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कुर्द, तुर्क, असद और 'अंतरराष्ट्रीय कुटिलता'

अंतरराष्ट्रीय पॉलिटिक्स कितनी उलझी हुई होती है, अगर यह किसी को समझना है तो उसे सीरिया में चल रही 'अंतहीन लड़ाई' के हाल ही में बदले मंजर को देखना और समझना चाहिए.

Turkey attack on Kurd Fighters, Syria War (Pic: rte)

जिस इस्लामिक स्टेट यानी आईएस (IS) को पूरे विश्व के लिए खतरा बताकर अमेरिकी सेना उस पर टूट पड़ी थी और इस काम में उसके सबसे बड़े मददगार साबित हुए थे कुर्द. गौरतलब है कि कुर्दों ने इस लड़ाई में न केवल अमेरिका का साथ दिया, बल्कि इस शिद्दत से साथ दिया कि इस्लामिक स्टेट के ऊपर एक तरह से काबू पा लिया गया. इस प्रक्रिया में कुर्द लड़ाके हजारों की संख्या में अपनी जान गंवाने पर मजबूर हुए.

कुर्दों ने जिस बहादुरी से यह लड़ाई लड़ी, उस लड़ाई से इस्लामिक स्टेट पर काबू पाने में बड़ी मदद मिली, लेकिन अंतरराष्ट्रीय पॉलिटिक्स के दांव-पेच में कुर्द उलझ कर रह गए. अमेरिका जिस प्रकार से कुर्द प्रभुत्व वाले इलाकों से अपनी सेना हटा चुका है, उसने सीरिया को लड़ाई के और भी गहरे जोन में धकेल दिया है.
तुर्की द्वारा कुर्द इलाके पर लगातार हमला हो रहा है, ताकि अपने देश में आए सीरियाई शरणार्थियों को एक सेफ जोन में रख सके. बेशक तुर्की के हमले की विश्व भर से आलोचना हो रही है, लेकिन एर्दोआन किसी हाल में अपने निर्णय से पीछे नहीं हट रहे हैं. उनका साफ़ कहना है कि कोई कुछ भी कहे, वह अपने अभियान से पीछे नहीं हटने वाले!
यहां तक कि अमेरिका द्वारा तुर्की पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की घोषणा भी हुई है, बावजूद इसके तुर्की राष्ट्रपति पीछे नहीं हट रहे हैं.

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दिलचस्प यह है कि अपने अस्तित्व पर संकट आते देखकर सीरिया की वर्तमान असद सरकार से कुर्दों के समझौते की खबर आई है, जो काफी चौंकाने वाली है. पहले यह विरोधी खेमा था, लेकिन अब अमेरिका के इस इलाके से हाथ खींचने के कारण कुर्द मजबूर होकर अपने अस्तित्व के लिए असद सरकार और रूस के पक्ष में खड़े हो चुके हैं. चूंकि सीरिया के उत्तर-पूर्वी इलाके में तुर्की अटैक को रोकने के लिए ही यह समझौता किया गया है जिसे सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेज और असद सरकार का बेमेल समझौता कहा जा रहा है.

International War Politics in Syria, since 2011 (Pic: handelsblatt)

बताते चलें कि सीरिया में 2011 से ही संघर्ष चल रहा है और भयंकर गृह युद्ध के बावजूद अगर बशर अल असद सरकार में बने हुए हैं तो उसका कारण यही है कि उनको रूस और ईरान का मजबूत समर्थन हासिल है.

अगर आप इस पूरी स्थिति को समझना चाहते हैं तो आपको यह समझना होगा कि मध्य पूर्व के इस देश में तमाम वैश्विक शक्तियां अपना प्रभुत्व स्थापित करने में लगी हुई हैं. रूस हमेशा से बशर अल असद सरकार के साथ खड़ा रहा है, जबकि इस्लामिक स्टेट को हराने के नाम पर असद सरकार के कई ठिकानों पर अमेरिकी सैनिक और कुर्द लड़ाकों ने लगातार गोलीबारी की है. बाद में उत्तर पूर्वी सीरिया का इलाका एक तरह से कुर्दों के हाथ में आ गया और बशर अल असद ने इस इलाके को एक तरह से छोड़ भी दिया.

