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महापुरुषत्व से आगे की ओर! Swami Vivekananda, Hindi Article, New, Youth Inspiration, Hindi Essay



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इतिहास में महान पुरुषों की संख्या अनगिनत रही है और उससे भी आगे बढ़कर विभिन्न क्षेत्रों में उनका योगदान रहा है. पर जब हम बात करते हैं स्वामी विवेकानंद की तो 'युवाओं' के लिए उनसे बढ़कर कोई और प्रेरणाश्रोत नहीं दिखता! स्वामी विवेकानंद का नाम जब भी लिया जाता है, एक अत्यंत सुखद अहसास हमारे हृदय में स्वतः प्रस्फुटित होता है. हम सबके मन-मस्तिष्क में इस नाम पर कभी विरोधाभाष नहीं होता है. पूर्ण निर्विवाद, बेहद व्यवहारिक और प्रत्येक युग में प्रासंगिक व्यक्तित्व भला दूसरा कहाँ मिल सकेगा! भारतवर्ष की महान आध्यात्मिक धरोहर में मन, वचन और कर्म तीनों का समान महत्त्व बतलाकर इन तीनों में एकरूपता की बात कही गयी है, लेकिन किसी गृहस्थ या सन्यासी के लिए इन तीनों पर समान रूप से खरे उतर पाना बेहद दुरूह रहा है, सदा से ही! बहुत कम ऐसे महापुरुष मिलते हैं जो इन तीनों में सामंजस्य रखते हुए धर्म के मार्ग पर अग्रसर रहते हैं. भगवान राम और भगवान कृष्ण इस श्रेणी के श्रेष्ठ उदाहरण हैं, तो स्वामी विवेकानंद को भी इस श्रेणी में बगैर किसी लाग-लपेट के रखा जा सकता है. यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामीजी का महत्त्व आधुनिक युग में और भी ज्यादा बढ़ जाता है, क्योंकि उनके उपदेश और उनका जीवन आज के भारतवर्ष के लिए बिल्कुल सटीक कहा जा सकता है. भगवान राम, कृष्ण के तब के समय को एक तरह से आदर्शवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन स्वामीजी ने जिन परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया वह हमारा आदर्श भारत 'सोने की चिड़िया' नहीं रहा है, बल्कि उसे तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों में गिना जाता रहा है. स्वामीजी के शिकागो नगर में हिन्दू धर्म पर रखे महान विचारों के पहले तो इस देश की स्थिति शोषित और निरीह से ज्यादा कुछ न थी और इस बात में किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं ही है. कई लोग यह मानते हैं कि स्वामीजी की प्रसिद्धि धर्म पर उनके उच्च व्याख्यान मात्र के कारण हुई, परन्तु इतना भर ही मान लेना इस महान विभूति के योगदान के साथ न्यायपूर्ण नहीं कहा जायेगा! 


भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश और दबे-कुचले लोगों को सम्मान दिला पाना और उससे भी आगे उन टूटे-गिरे, पीड़ित-शोषित लोगों को खड़े होने की हिम्मत दे पाना, उनका सबसे बड़ा योगदान था. आखिर जाति और ऊंच नीच के बंधनों में जकड़े समाज को उन जैसे महापुरुषों की ही तो जरूरत थी. उनका योगदान विश्व की महान आध्यात्मिक धरोहर हिंदुत्व, सनातन मूल्यों को इस्लाम और ईसाइयत द्वारा कुचले जाने के बाद भी रक्षित करना था और वह भी उसके विश्व-बंधुत्व 'वसुधैव कुटुंबकम' के सिद्धांत के साथ! बिना विकृति फैलाये, कोई किस प्रकार नर-सेवा, नारायण सेवा करता है इसका स्वामी विवेकानंद से बेहतर उदाहरण कोई दूसरा नहीं. वह आज के उन छद्म समाज-सुधारकों की तरह कतई नहीं थे, जो कहते हैं कि तुमको हम अमुक सुविधाएं देंगे, परन्तु तब जब तुम हिंदुत्व को त्याग दोगे, अपना 'धर्मान्तरण' करोगे तब! आखिर यह कैसी सेवा है, जिसके बदले कई लोग आज वोट मांगते हैं, तो कई लोग भारतीयता का ही त्याग करने की शर्त रखते हैं? आज के तथाकथित राष्ट्रभक्तों और छद्म-धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों को स्वामीजी के जीवन दर्शन से सीख लेनी चाहिए और शायद तब अपने सेवा की कीमत लेने से वह हिचकें! स्वामीजी का सबसे बड़ा गुण यहीं दिखता है, जब वह गर्व से कहते हैं कि 'मैं हिन्दू हूँ, मै भारतीय हूँ.' अपनी सभ्यता, गाँव, कम शिक्षित माता-पिता और अपने सगे-सम्बन्धियों से लगातार दूर भाग रहे सो कॉल्ड उच्च-शिक्षित वर्ग और प्रोफेशनल युवाओं को स्वामीजी की यह उक्ति जरूर ध्यान रखनी चाहिए, जिसमें वह कहते हैं कि- 'जीवन में अधिक रिश्ते होना जरूरी नहीं है, बल्कि जो रिश्ते हैं उनमें जीवन होना ज्यादा जरूरी है'. आज का नया शब्द 'पीआर' (पब्लिक रिलेशन) इस सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग संबंधों को बनाने में ज्यादा किया जाता है, जबकि निभाने में कम! आज के युवा अधिक सफल होने के लिए अधिक से अधिक सम्बन्ध बनाने में यकीन रखते हैं, ठीक फेसबुक-फ्रेंड्स की तरह, किन्तु हर एक को खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या वास्तव में वह 'संबंधों' की अहमियत को समझते भी हैं? ज्यादा से ज्यादा दोस्त, व्यवसायिक सम्बन्धी होना एक बात है, किन्तु वह अपनी जड़, अपने बुजुर्गों, अपने कमजोर भाई-बहनों से मुंह क्यों मोड़ लेते हैं? 
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हमारा समाज खोखला न हो, इसके लिए स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी बेहद प्रासंगिक है. युवाओं के लिए उनका सन्देश 'शक्तिशाली' बनने का है, वह भी हर तरह से! मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में वह 'शक्तिशाली' बनने के सिद्धांत पर मजबूती से यकीन करते हैं और निश्चित रूप से आज भी युवाओं को इन पहलुओं का ध्यान रखना ही चाहिए. वह युवाओं को सीख देते हुए बेहद व्यवहारिक कार्य-प्रणाली की बात करते हैं कि प्रत्येक कार्य उपेक्षा, विरोध और समर्थन के रास्ते ही गुजरता है. इसलिए बिना किसी निराशा के "उठो, जागो और तब तक न रूको, जब तक मंजिल न मिले! स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व के बारे में चर्चा करते हुए यह बताना आवश्यक है कि वह बिना किसी बड़े सरकारी प्रचार-प्रसार के, आम जनमानस के हृदय के सीधे संपर्क में हैं. जनता जिस प्रकार हर बार उनकी जयंती का उत्सव मनाती है, वह उनकी लोकप्रियता और उपादेयता को आप ही बयान करता है. प्रसिद्द समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया अक्सर ही छद्म ऐतिहासिक पुरुषों पर व्यंग्य करते हुए कहा करते थे कि 'किसी भी व्यक्ति के मृत्यु के बाद उसके नाम पर सरकारी आयोजन नहीं होना चाहिए. यदि वह फिर भी महान है तो जनता उसे स्वयं अपने मन-मस्तिष्क में रखेगी.' स्वामीजी इस कसौटी पर पूरे खरे उतरते हैं. उनकी तस्वीर न तो किसी मुद्रा पर चमकती है और न ही उनके नाम पर तमाम सरकारी योजनाएं ही हैं. आज के राजनैतिक और सामाजिक व्यक्तियों को यहाँ पर सीख जरूर लेनी चाहिए. स्वामी विवेकानंद महापुरुषों की श्रेणी से भी मीलों आगे हैं, क्योंकि उनकी प्रासंगिकता प्रत्येक काल में बनी रहने वाली है. जो शब्द उनके मुख से निकले हैं, वह सार्वत्रिक हैं. जिस तरह घोर अँधेरे में वह दीपक के समान प्रज्वलित हुए, वह सूर्य को चुनौती देने वाला है. यह तय है कि विवेकानंद के वास्तविक विचार ही हमारे भारतवर्ष की आधारशिला बने हैं और भविष्य भी इन्हीं नींव की ईंटों पर टिका रहेगा. हाँ, इसके लिए युवाओं को स्वामीजी के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना ही होगा, क्योंकि इसी में उनका भी विकास और उनके विकास में राष्ट्र का विकास छिपा हुआ है.

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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