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'आउट ऑफ़ दी बॉक्स' पॉलिटिक्स या... Modi in Pakistan, Indian PM in Lahore, depth analysis about Islamic country Pakistan, mithilesh hindi article

आप उनसे प्यार कर सकते हैं, आप उनसे नफरत करा सकते हैं, लेकिन आप उन्हें 'अनदेखा' नहीं कर सकते हैं ... किसी हाल में नहीं! जी हाँ, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक पाकिस्तान यात्रा ने सीधे-सीधे कई प्रभावों और संभावनाओं को जन्म दिया है. इन सरगर्मियों को सनसनी टाइप ब्रेकिंग स्टाइल में देखा जाय तो कुछ ऐसे आंकलन हो सकते हैं, संसद में बेहद कम संख्या वाली कांग्रेस समेत दुसरे विपक्षियों की संसद को न चलने देने की ब्लैकमेलिंग की धार कुंद हुई, अरुण जेटली और कीर्ति आज़ाद मामले में घिरी भाजपा इस मुद्दे से फिलहाल बाहर निकली, अरविन्द केजरीवाल की ओर से कैमरा घूमकर पुनः नरेंद्र मोदी के चेहरे की ओर, अमेरिका-रूस समेत बड़े देशों का भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत का प्रयास या दबाव रंग लाया, जल्दबाज कूटनीति में पाकिस्तान को एक और आतंकी हमला या वार करने की भारत ने दी छूट या फिर भारत-पाकिस्तान के बीच नूराकुश्ती के लिए एक माहौल फिर बना! इसके विपरीत इस कथित 'आउट ऑफ़ दी बॉक्स' कूटनीति को आशावादिता की दृष्टि से देखें तो भारत-पाकिस्तान के बीच शांति की ऐतिहासिक शुरुआत, पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, वहां के चरमपंथी और फिर अंत में नवाज शरीफ सरकार ने मिलकर पाकिस्तान को आतंक-नीति से हटाकर शांति-पथ पर चलने के लिए आम सहमति बनाई है... बला, बला ... इस मजबूत भूमिका की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आखिर इस पूरे उपक्रम से हासिल क्या, किसे और कितना? पाकिस्तान के सन्दर्भ में एक सरसरी तौर पर बात की जाय तो यह राष्ट्र जिन राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर साँसे लेता है, उसमें इसके जन्म से पिछले दशक (2008 मुंबई हमला) तक 'भारत-विरोध' सबसे प्रमुख मुद्दा रहा है. दूसरा मुद्दा इसका चरमपंथ (या सीधा आतंकवाद) को समर्थन है, जिसमें अफगानिस्तान में कथित 'अच्छे तालिबान' को समर्थन इससे जुड़ा हुआ है. इस देश का तीसरा राष्ट्रीय मुद्दा इसकी सेना और परमाणु बम से जुड़ा जन-समर्थन है, जिसका फायदा उठाकर इस देश में तख्तापलट जब-तब होते रहे हैं. 

यह तीनों मुद्दे खुद पाकिस्तान के लिए घातक रहे हैं और इसीलिए वह एक 'अक्षम-राष्ट्र' के रूप में जाना जाता है. इस हद तक कि इसके आम नागरिक भी पूरे विश्व में नकारात्मक रूप से चिन्हित हैं. अब ज़रा गौर कीजिये, 2008 के मुंबई हमले के बाद की स्थिति, नरेंद्र मोदी की भारतीय सत्ता में मजबूत रूप से जमने के बाद की स्थिति और एक साल पहले पाकिस्तान में पेशावर के स्कूल पर आतंकियों के हमले से उत्त्पन्न स्थिति का इस देश पर क्या प्रभाव पड़ा! 2008 के बाद दोनों देशों के बीच पूरी तरह डायलॉग बंद हो जाने से 'भारत-विरोध' का मुद्दा एक तरह से गौण हो गया, क्योंकि हाफिज सईद और लखवी पर यह देश कार्रवाई करने से तो रहा! नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही जिस तरह वैश्विक स्तर से निवेश लाने और छवि निर्माण में भारत जुटा, उसने पाकिस्तान को आर्थिक रूप से गहरे चिंतन में धकेल दिया. चीन का पाकिस्तान में 46 बिलियन डॉलर के भारी-भरकम इन्वेस्टमेंट का इकॉनोमिक कॉरिडोर मुख्यतः इसी चिंतन से उपजा परिणाम था. मोदी के आने से पाकिस्तान के हित में एक और जो बड़ा फायदा हुआ, वह था  नवाज शरीफ की मजबूती! चूँकि, भारत लोकतान्त्रिक रूप से बेहद मजबूत हो रहा था और वैश्विक बिरादरी में उसकी बढ़ती इज्जत में यह सबसे बड़ा फैक्टर भी है, यह बात पाकिस्तानी आवाम के साथ सेना को भी बखूबी समझ आई, तात्कालिक रूप से ही सही, और मजबूरन सेना ने सरकार के साथ तालमेल करना शुरू किया. दिसंबर 2014 में पेशावर अटैक के बाद चरमपंथ के खिलाफ खुद फ़ौज को मैदान में उतरना पड़ा और एक बड़ी संख्या में आतंकियों को इस देश ने फांसी पर भी चढ़ाया है. अब पाकिस्तान में जाकर नरेंद्र मोदी द्वारा बेहद करीबी दिखाने से इन सारे बदलावों पर से ध्यान हटकर अंततः 'भारत-विरोध' पर ही जाएगा, क्योंकि भारत करेगा आतंकवाद पर बात, पाकिस्तान करेगा कश्मीर पर बात ... और बात गोल-गोल घूमती रहेगी! इसके दुष्परिणामों में यह बात भी सामने आएगी कि चरमपंथी, जो अभी पाकिस्तानी फ़ौज और अवाम द्वारा कुचले जा रहे हैं, वह कश्मीर को लेकर अपनी आवाज के सहारे अपनी आतंकी जड़ को और मजबूत करेंगे. 

