इसके अतिरिक्त, प्रत्येक कंपनी द्वारा कितनी पालिसी एक साल में की गयी, कितनों में उपभोक्ता द्वारा क्लेम माँगा गया, कितने मामलों में क्लेम पूरा अप्रूव किया गया, पार्शियल अप्रूव किया गया और कितने मामलों को सिरे से रिजेक्ट कर दिया गया, इत्यादि जानकारियों पर वाइट-पेपर जारी करते रहना चाहिए. कंपनियों की टर्म्स एंड पालिसी मनमाने ढंग से नहीं लिखी होनी चाहिए, बल्कि इन्शुरन्स सेक्टर में इसे जस्टीफ़ाइड भी होना चाहिए. पालिसी इत्यादि डाक्यूमेंट्स, जरूरी रूप से हिंदी और रीजनल भाषाओं में उपलब्ध (Terms and condition of Insurance companies should be in Hindi and in Regional Languages) कराये जाने चाहिए. जागरूकता अभियान आईआरडीए जरूर चला रहा है, किन्तु वह मेट्रो में सिर्फ विज्ञापन लगाने भर से पूरा नहीं होने वाला, बल्कि इसे जान अभियान बनाकर घर-घर पहुंचाने का जतन करना होगा. आखिर, इन्शुरन्स कंपनियां ग्राहकों के प्रीमियम से वकीलों की फ़ौज खड़ी कर सकती हैं तो वह भाषायी अनुवादक भी रख सकती हैं. साथ ही साथ  जरूरत पड़ने पर इन मामलों में सीबीआई जांच तक कराते रहना चाहिए, क्योंकि यह पूरे का पूरा मामला हमारे देश की सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा विषय है, जिसके लिए सरकार अनगिनत रूपया खर्च कर देती है, करती रही है. 
बीमा आग्रह की विषय-वस्तु है और इसे लेने के पश्चात् लोगों में स्वाभिमान की उत्पत्ति होती है, तो उनका स्वाभिमान मैक्स बुपा हेल्थ इन्शुरन्स (Review of Health Insurance Companies by a new born baby) जैसी कंपनियों द्वारा कुचला न जाए, इस बात की गारंटी कौन देगा?
आपकी न्यू-बॉर्न बिटिया - 
विमिशा (उम्र: 12 दिन मात्र)
माता: विंध्यवासिनी सिंह

Hospital Bill in this Case, Page 1

Hospital Bill in this Case, Page 2

Hospital Bill in this Case, Page 3 (Pharmacy Bills)

Doctor's reply on Max bupa health Insurance Objection, but they don't listen on the day ... Page 1

Doctor's reply on Max bupa health Insurance Objection, but they don't listen on the day .... Page 2

Mithilesh's Insurance Policy Detail ... page 1


Max Bupa Health Insurance rejected the case, intentionally perhaps ... Page 1

Max Bupa Health Insurance rejected the case, intentionally perhaps ... Page 2
There Terms, what they wrote in their rejection letter ... section and clause

There Terms, what they wrote in their rejection letter ... section and clause
Hospital's clear reply on there rejection clarification ... but they don't consider, ... page 1

Hospital's clear reply on there rejection clarification ... but they don't consider, ... page 2


Insurance regulatory and development authority of India, customer rights

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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