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हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना पांच देशों का बहुचर्चित दौरा पूरा कर चुके हैं. इन धमाकेदार दौरों में अफगानिस्तान, क़तर, स्विट्ज़रलैंड, अमेरिका और मैक्सिको में काफी कुछ उन्होंने हासिल किया है तो दुनिया को काफी कुछ खुलकर बताया भी है. इन 5 देशों में 5 दिन में लगभग 40 बैठकें करने के बाद भारतीय विदेश नीति पर चर्चा न केवल भारत या अमेरिका में, बल्कि पाकिस्तान सहित चीन में भी खूब हुई है. अपनी चौथी अमेरिका यात्रा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए कीर्तिमान तो गढ़े ही हैं, साथ ही साथ अमेरिका ने भी इस बार, ऑफिशियली दिल खोलकर स्वागत किया है. यूं भी मोदी ओबामा की दोस्ती खूब चर्चित रही है और ऐसा लगता है कि बराक ओबामा ने भी इसे अमेरिका और भारत की दोस्ती में बदलने की की कोर कसर नहीं छोड़ी है. जाहिर तौर पर भारत के लिए सबसे बड़ी सफलता की बात अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा एनएसजी (न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप) में शामिल होने के लिए भारत का समर्थन करना रहा. विदित हो कि भारत एनएसजी में खुद को शामिल करने के लिए प्रयासरत रहा है, लेकिन कई बार की तरह पिछली बार भी ब्रिक्स सम्मलेन के दौरान चीन ने इस बात का कड़ा विरोध किया और शर्त रखी कि पाकिस्तान को भी एनएसजी में शामिल किया जाये और तब भारत का प्रस्ताव खटाई में चला गया! यही नहीं जब भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूर अज़हर को यूएन द्वारा प्रतिबंधित करने की मांग उठाई तो वहां भी चीन ने इस बात का विरोध किया. भारत और चीन के असहज रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं, लेकिन भारत और अमेरिका के बीच सम्बन्धों की ऊँची होती मजबूती देखकर चीन भी पहली बार संतुलन की भाषा बोलता दिखा है. यूं तो चीन भारत को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देता है, बल्कि पिछले दिनों तो नयी कूटनीति के नाम पर चीन भारत के चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को इस हद तक आगे बढ़ा रहा है, जहाँ खुद उसकी साख दाव पर लग गयी है. यहाँ तक कि उसे आतंकी मसूद अज़हर का समर्थन करने में भी परहेज नहीं रहा, लेकिन अबकी बार उसका स्वर थोड़ा मद्धम पड़ा है, इस बात में दो राय नहीं!
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गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी की इस अमेरिका यात्रा के दौरान ही चीन के सरकारी अख़बार 'ग्लोबल टाइम्स' ने यह कहने का साहस किया है कि 'भारत, चीन को रोककर या उसकी घेरेबंदी करके आगे नहीं बढ़ सकता.' अब इस स्टेटमेंट को आप उल्टा करके देखें तो इसमें साफ़ सन्देश दिखता है कि 'भारत को रोककर चीन भी आगे नहीं जा सकता है.' जाहिर है, यह एक दोस्ताना और ग्राउंड-रिएलिटी वाला स्टेटमेंट है. इतना ही नहीं, चीन के इस सरकारी अख़बार ने भारत को उसकी 'गुट निरपेक्ष' नीति की याद भी दिलाई है तो यह भी कहा है कि तमाम प्रतिद्वंदिता के बावजूद चीन और भारत में सहयोग के कई अवसर हैं, इसलिए दोनों को आपसी विश्वास बहाली की दिशा में कार्य करना चाहिए. पिछले चार-पांच सालों से मैं भारत और चीन के रिश्तों पर बारीकी से गौर कर रहा हूँ, लेकिन पिछले दिनों में चीन जिस तरह से पाकिस्तान से सम्बन्ध बढ़ाने में, भारत को एनएसजी में शामिल होने से रोकने में और फिर भारत-अमेरिकी सम्बन्धों की मजबूत होने से उत्पन्न प्रभावों को संतुलित करने में हड़बड़ाहट दिखा रहा है, वह उसकी मनः स्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है. चीन ऊपर से बेशक दबंगई दिखलाये, लेकिन सच यही है कि वर्तमान में 'साउथ चाइना सी', मानवाधिकार, व्यापारिक गिरावट सहित तमाम वैश्विक मुद्दों पर वह एकतरह से वैश्विक खतरे का सामना कर रहा है. ऐसे में चीन जहाँ इन मुद्दों पर घिरता जा रहा है, भारत ठीक उन्हीं मुद्दों पर बेहतर परफॉर्म कर रहा है. ऐसी स्थिति में चीन की बौखलाहट समझ आती है. कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि पल में तोला, पल में माशा जैसी स्थिति से चीन दो-चार हो रहा है, ठीक किसी बच्चे की तरह जो कई बार किसी पसंदीदा-डिश के लिए ज़िद्द पकड़ लेता है और कभी रोने लगता है, कभी ज़िद्द करता है, कभी प्यार से मांगता है तो कभी रूठ जाता है. इसी कड़ी में, हमें यह मानने और समझने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि 1962 में चीन द्वारा सैन्य हार झेलने के बाद से भारत कभी बराबरी की हालत में चीन से बात नहीं कर सका. इसकी नीतियां आज तक भी चीन के सीधे खिलाफ कभी नहीं रहीं, लेकिन चीन बदलते समय को भांपने में जरूर चूक गया, अन्यथा वह भारत की कीमत पर पाकिस्तान के करीब जाने की आत्मघाती रणनीति क्यों अपनाता?
