बार-बार हम आतंक का शिकार होते हैं और बार-बार यह प्रश्न उठने के साथ ही दब सा जाता है कि आतंक के खिलाफ हम वाकई कितने गंभीर हैं? यह प्रश्न सर्वाधिक सरकार से ही पूछा जाता है और पूछा जाना भी चाहिए, लेकिन क्या वाकई अकेले सरकार सक्षम है आतंक से निपटने में? या फिर जनता को भी प्रत्येक स्तर पर इसके लिए गंभीर होना चाहिए या गंभीर किया जाना चाहिए? इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही दुनिया भर में आतंक और आतंकी हमलों की एक श्रृंखला सी शुरू हो गयी है. अभी हाल ही में फ़्रांस पर इस्लामिक स्टेट का हमला हुआ ही था कि अमेरिका में गोलीबारी की घटना ने लोगों का दिल दहला दिया है. 4 दिसंबर को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि कैलिफोर्निया में हुई गोलीबारी की घटना का आतंकवाद से संबंध होना संभव है और इसके ठीक एक दिन बाद 5 दिसंबर को इस्लामिक स्टेट के समर्थकों ने कई ट्वीट किए और दावा किया कि हमले में इस आतंकवादी समूह का हाथ है. एक रिपोर्ट में इन्वेस्टिगेटिव प्रोजेक्ट ऑन टेररिज्म (आईपीटी) ने कहा कि मध्यम स्तर का आईएस का एक कमांडर जो अपने को जजरावी-दाएश बताता है उसने ट्वीट किया कि पाकिस्तानी मूल के दंपति, जिन्होंने हमला किया वो आईएस के विशेष एजेंट थे और उन्होंने मुस्लिमों पर अमेरिका की कथित बमबारी के जवाब में निर्दोष लोगों की हत्या की. अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई के निदेशक जेम्स कोमे ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में साफ़ कहा कि यह हमला अब आतंकवाद की एक संघीय जांच है, क्योंकि जांच ने अब तक हमलावरों के कट्टरपंथी होने और उनके विदेशी आतंकवादी संगठनों से संभवत: प्रेरित होने की ओर संकेत दिए हैं.
जाहिर है, अपने ऊपर सीरिया में हमले होते देख इस्लामिक स्टेट ने अपने घोड़े खोल दिए हैं. इसी कड़ी में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र करते हुए आईएस ने जो जिहाद छेड़ने की अपील की, वह निहायत घातक है. सीधे हमलों से ज्यादा यह इस लिहाज में खतरनाक है कि देश में चरमपंथी इन अपीलों से युवाओं को बरगलाने की कोई कोशिश नहीं छोड़ने वाले! ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि उन सकारात्मक मुस्लिम गुटों को बढ़ावा दिया जाता, जो इस आतंकी संगठन का खुलकर विरोध करते हैं. अभी हाल ही में देश के तमाम मुफ्तियों ने मिलकर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एक फतवा जारी किया था! ऐसी स्थिति में बेहतर यही रहता कि मस्जिदों, मदरसों तक में आतंकवाद के खिलाफ शिक्षा दी जाय. जरूरत पड़ने पर मदरसे में तालीम देने वालों और मुफ्तियों को केंद्रीय स्तर पर ट्रेनिंग भी दी जाय. इस्लामिक स्टेट को नेस्तनाबूत करने में बड़े और ताकतवर देशों में जो आपसी कन्फ्यूजन या उलझनें सामने आयी हैं, उससे इस संगठन के खिलाफ लड़ाई लम्बी होती जा रही है. हालाँकि, ब्रिटेन की संसद के बाद अब जर्मनी भी आईएस के खिलाफ हमले में भाग लेने को तैयार हो गया है. अमरीका, रूस और फ्रांस पहले से ही आईएस पर हमले कर रहे हैं. इन हमलों से यह संगठन निश्चित रूप से बौखलाया हुआ है और हथियार इस्तेमाल करने वाले अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की कोशिश में लग गए हैं. इसी क्रम में दिल्ली को लेकर जो खुलासे हो रहे हैं, उसने हमारी सुरक्षा एजेंसियों के कान खड़े कर दिए हैं. आईएसआई एजेंटों की गिरफ्तारी के बाद दिल्ली पुलिस ने आतंकी हमले की साजिश का भी खुलासा किया है, जिसमें दावा किया गया है कि लश्कर के आतंकी दिल्ली में प्रमुख जगहों और प्रमुख लोगों को निशाना बनाने की साजिश रच रहे थे.
इस जानकारी के मुताबिक लश्कर के दो आतंकी पीओके के रास्ते भारत में दाखिल हो चुके हैं और ये दोनों आतंकी दिल्ली में फिदायीन हमले की साजिश कर रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात जो खुलकर सामने आयी है, उसमें दिल्ली पुलिस द्वारा इस खतरे से इनकार नहीं किया जाना है कि इस साजिश में आईएसआईएस के खूंखार आतंकी भी शामिल हैं. वैसे भी, पहले इस तरह के सबूत मिल चुके हैं कि आईएस, कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों के संपर्क में है. अब सवाल यह है कि पहले तमाम आतंकी हमले झेल चुका हमारा देश इनसे निपटने के लिए क्या ख़ास कर रहा है? जम्मू कश्मीर में आईएसआईएस के झंडे लहराए जाने की घटनाओं के बारे में पूछे जाने पर कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा था कि वे छिटपुट घटनाएं थीं और उनका प्रसार पूरे राज्य या देश में नहीं था. समझा जा सकता है कि एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री आतंकी खतरों के प्रति कितने सजग हैं? उन्होंने तब यह भी कहा था कि आईएसआईएस का दुष्प्रचार करने की कुछ वेब पोर्टल की भूमिका निगरानी में है, लेकिन यह गौर करना जरूरी है कि वेब पोर्टल के सर्वर भारत में स्थित नहीं हैं. देखा जाय तो केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के दोनों बयान गैर-जिम्मेदाराना है और मनोवैज्ञानिक इस बयान का विश्लेषण करके बता सकते हैं कि इसमें कितनी बेपरवाही छिपी हुई है. देश के गृह राज्यमंत्री अपने मंत्रालय के ही आंकड़ों पर गौर करें तो उन्हें पता चल जायेगा कि यह खतरा इतना कम या छिटपुट भी नहीं है. इस्लामिक स्टेट के हिमायती भारत में कम नहीं हैं, और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है. क्या सरकार इस आतंरिक प्रभाव को रोकने के लिए प्रभावी उपाय कर रही है? इस्लामिक स्टेट के लिए जंग में शामिल होकर हाल ही में जिंदा लौटा भारतीय युवक आरिब मजीद इन भटके हुए लोगों में से एक है, तो आरिब के साथ फहाद, अमन तांडेल और शाहीन टंकी भी इराक गए थे.
