कभी-कभी यह बात उलझाऊ और दुखी करने वाली लगती है कि हम राष्ट्रीय सम्मान के विषय को भी बेहद हल्के तरीके से लेते हैं. जब मन भारी हुआ तो बाएं चल पड़े, जब मन हल्का हुआ तो दाहिने चल पड़े. आखिर बात वहीं आकर अँटक गयी है, जहाँ उसे सबसे बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता है. एक तरफ भारत में क्रिकेट को धर्म का दर्जा हासिल है तो यह बात भी उतनी ही सच है कि तमाम क्रिकेटप्रेमियों को जितना रोमांच भारत-पाकिस्तान के मैच से होता है, उतना शायद वर्ल्ड कप जैसे आयोजनों से भी न होता होगा! आखिर, इसे बिडम्बना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि दोनों देशों की सरकारें कभी हाँ, कभी ना के अंदाज में आपसी क्रिकेट-सम्बन्ध को सुविधानुसार भुनाती रही हैं. कभी द्विपक्षीय श्रृंखला शुरू कर दिया और जब कोई आतंकवादी घटना हुई, और होती ही है, तब सबसे पहली गाज क्रिकेट पर ही गिरती है. पिछले दिनों जब पीसीबी के चेयरमैन शहरयार खान भारत आये थे तब उनकी बीसीसीआई प्रमुख शशांक मनोहर से होने वाली मुलाकात को लेकर भारी विरोध हुआ. यहाँ तक कि शिवसैनिक नारेबाजी करते हुए क्रिकेट बोर्ड के मुंबई ऑफिस में घुस गए थे. अब तमाम जद्दोजहद के बाद दोनों देश के क्रिकेट बोर्ड आपसी सीरीज पर सहमत हो गए हैं तो गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में आ गयी है. बीसीसीआई के राजीव शुक्ला ने बयान दिया है कि बोर्ड को भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट रिश्ते दोबारा बहाल करने के लिए सरकार के जवाब का इंतजार है. गौरतलब है कि पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड को अगले महीने श्रीलंका में होने वाली संभावित श्रृंखला के लिए शायद अपनी सरकार से स्वीकृति मिल गई है जबकि भारत को अब भी सरकार की स्वीकृति का इंतजार है.
शुक्ला ने अपने बयान में यह भी कहा कि ‘‘खेल को राजनीति और राजनयिक विवादों में नहीं घसीटा जाना चाहिए. अब सवाल यह है कि क्या राजीव शुक्ला जैसे लोग इस बात से अनजान हैं कि किन हालातों में दोनों देशों के क्रिकेट सम्बन्ध प्रभावित हैं? कांग्रेस पार्टी में विस्तृत सम्बन्ध रखने वाले शुक्ला क्या यह नहीं जानते हैं कि मुंबई में 26 /11 के हमले के बाद किस मजबूरी में यूपीए सरकार ने यह फैसला किया था? जाहिर है, कई किन्तु और परन्तुओं के बावजूद देश और क्रिकेट को अलग नहीं किया जा सकता है. बात सिर्फ राजनीति और राजनयिक संबंधों की ही रहती तो फिर भी सोचा जा सकता था, किन्तु जब देश की बात आती है तब निर्णय हमेशा निश्चित होना चाहिए. और बात जब भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार की आती है तब यह बात और गंभीर हो जाती है, क्योंकि इनकी राजनीति में 'पाकिस्तान की आतंकी नीतियों का हर स्तर पर विरोध' एक महत्वपूर्ण चुनावी वादा होता है. अगर यह सरकार पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने का फैसला कर भी लेती है और अगर अगले ही दिन उनके आतंकी अपनी करतूतें दिखा देते हैं तो फिर बैक-स्टेप लेने को मजबूर होना ही पड़ेगा. इसके अलावा, सेना के जवान जो सीमा पर शहीद हो रहे हैं, उनकी अनदेखी किसी स्थिति में उचित नहीं है. इसलिए, बेहतर यही होगा कि जब तक सीमा पर अपनी हरकतों से पाकिस्तान बाज नहीं आता है, तब तक इस देश के साथ किसी तरह के संबंधों में आँख-मिचौली न खेल जाय. हालाँकि, यह मामला ऊपर से जितना सीधा दिखता है, उतना भीतर से है नहीं, क्योंकि आईसीसी के नियम कायदे कहीं न कहीं भारतीय क्रिकेट बोर्ड के इर्द-गिर्द ही घुमते हैं और जब वह खुद ही इन नियमों का पालन नहीं करेगी तो क्रिकेट के राजस्व मॉडल को गंभीर नुक्सान उठाना पड़ सकता है. आखिर, कौन नहीं जानता है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट-बोर्ड है और अगर क्रिकेट को क्षति पहुँचती है तो बीसीसीआई और उससे जुड़े तमाम स्पॉन्सर भी इसके लपेटे में आएंगे ही. प्राइवेट स्पोंसर्स के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच किसी तरह का मैच सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह होता है तो खुद आर्थिक तंगी से जूझ रहे पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के लिए भी इस तरह के प्रयास संजीवनी साबित हो सकते हैं.
अब तक अन्य खेलों की तरह क्रिकेट बोर्ड सरकार के खेल-मंत्रालय के अधीन कभी नहीं रही, इसलिए उसका पूरा सिस्टम अलग है. हाँ! जब बात भारत-पाकिस्तान में क्रिकेट होने की बात आती है तो निश्चित रूप से इस संस्था को सरकार की मंजूरी की राह देखनी ही होती है. वैसे, यह समूचा विवाद सामने आया है तो निश्चित रूप से अंदरखाने इसमें सरकार की सहमति भी ली गयी होगी और अब तक के प्रयासों से यही लगता है कि कॉर्पोरेट सेक्टर और बीसीसीआई के राजस्व मॉडल के आगे सरकार कुछ किन्तु-परन्तु के साथ इस सीरीज के लिए मंजूरी दे देगी और अगर ऐसा होता है तो यह न केवल क्रिकेट के साथ, बल्कि देश के साथ भी मजाक ही होगा, क्योंकि मंजूरी के कुछ ही दिनों बाद हम सुनेंगे कि पाकिस्तान की आतंकी करतूतों के कारण सरकार ने क्रिकेट संबंधों को रोकने का निर्णय कर लिया है. हालाँकि, इस बीच पाकिस्तानी पीएम का एक बयान सामने आ रहा है, जिसमें वह भारत से बिना शर्त बातचीत करने की बात कह रहे हैं, किन्तु पाकिस्तानी पीएम की इस देश में कितनी अहमियत है, इसकी व्याख्या कितनी बार भी कर ली जाय, अर्थ यही निकलेगा कि वहां अंततः चुनी हुई सरकार की कुछ नहीं चलती है. देखना दिलचस्प होगा कि क्रिकेट, देशभक्ति, राजस्व और पाकिस्तान जैसे उलझे हुई समीकरणों से निपटने के लिए केंद्र सरकार कौन सा नुस्खा लाती है. इस नुस्खे से न केवल क्रिकेट, बल्कि भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत का भी कोई सिग्नल भी मिल जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
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2 टिप्पणियाँ
सामयिक विषय पर एक उम्दा आलेख!
जवाब देंहटाएंThank you Pankaj ji... welcome :)
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