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अर्थशास्त्र में एक और नोबेल: प्रत्येक भारतीय के लिए 'गौरव का क्षण'

Economics Nobel Prize Winner 2019 (Screenshot: nobelprize)
भारत को जब तीसरी दुनिया का देश कहा जाता है, तब बड़ा भारी आश्चर्य होता है क्योंकि अतीत से लेकर वर्तमान तक हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी कभी भी नहीं रही है. आखिर वह कौन सा क्षेत्र है, जिसमें हम किसी से कम हों?
इनफार्टेमेशन टेक्नोलॉजी में विश्व भर में हम ऊपरी पायदान पर हैं और दुनिया भर की सैकड़ों टॉप कंपनियों के सीईओ और प्रमुख अधिकारी भारतीय मूल के लोग हैं. इसी प्रकार अर्थशास्त्र में एक बार और एक भारतीय मूल के व्यक्ति अभिजीत बनर्जी को नोबेल प्राइज मिला है तो दूसरे मशहूर अर्थशास्त्री आईएमएफ जैसी वैश्विक संस्थाओं को संभालते रहे हैं. इसी प्रकार विज्ञान की दूसरी विधाओं में भी हम किसी से पीछे नहीं हैं.

इसके अतिरिक्त कला, साहित्य से लेकर दूसरे तमाम क्षेत्रों में भारतीय हमेशा से ही वैश्विक मंचों पर मजबूत आवाज रहे हैं. यकीन मानिये, उनकी आवाज दबी आवाज भी नहीं रही है, बल्कि मुखरता के साथ विश्व मंच पर सुनी जाती रही है.

पर इस प्रश्न का जवाब अभी तक अनुत्तरित ही है कि आखिर इन सब के बावजूद भारत तीसरी दुनिया का देश क्यों बना हुआ है?

खासकर आजादी के बाद कई देश जो हम से पीछे थे, उन्होंने बड़ी तेजी से प्रगति की और गरीबी से करोड़ों लोगों को बाहर निकालने में सफल हुए. इसमें हमारा पड़ोसी चीन भी शामिल है.
निश्चित रूप से वहां कई तरह की राजनीतिक विद्रूपताएं हैं, लेकिन इन सबके बावजूद उसकी प्रगति को अनदेखा नहीं किया जा सकता और विश्व भर में कोई भी उसकी प्रगति को अनदेखा करने की हालत में है भी नहीं!
यहाँ तक कि तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद खुद भारत भी उसके साथ व्यापार करने को उत्सुक रहता है. ऐसे में प्रगति के अपने मानकों को हमें लगातार तौलते रहना होगा!

निश्चित तौर पर भारत की ताकत उसकी लोकतांत्रिक शक्तियां रही हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वह चाहे 1975 की इमरजेंसी हो या वर्तमान समय हो, उस लोकतंत्र की खासियत पर भी सवाल उठते रहे हैं.
खैर, इन जटिल प्रश्नों का उत्तर ढूंढना इतना आसान भी नहीं है, लेकिन अभिजीत बैनर्जी का नोबेल प्राइज जीतना हमें जहां गौरव का अवसर प्रदान करता है, वहीं इन महत्वपूर्ण अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों पर गौर फरमाने का अवसर भी देता है.


चूंकि भारत इस समय आर्थिक मंदी और रोजगार में भारी कमी का सामना कर रहा है. ऐसी स्थिति प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भी आती है और तमाम देश भी इस प्रकार की चुनौतियों से दो-चार होते रहे हैं, इसमें कुछ अजूबा नहीं है.


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किन्तु इस बुरी स्थिति का आंकलन देश में शीर्ष पदों पर बैठे लोग जिस प्रकार से कर रहे हैं, वह निश्चित रूप से अजूबा है. आखिर, मंदी का कारण ओला-उबर जैसी सर्विसेज का बढ़ना बताना या फिर फिल्मों के कारोबार से यह आंकलन लगाना कि मंदी नहीं है, अपने आप में अजूबा है.


अगर थोड़ा पीछे जाएँ तो देश में आर्थिक मंदी का सबसे बड़ा कारण 'नोटबंदी' को बताया जा चुका है. निश्चित रूप से यह एक ऐसा कदम था, जिसने अर्थशास्त्र के तमाम नियमों को न केवल अनदेखा करने का काम किया, बल्कि उसे कुचला भी!
माना कि ऐसा फैसला किसी 'अतिरिक्त-खुशफहमी' में लिया गया, किन्तु उस फैसले का सालों बाद तक बचाव किया जाना अपने आप में आश्चर्य है. चूंकि हम उसकी असफलता को स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए उसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने की रणनीति पर न तो चर्चा होती है और उस पर क्रियान्वयन की तो बात ही दूर है.
एक तरफ विश्व स्तर पर जहाँ भारतीय प्रतिभाएं अर्थशास्त्र में नोबेल-पुरस्कार जीत रही हैं, वहीं भारतीय रिजर्व बैंक में भारतीय अर्थशास्त्री टिक नहीं पा रहे हैं और इतिहास से सम्बंधित विशेषज्ञ को इसकी कमान दी गयी है.
ऊपर से उनका बयान आता है कि "आरबीआई चीफ को टेक्निकल ज्ञान रखना उतना जरूरी नहीं है."