एजेंसियों की मानें तो भारत से इराक में इस्लामिक संगठन की तरफ से जंग लड़ने गए युवकों में महाराष्ट्र से 4, कर्नाटक से 5,आंध्रप्रदेश से 4, केरल से 4, तमिलनाडु से 3 और जम्मू - कश्मीर से 1 भारतीय युवक शामिल हैं, 20 से ज्यादा! आधिकारिक रूप से यह युवक इस्लामिक स्टेट से खुद को जोड़ चुके हैं, तो कितनों के 'अरमानों' को सोशल मीडिया और वेबसाइट के जरिये इस्लामिक स्टेट बरगला रहा है, इसका आंकड़ा तो शायद पता ही न चल सके! सवाल यह भी है कि इन खतरों से निपटने के लिए किस स्तर पर तैयारियां की जा रही हैं, कितनी मॉक-ड्रिल हो रही हैं तो ऐसी किसी इमरजेंसी के लिए हमारे पास कितनी पुलिस या स्पेशल टीम तुरंत एक्शन में आ सकती हैं? इसके साथ हमने पड़ोसी देशों को आतंक के विरोध पर राजी करने को लेकर क्या रणनीति अपनाई है कि पाकिस्तान से प्रायोजित आतंकवाद बंद किया जा सके या फिर कम से कम दबाव तो पड़ सके. इसके अतिरिक्त, जो बात सबसे बड़ी है वह है जनता में जागरूकता! जिस तरह से तमाम स्लीपर-सेल आतंकी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, उसमें वगैर जनता का सहयोग लिए, और वगैर उनको जागरूक किये सरकार आतंकी घटनाओं से पूरी तरह निपटने में सक्षम नहीं हो सकती! सवाल वही है कि एक-एक नागरिक को सजग रहने की प्रेरणा दिए वगैर, उनको जागरूक किये वगैर आतंकी घटनाओं से हम पूरी तरह सुरक्षित हो सकते हैं क्या? बदलते दौर में जब इंटरनेट के प्रसार ने तमाम राष्ट्रीय सीमाओं को धत्ता बता दिया है और हर एक नागरिक, अपने आप में एक इकाई बन चुका है तो फिर सरकारों को उनसे तालमेल करने का अभियान छेड़ना ही पड़ेगा!
यह सारा अभियान, उनके उन प्रयासों के अतिरिक्त होना चाहिए, जिसमें कमांडोज की तैयारी, आधुनिक हथियार से साज-सज्जा, ख़ुफ़िया नेटवर्क की दक्षता शामिल होते हैं! एक और सबसे जरूरी तथ्य यह है कि जनता को भी अपने आस-पड़ोस, यहाँ तक कि घर के सदस्यों की संदिग्ध गतिविधियों पर नज़र रखनी होगी! अमेरिका का ही उदाहरण ले लीजिये. अमरीका में सैन बर्नारडिनो के हमलावरों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों का कहना है कि हमलावरों का परिवार ‘पूरी तरह सदमे’ में है तो इस परिवार को इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं था कि आतंकी सैयद रिज़वान फ़ारूक़ और उनकी पत्नी तशफ़ीन मलिक ऐसा कोई हमला कर सकते हैं! सवाल वही है कि हम कितने सजग हैं? और सरकार हमें सजग रखने के लिए किस स्तर पर तैयारी कर रही है? केंद्र की मोदी सरकार, जो माय जीओवी डॉट इन जैसे प्रयासों से तमाम सरकारी योजनाओं में आम जनमानस की भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं, क्या आतंक के खिलाफ भी ऐसा कोई प्रयास शुरू कर सकते हैं? क्या तमाम राजनितिक दल और सरकारी इकाइयों के बीच कोई तालमेल हो सकता है, जिससे आतंकियों और उनकी संभावित वारदातों की शिनाख्त संभव हो सके? शुरुआत में, इस तरह के प्रयास थोड़े अटपटे लग सकते हैं, किन्तु मुश्किल यह है कि खतरे इतने उलझाऊ हो चले हैं कि आपको उनसे सामना करने के लिए बड़े प्रयास करने ही होंगे! वह खतरा चाहे प्रदूषण का हो, जिसमें दिल्ली सरकार ने सम और विषम नंबर प्लेट का कांसेप्ट दिया है या फिर आतंक से निपटने का हो, जिसमें सरकार को सटीक और प्रभावी फैसलों की आवश्यकता जान पड़ती है! वगैर, इसके खतरा मंडराता रहेगा, सर पर भी और आस-पास भी .... !!
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