दूसरी ओर, नवाज शरीफ से नरेंद्र मोदी की गुफ्तगू और बिरयानी दावतों से पाकिस्तानी सेना और शरीफ के बीच भी एक दीवार जरूर खड़ी होगी और फ़ौज को शायद 'तख्तापलट' का एक बहाना भी मिल जाए! मतलब पाकिस्तान के लिए, जो अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर ही रहा है, आतंक के खिलाफ आतंरिक रूप से लड़ने का ज़ज़्बा दिखा ही रहा है कि पीएम मोदी ने उन्हें फिर से 'भारत-विरोध' में उलझाने का सब्जबाग दिखा दिया है. पहले बाजपेयी और अब मोदी जैसे इन्नोवेटिव लोगों को आखिर यह समझ क्यों नहीं आता कि बातचीत का मतलब विभिन्न स्टारों पर बँटा पाकिस्तान यह समझता है कि भारत उसको 'कश्मीर' दे देगा? यह संभव है क्या? ... इसका सीधा, टेढ़ा और सपाट उत्तर है 'नहीं'! तो ऐसे में पाकिस्तानी चरमपंथी खिसियाकर कभी 'आतंकी' हमला करते हैं, कभी उनकी सरकार 'यूएन' और दुसरे मंचों पर 'कश्मीर मुद्दा' उठाती है, तो उनकी सेना 'सीधा हमला' करने की मूर्खता भी करती है! अब ज़रा सोचिये, अगर बातचीत ही न की जाए, या फिर अनमने ढंग से टाइम-पास बातचीत की जाय तो  फिर बाद के मुद्दे आने की नौबत ही न आये और पाकिस्तानी भी हारकर अपने विकास में लगें, अपने यहाँ आतंक को निशाना बनाएं, लोकतंत्र को मजबूत करें! वर्तमान और निकट भविष्य के भारतीय नेताओं को 'नियति' शब्द पर भरोसा करना चाहिए, क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बीच किसी तरह की 'कूटनीति' नहीं है, बल्कि सीधी दुश्मनी है, जिसके सबूत 1947 से 1965 और बांग्लादेश की स्वतंत्रता से लेकर कारगिल तक बिखरे पड़े हैं. और अब तो चीन-पाकिस्तान का ऐसा मजबूत गठजोड़ है जो कतई भारत-पाक को करीब नहीं आने देना चाहेगा? यही क्षेत्रीय संतुलन अफगानिस्तान और बांग्लादेश को लेकर भारत के साथ भी है! ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान से बातचीत नहीं की जा सकती, किन्तु पहले वह इस स्थिति में तो आये... !!

नवाज शरीफ आखिर किस खेत की मूली हैं वहां? हमारे लिए वह एक राष्ट्र के प्रमुख हैं, किन्तु वहां की सेना के लिए तो एक जूनियर मेजर या कोई अन्य अधिकारी भर हैं, जिस पर सीनियर अधिकारी जब चाहे कोर्ट मार्शल करके देश निकाला दे सकता है? उनकी हालत इसी बात से समझी जा सकती है कि 1999 में कारगिल हो गया और उन्हें पता तक नहीं था... ... वही हाल आज भी तो है! काश! चुपके-चुपके लाहौर जाने वाले हमारे पीएम इन हालातों को समझ पाते, तो वह पाकिस्तान पर इतना अहसान जरूर करते कि उसे उसके हाल पर छोड़ देते ... ताकि वह भारत-विरोध, लोकतंत्र-विहीनता, आतंरिक आतंकवाद और आर्थिक विकास जैसे मुद्दों पर कुछ मजबूत तो होता ... तब शायद वहां की आवाम, फ़ौज, आईएसआई, चरमपंथी और सरकार 'युद्ध' से डरते, क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ होता! उनके पास भी भविष्य के सपने होते और तब मामला आप ही सुलझने की ओर बढ़ जाता! मगर बड़े नेताओं के 'बियॉन्ड दी बॉक्स' जाने और किसी मामले को आज ही सुलझाने का अति आत्मविश्वास अक्सर घातक सिद्ध होता है. वैश्विक इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरा पड़ा है तो खुद आज़ाद भारत के इतिहास में आपको इसके उदाहरण दिख जायेंगे! हालाँकि, इस बार सबसे बुरा 'पाकिस्तान' के साथ हुआ है, बिचारे अभी-अभी तो लोकतंत्र की सीमा में घुसे थे, अभी-अभी तो आतंक का खुद पर स्वाद चखा था, अभी-अभी तो आर्थिक विकास का झोंका महसूस किया था... कि इन सबको पीछे धकेलकर 'भारत-विरोध' का घिनौना दृश्य फिर उनके सामने, सबसे ऊपर आ खड़ा होने की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी!

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