ज़रा गौर कीजिये!
जाहिर तौर पर अर्थशास्त्र के मामले में भारत में दो तरह की मानसिकता पनपी है. इन दोनों के बीच में अच्छा खासा फासला भी है और इसी फासले को अगर हम दूर कर पाएं तो मुश्किल हल होने की ओर बढ़ने लगेगी.
इसी प्रकार अगर अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को, अगर अपनी सामाजिक विषमताओं को हम समस्याओं के हल में बाधा न बनने दें, अर्थ संबंधी दुरूहताओं को समझने में बाधा न बनने दें, तो कोई कारण नहीं है कि भारत तीसरी दुनिया के देश से निकलकर पहली दुनिया के देशों में शीर्ष स्थान पर काबिज हो जाएगा.

बहरहाल यह खुशी मनाने का अवसर है और इस वक्त अभिजीत बैनर्जी की सफलता और उनके द्वारा किए गए कार्यों को ध्यान में रखना चाहिए. अगर उनके सफर पर एक नज़र डालें तो भारतीय मूल के इस अमेरिकी इकोनॉमिस्ट की शिक्षा-दीक्षा कोलकाता यूनिवर्सिटी से हुई थी. बाद में इन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से अपनी मास्टर डिग्री पूरी की और फिर तमाम शोध कार्यों को करते हुए यह वर्तमान में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी में इकोनॉमिक्स के इंटरनेशनल प्रोफेसर के तौर पर काम कर रहे हैं.

2003 में उन्होंने एस्‍थर डुफ्लो और सेंधिल मुलाइनाथन के साथ मिलकर अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब की स्थापना की थी. इसके अलावा वह कई संस्थाओं के अध्यक्ष और एसोसिएट भी रह चुके हैं. साथ ही उन्होंने इकई किताबें भी लिखी थीं, जिसमें पुअर इकोनॉमिक्स सर्वाधिक चर्चित किताब रही है और इसे गोल्डमैन सैक्स बिजनेस बुक ऑफ द ईयर का खिताब दिया जा चुका है.

पर इन सब उपलब्धियों से अलग अभिजीत बैनर्जी को जिस बात के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया है वह गरीबी दूर करने के उनके प्रयोगों के लिए दिया गया है. जाहिर तौर पर यह किसी भी इकोनॉमिक्स के जीवन भर के रिसर्च का सार होता है. आप अगर इनके कार्यों को देखें तो इन्होंने गरीबी के तमाम बड़े मुद्दों को छोटे-छोटे क्वेश्चंस में डिवाइड किया और इस तरीके से उन्होंने प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की पद्धति विकसित करने की कोशिश की.
Abijeet Banerjee, The Indian Origin Nobel Winner for Economics (Pic: Hindustan...)
इनसे पहले इकोनॉमिक्स एक जटिल विषय के रूप में जाना जाता था, लेकिन इन्होंने एक तरह से इसका सरलीकरण किया. इसके अलावा इनकी पावर्टी एक्शन लैब गरीबी को कम करने की पॉलिसी पर ही काम करती है और उनके इस नेटवर्क में दुनियाभर के तमाम यूनिवर्सिटीज के 181 के आसपास प्रोफेसर जुड़े हुए हैं. अर्थशास्त्र की विभिन्न शाखाओं जिसमें इकोनामिक डेवलपमेंट, सूचना सिद्धांत, आय वितरण का सिद्धांत और मैक्रो इकोनॉमिक्स इत्यादि शामिल हैं, उसमें अभिजीत बनर्जी की गहरी रुचि रही है. जल्द ही इनकी किताब "व्हाट द इकोनॉमिक्स नीड नाउ" आने वाली है और मुझे लगता है कि जिन की भी इकनोमिक में रुचि होगी, वह इस किताब को जरूर पढ़ना चाहेंगे. निश्चित रूप से यह किताब वर्तमान में उभरी तमाम वैश्विक चुनौतियों पर बात करेगी और अर्थशास्त्र के नियमों के अनुसार उसका सलूशन देने में भी मददगार साबित होगी, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए.

अभिजीत बैनर्जी को निश्चित रूप से उनकी बड़ी उपलब्धि के लिए बधाई दी जानी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्तमान भारत के नीति निर्माता अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को बारीकी से समझ कर भारत को तीसरी दुनिया के देश से निकाल कर अगली पंक्ति में खड़ा करने का प्रयत्न करेंगे.

तभी भारत की इतनी प्रतिभाओं की कुछ अहमियत साबित होगी अन्यथा हर भारतीय प्रतिभा को 'तीसरी दुनिया के देशों के मूल प्रश्नों से दो-चार होना ही पड़ेगा.

आपके मन में भी अगर 'तीसरी दुनिया के देशों के मूल प्रश्न उठ रहे हैं, तो अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं.

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




Web Title: Economics Nobel Prize Winner 2019, Hindi Article, Abhijeet Banerjee

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