बाद में अमेरिकी सैनिक क्षेत्र से बाहर निकलते गए और अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क ऐस्पर ने साफ तौर पर कह दिया कि कुर्द लड़ाके सीरिया और रूस से मदद ले सकते हैं और अमेरिका उनका बचाव नहीं करेगा.मुश्किल यह है कि इस संघर्ष के कारण सवा लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं और एक भारी मानवीय संकट उत्पन्न हो गया है. 

इससे भी बड़ी बात यह है कि इस्लामिक स्टेट के तमाम लड़ाके जो एक तरह से जेल रूपी कैंपों में रह रहे थे, उनका फिर से इस्लामिक स्टेट से जुड़ने का खतरा पैदा हो गया है. पहले कुर्दों ने इन पर नियंत्रण बनाया हुआ था. बताया जा रहा है कि हजार लोगों से अधिक संदिग्ध इस्लामिक स्टेट के चरमपंथी एक शिविर से निकल भागे हैं.

दिलचस्प बात यह भी है कूर्द लड़ाके जहां अमेरिका के सहयोगी रहे हैं, वहीं तुर्की उन्हें चरमपंथी बताता आया है. उधर दूसरी तरफ खुद तुर्की नाटो में अमेरिका के बाद सबसे बड़ा देश है. कहा तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका की बिना सहमति के तुर्की ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकता था.
हालाँकि, अमेरिका तुर्की को इस हमले की इजाजत देने की बात से इंकार कर रहा है.
वैसे कुछ दुसरे विशेषज्ञ भी इस बात से इंकार करने के कारण गिना रहे हैं. चूंकि तुर्की नाटो का बड़ा सदस्‍य देश है, लेकिन कुछ अरसे से तुर्की और यूएस के बीच दरार ज़रूर आई है. अमेरिका से दूरी ने पुतिन और एर्दोगान को करीब लाया है. हाल ही में तुर्की ने रूस से मिसाइल शील्‍ड की खरीदारी भी की है.

Women Kurd Fighters in Syria (Pic: TheNational...)

आप इस विषय को समझने की कोशिश करेंगे तो और भी बात उलझ जाएगी. प्रश्न उठता है कि अगर तुर्की रूस के करीब जा रहा है तो फिर रूस के बड़े सहयोगी बशर अल असद के सैनिक तुर्की के सैनिकों से लड़ने क्यों जा रहे हैं, वह भी कुर्दों के साथ?
वहीं कुर्द अमेरिका से कम से कम इस बात की उम्मीद तो कर ही रहे हैं कि वह तुर्की पर दबाव बनाकर संघर्ष-विराम कराये.

बहरहाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुर्की के सैन्य अभियान की आलोचना जरूर हो रही है. फ़्रांस, जर्मनी इत्यादि देश तुर्की को हथियार देने से मना करने को कह चुके हैं, वहीं ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भी तुर्की के राष्ट्रपति को इस क्षेत्र में आईएस की पुनः बढ़त को लेकर चेतावनी दी है. देखना दिलचस्प होगा कि 21वीं सदी का सबसे बड़ा मानवीय संकट झेलने वाले सीरिया की अंतहीन लड़ाई का अंत कब और क्या होता है!
क्या तमाम वैश्विक शक्तियां इसमें अपनी जिम्मेदारी निभाएंगी या फिर सामने कुछ और और पीछे कुछ और की रणनीति अपनाकर तुर्की जैसे देशों को नस्लीय सफाई की इजाजत दी जाएगी?
बड़ा सवाल है और इसका जवाब शायद ही किसी के पास है... या फिर है आपके पास?


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