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त्रिकोणीय राजनीति के भंवर में श्रीलंका



हाल-फिलहाल पड़ोसी देश श्रीलंका की राजनीति में तूफान मचा हुआ है.
वैसे भी पिछले दशक में इस छोटे देश को लेकर जितनी खींचतान हुई है उतना संभवतः किसी अन्य देश को लेकर नहीं हुई होगी.

जी हां! बात हो रही है इस द्वीपीय देश में दो बड़े क्षेत्रीय सुपर पावर चीन और भारत की टकराहट या फिर कहें कि एक दूसरे पर बढ़त बनाने के प्रयासों को लेकर.

Pic Courtesy: newsin
सबसे ज्यादा चर्चित मामला तब सामने आया, जब श्रीलंका में हंबनटोटा पोर्ट को लेकर चीन से इस देश को मजबूरी में समझौता करना पड़ा. 99 साल की लीज पर जब यह बंदरगाह चीन को सौंपा गया तो न केवल भारत बल्कि समूचे विश्व में यह चर्चा का विषय बना. हालाँकि, शुरुआत में इस तरह की कोई रणनीति श्रीलंका की नहीं थी, किन्तु क़र्ज़ का जाल 'ड्रैगन' ने कुछ इस तरह बुना कि श्रीलंकाई रणनीतिकार हक्के-बक्के रह गए. चीन का बड़े पैमाने पर श्रीलंका में विरोध भी हुआ.

बताया जाता है कि 2008 के आसपास ही इस देश में चीन दखल देना शुरू कर चुका था और भारत इस बात को लेकर हमेशा आशंकित रहा कि चीन सैन्य रूप से श्रीलंका का इस्तेमाल कर सकता है. जबकि तत्कालीन समय में भारत सरकार की ओर से इस प्रकार के हालात को कूटनीतिक तौर पर संतुलित करने के ठोस प्रयास अमल में नहीं लाये गए और पानी सर से ऊपर गुजरता गया.

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि चीन को इस देश में एकछत्र राज मिल गया हो बल्कि कर्ज में दबे श्रीलंका के लोग इसके विरुद्ध खासी आवाज उठाते रहे हैं लेकिन जानने वाले कहते हैं कि इस समय श्रीलंका चीन के कर्ज में कुछ यूं दबा हुआ है कि अगर चीन बोलेगा कि उसे उठना है तो वह उठेगा और अगर बोलेगा कि बैठना है तो श्रीलंका को बैठना पड़ेगा!

भारत में नयी सरकार के गठन के बाद पिछले कुछ सालों से ज़रूर कुछ प्रयास किये जा रहे हैं. चीन के बढ़ते क्षेत्रीय प्रभाव की काट के रूप में भारत और जापान जैसे देश एक साथ तेजी से साथ आए. खासकर श्रीलंका को लेकर भारत सक्रिय हुआ है और ऐसे में चीन और भारत के बीच इस देश में राजनीतिक खींचतान शुरु होनी स्वाभाविक ही थी.
परदे के पीछे चल रही कूटनीति के बीच बीते अक्टूबर के महीने में वर्तमान श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैथ्रिपाला सिरीसेना ने भारतीय खुफिया एजेंसी "रॉ" पर अपनी हत्या की साजिश रचने का शक जाहिर किया तो तहलका मच गया.

इसके बाद से तो एक तरह से श्रीलंका में एक के बाद दूसरी राजनीतिक उठापटक ही शुरू हो गई. बदलते घटनाक्रम में राष्ट्रपति सीरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को उनके पद से बर्खास्त कर दिया बावजूद इसके कि उनके पास बहुमत था और अल्पमत वाले चीन समर्थक नेता माने जाने वाले महिंदा राजपक्षे को आनन-फानन में प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी.

Pic: manormaonline
इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सरगर्मी रही, किंतु राष्ट्रपति सिरीसेना यहीं नहीं रुके बल्कि जब उन्होंने यह संभावना देखी कि महिंदा राजपक्षे अपना बहुमत नहीं साबित कर पाएंगे तो उन्होंने संसद को भंग करने का फैसला कर लिया. लोकतंत्र में बहुमत की इस अनदेखी को लेकर इसकी आलोचना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई और अमेरिका ब्रिटेन सहित तमाम देशों ने इस पर अपनी चिंता जाहिर कर दी.

