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सपा राजद की एक कहानी, विभीषण की अनदेखी और राजनीतिक नादानी

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इस लेख के शीर्षक से ही आप अनुमान लगा चुके होंगे कि इस लेख की आगे की पंक्तियों में क्या लिखा जाने वाला है!

इस बात को लोग-बाग नकार भी सकते हैं और अपनी सुविधा अनुसार इसमें संशोधन भी कर सकते हैं, पर एक नजरिए से मैं देखता हूं तो यूपी-बिहार इन दो राज्यों में यादव वंश का पिछले कई दशक से राजनीतिक वर्चस्व रहा है.

उत्तर प्रदेश में जहां मुलायम सिंह यादव राजनीति की प्रमुख धुरी बने हुए थे, वहीं बिहार में भी लालू प्रसाद यादव के बारे में यूं ही नहीं कहा जाता रहा है कि जब तक समोसे में आलू है तब तक बिहार में लालू है.

ऐसा भी नहीं रहा है कि इन घरानों को इनके राज्यों में चुनौतियां ही ना मिली हों, किंतु बावजूद इसके इन की तूती बोलती रही है. अगर कभी यह सत्ता में नहीं भी रहे तो विपक्ष के प्रमुख दल के रूप में इनकी पहचान ज़रूर सुरक्षित रही है. पर अब हालात दूसरे हैं और इसके पीछे एक बड़ा प्रमुख कारण यह है कि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल दोनों ही में पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को सत्ता हस्तांतरण हो रहा है.

जाहिर तौर पर इस प्रक्रिया में दिक्कतें आनी स्वाभाविक ही हैं. मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव दोनों ही के उत्तराधिकारी अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव इन दोनों के समान राजनीतिक रूप से चतुर नहीं दिखे हैं और इनकी राजनीतिक नादानी साफ तौर पर झलक रही है.

Akhilesh Yadav, Tejasvi Yadav


मुलायम सिंह यादव जहां एक तरफ तमाम विवादों और मतभेदों के बावजूद अपने कुनबे को एकजुट किए रहे वहीं अखिलेश इसके प्रति बेपरवाह से दिखे हैं. शिवपाल यादव की अनदेखी उन्हें कितनी भारी पड़ी है, यह 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें तब दिख गया होगा जब फिरोजाबाद सीट से खुद शिवपाल यादव ने महागठबंधन के तकरीबन 90000 वोट काट दिए और रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव मात्र 24991 वोटों से हार गए. जाहिर तौर पर यह शिवपाल यादव का वर्तमान सपा मुखिया और पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव को रिटर्न गिफ्ट था जो उन्होंने कुछ दिनों पहले शिवपाल यादव को पार्टी से दरकिनार करके दिया था. फिरोजाबाद ही नहीं, बल्कि आसपास की कई सीटों पर शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी को ख़ासा नुकसान पहुंचाया और यादव-लैंड जहां मुलायम सिंह का परिवार अजेय समझा जाता था, वहां डिंपल यादव और धर्मेंद्र यादव तक को भी हार का मुंह देखना पड़ा. ऐसे में अगर आप शिवपाल यादव को विभीषण की संज्ञा नहीं देंगे तो क्या देंगे?

वह भी विभीषण की ही तरह अंतिम समय तक अखिलेश यादव को समझाते रहे, अपना हक मांगते रहे किंतु अखिलेश ने उनके प्रति एक नकारात्मक सोच अपने मन मस्तिष्क में भर ली थी और उसका नतीजा अब सबके सामने है.

काश कि उनको पता होता कि राजनीति में इस प्रकार की सोच अवांछित होती है, तो वह ऐसा करने की संभवतः नहीं सोचते.

मोदी लहर एक दिगर बात है किंतु अगर मुलायम सिंह यादव की तरह कुनबे को समेटने की कला अखिलेश यादव में होती तो संभवतः समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी से भी 5 सीटें कम नहीं पाती. बेशक अखिलेश यादव के साथ प्रोफ़ेसर रामगोपाल जैसे नेता रहे हों लेकिन जमीनी सीटों पर क्या गुणा गणित होता है यह शिवपाल यादव से बेहतर वह नहीं समझ सकते और इसी कारण अखिलेश मायावती से सीटों के तोलमोल में भी मात खा गए. इसे आप उनकी राजनीतिक नादानी मान सकते हैं या फिर इसे कुछ और नाम दे दीजिए.


बिहार में भी तेजस्वी यादव को लेकर पार्टी में बगावत के सुर उभरे हैं. कांग्रेस के तारीक अनवर जो बेहद कम वोट से चुनाव हारे हैं उन्होंने भी राजनीतिक बचपने पर कटाक्ष किया है. तेजस्वी यादव अपने पिता की विरासत औपचारिक रूप से बेशक संभाल चुके हैं लेकिन अपने पिता की तरह राजनीतिक समझ उन्हें कितनी है यह अब रहस्य नहीं रहा है.

राजनीतिक चपलता में तेजस्वी का बड़ा भाई तेजप्रताप ज्यादा सफल दिखा और यह तब दिखा जब चुनावी हार के बाद वह तेजस्वी के जख्म पर मरहम लगाते दिखा. मीडिया में तेज प्रताप को लालू की ही भांति कवरेज मिलती है और वह अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी छोड़ने को तैयार नहीं है. ठीक भी है, कोई भला क्यों अपना राजनीतिक हक छोड़े? अंदर की बातें क्या है वह तो तेजस्वी ही जानें, लेकिन अपने भाई को चुनाव के दौरान ना मनाना उन पर भारी पड़ा और जहानाबाद और शिवहर में वह पार्टी के खिलाफ अपने कैंडीडेट्स का प्रचार करते नजर आए. इसका राजद कार्यकर्ताओं के ऊपर क्या असर पड़ा यह कोई छिपी बात नहीं है. राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने तो तेज प्रताप पर राजद की बैठक में कार्रवाई तक की मांग कर डाली.

वैसे भी तेज प्रताप के प्रति बिहार की भाजपा इकाई और नीतीश की पार्टी नरम रुख अख्तियार किए रही. जाहिर तौर पर आप इसे भी विभीषण का एक रूप नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? उधर मधेपुरा क्षेत्र में पप्पू यादव अलग ही खम ठोकते नजर आए और तकरीबन 100000 वोट काट कर दिग्गज नेता शरद यादव की जीत में सेंधमारी कर दी. 

हालांकि यहां जदयू प्रत्याशी की जीत का अंतर ज्यादा रहा लेकिन आप यह देखिए कि जब दो मजबूत प्रत्याशी आपस में एक दूसरे के वोट काट रहे होते हैं तो मतदाता उनमें से किसी एक को वोट देकर अपना वोट खराब नहीं करना चाहता है. ऐसे में एक हवा ही चल जाती है.


और भी तमाम सीटों का क्रमवार आकलन करेंगे तो पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी के बीच सत्ता हस्तांतरण के बीच उभर रही कई कमजोरियां नजर आ जाएंगी और आप समझ जाएंगे कि नरेंद्र मोदी और भाजपा की जबरदस्त लहर होने के बावजूद इतनी बुरी स्थिति के लिए यूपी-बिहार के दोनों जाने-माने कुनबे इस बुरी गति को क्यों प्राप्त हुए हैं?

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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Mulayam Singh Yadav, Laloo Prasad Yadav


Web Title: Samajwadi Party, Rashtriya Janta Dal Story after 2019, Laloo Prasad Yadav Story, Mulayam Singh yadav, Akhilesh Yadav, Tejasvi Yadav




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