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ओसामा बिन लादेन से लेकर मुल्ला उमर और विश्व भर के खूंखार आतंकियों के गढ़ के रूप में कुख्यात पाकिस्तान से बिना शर्त करीबी बढ़ाना चीन का वह डर बयान करती है, जो वह भारत के प्रति मन में पाले बैठा है. बेशक वह पाकिस्तान की ओर 60% झुकाव रखता, लेकिन उसे भारत की ओर भी 40% झुकाव का आंकड़ा रखना चाहिए था, लेकिन उसने खुद संतुलन की राह को ठोकर मार दी और पाकिस्तान का 100% समर्थन करने पर तुल गया. ऐसे में अमेरिका भला कैसे चूकता और चीन के थिंक-टैंक को यह अध्ययन करना चाहिए कि पाकिस्तान से ऐतिहासिक करीबी रखने वाला अमेरिका उसको ठोकर मारकर भारत के पक्ष में क्यों खड़ा हुआ है! ऐसे में चीन को अपनी स्थिति मजबूत रखने के लिए भारत से घुलना मिलना था ताकि भारत उसका प्रतिद्वंदी बनने की बजाय, उसका करीबी दोस्त बन सकता, लेकिन चीन ने यहाँ अमेरिका की नीति सफल हो जाने दी और भारत से प्रतिद्वंदिता की न भरी जा सकने वाली 'खाई' बनाने में जुट गया. देहात में एक कहावत प्रचलित है कि 'जब बेटा बड़ा हो जाए, तो उसे दोस्त बना लेना चाहिए!' भारत, चीन से 20वीं सदी में कई मामलों में कमजोर रहा है, इस बात में संदेह नहीं, किन्तु आज अर्थ, सैन्य, वैश्विक कूटनीति हर जगह वह चीन की बराबरी में खड़ा है, यह बात चीनी नीति-निर्धारकों को पहले ही समझ लेना चाहिए था. रही बात पाकिस्तान पर चीनी दांव की तो, एक आंतरिक रूप से खोखला और आतंकवादी राष्ट्र, जो मुस्लिम राष्ट्रों अफ़ग़ानिस्तान और ईरान तक से करीबी नहीं रख सका तो भला वह चीन के किस काम आने वाला? आखिर, भारत को एनएसजी में शामिल करने के लिए चीन खुद ही अलग थलग पड़ गया कि नहीं? कहना उचित रहेगा कि भारत की बढ़ती ताकत और उसके अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व को भांपने में चीन ने बड़ी गलती की है और उसे इसका आभाष अब जाकर हुआ है, जब एनएसजी के तमाम देश चीन को 'भारत की खातिर' दरकिनार करने लगे हैं. शायद चीन के सरकारी अख़बार की भाषा उसी 'डैमेज कंट्रोल' की भाषा है.
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हालाँकि, चीन अपने रवैये में इतनी जल्दी बदलाव लाएगा, यह कहना कतई उचित नहीं होगा क्योंकि वह अपने कानों में सैन्य और आर्थिक ताकत की रूई ठूसे बैठा है. अन्यथा वह भारत पर लगाम लगाने की योजनाबद्ध रणनीति के तहत अपने आधुनिक हथियारों एवं विकसित नाभिकीय प्रौद्योगिकी की आपूर्ति पाकिस्तान को अनवरत क्यों करता? चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का मामला जगजाहिर है और पिछले 22 वर्षों में 14 बार इसे हल करने का प्रयास भी किया गया, लेकिन इस दिशा में अगर अभी भी कोई सार्थक नीति नहीं बन पायी है तो इसके लिए चीन का अड़ियल रूख ही जिम्मेदार है, ताकि वह समय-समय पर अपने सैनिकों की घुसपैठ कराकर भारत पर दबाव बनाता रहे! बताते चलें कि चीन ने पाकिस्तान, नेपाल, भूटान एवं म्यांमार से अपने सीमा विवाद समाप्त कर दिए हैं और रुस, कजाकिस्तान व वियतनाम से भूमि व विवादों को भी विराम दे चुका है, लेकिन भारत के साथ चीन का सीमा विवाद अभी भी बरकरार है और इसका मंतव्य भी बेहद स्पष्ट है. इसमें, चीन अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा होने का दावा करता है और सिक्किम को भारत का अभिन्न अंग मानने से इंकार करता रहा है, किन्तु देखा जाए तो भारत के साथ चीनी सीमा विवाद उसी वक्त समाप्त हो जाना चाहिए था, जब भारत ने चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़े को मान्यता दे दी थी. हालाँकि, कई विशेषज्ञ भारत के इस कदम को भारतीय हितों के खिलाफ बताते हैं, लेकिन चीन के लिए जरूर यह मौका था कि वह भारत के साथ दुश्मनी पर मरहम लगाता, किन्तु उसने जान बूझकर ज़ख्मों को कुरेदना जारी रखा है. इसका परिणाम कालांतर में यह हुआ है कि उसे पाकिस्तान की गोंद में बैठना पड़ा है या फिर यह कह लीजिए कि आतंकियों को अपनी गोंद में बिठाना पड़ा है.