इसी क्रम में एक बयान में बर्खास्त प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने इस बात का जिक्र किया कि एक प्रोजेक्ट को भारत और जापान को संयुक्त रूप से देने को लेकर राष्ट्रपति सिरीसेना से उनकी गरमा गरम बहस हुई थी जिसके बाद उन्होंने यह कदम उठाया. समझा जा सकता है कि 2 देशों से फायदा लेने के चक्कर में श्रीलंका इस समय वैश्विक राजनीति में एक हद तक अनचाहे रूप से चर्चित ज़रूर हो गया है. हालांकि कई बार ऐसी कोशिशें उल्टी भी पड़ती हैं. सच कहा जाए तो उसे दोनों ताकतों से संतुलन बना कर चलने में यकीन करना चाहिए जबकि यह बात एक तरह से साबित हो चुकी है कि श्रीलंका महिंदा राजपक्षे और ऐसे कुछ नेताओं की वजह से चीन के कर्ज में बुरी तरीके से दब गया है. हालाँकि, इसे लेकर भी कुछ लोग महिंदा राजपक्षे की मजबूरियाँ गिना सकते हैं.

कहते हैं कि बड़ों की प्रतिस्पर्धा में बेवजह से किसी तीसरे, खासकर कम ताकतवर को नहीं पड़ना चाहिए और एक छोटा देश होने के कारण श्रीलंका को ऐसे में बेहद सावधानी बरतने की जरूरत है. चूंकि चीन की 'वास्तविक विस्तारवादी रणनीति' से तमाम देश वाकिफ हो चुके हैं. यहां तक कि उसकी ओवीओआर (वन बेल्ट वन रोड) परियोजना भी खासी रूप से विवादों में आ गई है और कई देशों ने इसे लेकर अपनी चिंता जाहिर की है. भारत ने तो खुले रूप से इस परियोजना का विरोध जारी रखा है, क्योंकि चीन इसमें दूसरे देशों का हित ध्यान में रखने से बच रहा है. ऐसे में श्रीलंका को बेहद सधे कदम उठाने की जरूरत है और दो देशों के बीच बैलेंस बनाने से वह न केवल विकास करेगा बल्कि विवादों से बच भी सकेगा अन्यथा पिछले दशकों में गृह युद्ध की चपेट में रहे इस द्वीपीय देश का भविष्य निश्चित तौर पर 'अनिश्चित' बना रहेगा.

Pic: lankanewsweb
जहाँ तक राजनीतिक घटनाक्रम में उलटफेर की बात है तो चीन के क़र्ज़ में दबे श्रीलंकाई उकता चुके हैं और यह क़र्ज़ उस पर भारी पड़ता जा रहा है. दबाव का आलम यह है कि महिंदा राजपक्षे द्वारा प्रधानमंत्री की शपथ लेने के कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना से उनका गठबंधन टूट गया है. राजपक्षे के इस कदम से माना जा रहा है कि वे 5 जनवरी को होने वाले चुनाव में अकेले लड़ेंगे और इस दौरान वे 1951 में गठित एसएलएफपी का साथ नहीं दे सकते हैं. वैश्विक स्तर पर भी बर्खास्त प्रधामंत्री विक्रमसिंघे को सपोर्ट मिलना जारी है. विक्रमसिंघे के समर्थकों द्वारा प्रदर्शन के बाद न्यूयॉर्क के ह्यूमन राइट्स वॉच ने चेतावनी दी थी कि श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाने से गलत परंपरा की शुरुआत हो सकती है. ऐसे में खुद राष्ट्रपति सिरिसेना भी दबाव से गुजर रहे हैं. देखना दिलचस्प होगा कि श्रीलंका की जनता द्वारा दिया गया जनमत वहां के नेताओं को परिपक्व बनाता है या फिर अपने-अपने संकुचित स्वार्थों के लिए या फिर चीन जैसे देशों के दबाव में आकर 'अपरिपक्वता और लोकतंत्र के खिलाफ' उसके नेता राह अख्तियार करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हाल-फिलहाल हुआ है.

वैसे दिलचस्प है कि त्रिकोणीय राजनीति के भंवर में फंसे श्रीलंका की विदेश नीति में उस सहित तीन खिलाड़ी तो घरेलु राजनीति में भी तीन खिलाड़ी सिरिसेना, राजपक्षे और विक्रमसिंघे हैं. ऐसे में घर और बाहर त्रिकोणीय राजनीति क्या गुल खिलाती है, यह अवश्य ही देखने वाली बात होगी!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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