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इसमें कोई दो राय नहीं है कि चीन इस समय एशियाई राष्ट्रों में सबसे आगे है और भारत के रूप में उसे अपना प्रबल प्रतिद्वंदी दिख रहा है. ऐसी स्थिति में उसे भारत के साथ दोस्ती करने की आवश्यकता थी, ताकि दक्षिण एशिया में अमेरिका को राजनीति करने का अवसर न मिलता और तब शायद चीन की 'बड़े भाई' वाली इमेज भी बरकरार रहती, किन्तु उसकी संकुचित व आत्मघाती नीतियों ने अमेरिका को भी चीन पर अंकुश लगाने का मजबूत बहाना और भारत के रूप में मजबूत साथी दे दिया. जाहिर है अमेरिका को एशिया में नए समीकरण की तलाश थी और उसके रणनीतिकारों ने भारत से सम्बन्ध बेहतर होते ही पाकिस्तान को ठोकर मारने में ज़रा भी देरी नहीं की. हालाँकि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन को भरोसा दिलाया है कि उसे भारत और अमेरिका के अच्छे संबंधों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है और भारत भी अपनी गुट-निरपेक्षता की नीति को लेकर सजग है. पर अगर चीन खुद ही दुश्मनी पर उतारू हो जाए और कभी दक्षिणी चीन सागर तो कभी हिन्द महासागर में अपना वर्चस्व दिखाने का एकपक्षीय प्रयत्न जारी रखे तो फिर भारत अमेरिका सम्बन्ध उत्तरोत्तर मजबूत होते जाएंगे और फिर अंततः विश्व द्विध्रुवीय राजनीति में फंस जायेगा! बेहतर होगा चीन बदलती परिस्थितियों का निष्पक्ष आंकलन करे और खुद भी 'गुट निरपेक्षता' की नीति का पालन करे. ऐसे में उसे पाकिस्तान को दिए जा रहे आधुनिक हथियार, पाकिस्तान में काराकोरम राजमार्ग का निर्माण कर अपनी सेना के लिए अरब सागर तक मार्ग बनाना, तिब्बत में चीन द्वारा सड़क, रेल और हवाई नेटवर्क व्यापक रूप से विकसित करने पर गति धीमी करनी होगी तो इसके साथ-साथ भारत को भी विश्वास में लेने की नयी कूटनीतिक पहल करनी होगी.
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ऐसे ही अरूणाचल सीमा के नजदीक रेल नेटवर्क बनाने की योजना भी उसे हमेशा के लिए स्थगित करनी होगी. वर्तमान भारतीय नेतृत्व नरेंद्र मोदी के तेजस्वी चेहरे के साथ अमेरिका से जुड़कर एक व्यापक और बेहतर आर्थिक संबंध को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक जरूर है, लेकिन वह 'बंदरों की लड़ाई में बिल्ली द्वारा फायदा उठाने' की कहानी भी जानता है. अगर ऐसा नहीं होता तो भारत संयुक्त राष्ट्र द्वारा दक्षिण चीन सागर गश्त में शामिल होने के निमंत्रण को ठुकराता नहीं! जाहिर है, गेंद अब चीन के पाले में है कि वह दक्षिण एशिया और वैश्विक राजनीति में भारत के साथ कदम मिलाना चाहता है अथवा उसे पाकिस्तान जैसे असुरक्षित परमाणु राष्ट्र और उसके आतंकवादी ही ज्यादा पसंद हैं. भारत का हाल-फिलहाल इरादा अपने मूल सिद्धांतों, स्वतंत्रता एवं गुट निरपेक्षता से दूर जाने का नहीं है, बाकी की जिम्मेदारी तो चीन पर भी बनती है. आखिर वह एशिया में 'बड़ा भाई' जो है, इसलिए उसे बेहद सटीकता से अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हो रही होगी और अगर नहीं हो रही है तो अब अनिवार्य रूप से होनी चाहिए!
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