तब हममें से कई लोग उस अन्ना आंदोलन के समर्थक थे, जिसका टैगलाइन बना था 'जनलोकपाल'! आज जब सोचता हूँ तब यह लगता है कि तब के समय में कांग्रेसी शासन अत्यधिक अहंकारी और निरंकुश होने के साथ-साथ भ्रष्टाचार का वट-वृक्ष बन गया था और लोकपाल का योगदान इतना तो है ही कि इसने जनता को अपनी ताकत याद दिलाई तो राजनीतिक दलों को उनकी 'औकात'! हालाँकि, जब चर्चा लोकपाल की हो रही है, तब काफी कुछ सोचने के बाद भी यह तकनीकी और प्रशासनिक मुद्दे से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा ही लग रहा है, जिसकी जरूरत सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं को, सुविधानुसार इसे उठाने और दबाने की सहूलियत भर है. हमारे देश में कुछेक बड़े आंदोलन, जो अंततः मजाक बन कर रह गए, उनमें जनलोकपाल के लिए किये गए आंदोलन का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है, जिसने लम्बी दूरी की मिसाइल बनने के बजाय 'सत्ता परिवर्तन' के लक्ष्य तक ही सीमित रह गया. और सबसे बड़ी बिडम्बना यह कि जो लोग 'जनलोकपाल' का झंडा लेकर सबसे आगे चल रहे थे, वह कुत्ते-बिल्ली की तरह सड़कों पर लड़े और जंगल के कानून की तरह, जो जीत गया, वह शासक बन गया! अब हालिया दिनों में इस आंदोलन रुपी काठ की हांडी को फिर से आग पर चढाने की कोशिश की जा रही है और बिडंबना देखिये कि यह फिर से अच्छी खासी चर्चित भी हो चुकी है! जब जनलोकपाल के लिए अन्ना का आंदोलन शुरू हुआ तबसे अरविन्द केजरीवाल दो-दो बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, मगर उन्हें इसकी याद अपनी सुविधानुसार ही आती है.
इस कड़ी में हमें समझना होगा कि, जनलोकपाल शब्द के साथ जो भद्दा मजाक हुआ है और हो रहा है, उसने निश्चित रूप से आन्दोलनों की गरिमा को कलंकित ही किया है. अगर हम आज यह चर्चा करें कि लोकपाल अच्छा है, बुरा है, ये प्रावधान उसमें खराब हैं, ये अच्छे हैं ... बला, बला तो यह हमारी समझ पर प्रश्नचिन्ह ही खड़ा करेगा! हाँ! चर्चा का विषय यह अवश्य है कि जनलोकपाल का मुद्दा इस समय क्यों? जरा हालिया घटनाक्रमों पर गौर कीजिये. सहिष्णुता-इनटॉलरेंस जैसे मुद्दों पर होहल्ला मचने के बाद अब इसका स्वर मद्धम पड़ने लगा है तो मौके की नज़ाकत को समझते हुए अरविन्द केजरीवाल ने विधानसभा से विपक्षी भाजपाइयों, जिनकी संख्या तीन ही है मार्शल से निकलवा बाहर किया और लोकपाल, जिसका नाम रखा गया है दिल्ली जन लोकपाल विधेयक, 2015 उसे आनन-फानन में पारित करा लिया गया. इसी दरमियाँ केजरीवाल के बिछड़े साथी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव शोर मचाते हैं कि केजरीवाल का लोकपाल दरअसल 'महाजोकपाल' है और 2011 के अन्ना आंदोलन के समय जिस लोकपाल का वादा केजरीवाल ने किया था, वह लोकपाल बिल नहीं है. यही नहीं, प्रशांत भूषण ने बेहद खूबसूरती से यह बात भी रखी कि केजरीवाल ने जानबूझकर ऐसे प्रावधान किये हैं, जिससे लोकपाल राजनीतिक शिकंजे में होगा, शिकायतकर्ता ही डरेगा और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें केंद्रीय मंत्रियों पर भी इसके लागू होने की बात कही गयी है, जो सिर्फ केंद्र सरकार से टकराव की भूमिका तैयार करेगी. कुल मिलकर भूषण ने यह साफ़ कहा कि केजरीवाल यही चाहते हैं कि यह बिल पास न हो! अब इसके बाद की अपडेट और दिलचस्प है जब आम आदमी पार्टी के बड़े नेता संजय सिंह और कुमार विश्वास रालेगण सिद्धि पहुंचकर अन्ना हज़ारे को इस नए लोकपाल से जोड़ने की कोशिश करते हैं. अन्ना हज़ारे कुछ सुधारों की बात करते हैं और केंद्र को आंदोलन के लिए चेताते हैं. अरविन्द की पार्टी अन्ना के सुधारों पर हामी भरती है और केंद्र सरकार के खिलाफ खम ठोकती है. जाहिर है, तमाम मुद्दों पर सर पीटने के बाद, केंद्र सरकार से अरविन्द केजरीवाल को अभी कुछ ख़ास भाव नहीं मिला है और टकराव में उस्ताद केजरीवाल इस मुद्दे को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का मौका कतई छोड़ना नहीं चाहेंगे!
अब इस पूरे क्रियाकलाप को देखें तो साफ़ है कि यह सारी उहापोह सिर्फ और सिर्फ शोर मचाने के लिए की जा रही है. लोकपाल के मामले में वैसे भी शुरुआत से ही राजनीतिक तंत्र असहमत रहा है, जबकि प्रशासनिक तंत्र और सामाजिक संगठनों ने भी इसके तकनीकी पहलुओं को लेकर कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है. यह अलग बात है कि तत्कालीन कांग्रेसी केंद्र सरकार के एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने इस आंदोलन में हवा भरी और विरोधी खेमों को जनता का अपार समर्थन मिला, जिसने दिल्ली और नई दिल्ली दोनों में 'जनलोकपालों' को सत्ता में बिठा दिया! हालाँकि, जनलोकपाल नाम का सफर जहाँ से शुरू हुआ था, आज भी वहीं का वहीं है और सच में देखा जाय तो 'गरीबी हटाओ', 'पूर्ण स्वराज्य' जैसे नारों की अगली कड़ी भर बन कर रह गया है. कानूनों के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी सर्वथा उपयुक्त है कि कानूनों को समाप्त किया जाना चाहिए, क्योंकि जितने ज्यादा कानून होंगे, उतनी ही उलझन और लालफीताशाही पनपेगी. केजरीवाल को यह समझना होगा कि लोकपाल जैसे मुद्दों पर राजनीति करके वह कुछ दिन तो टालमटोल कर लेंगे, किन्तु अंततः चुनावी कूड़ेदान में चले जायेंगे. इसलिए, जितनी रिसोर्सेस हैं, उसको एफिशिएंट करना और निगरानी रखना ही अच्छे प्रशासन के लक्षण हैं, न कि लोकपाल या जोकपाल बनाकर अर्थव्यवस्था पर जबरदस्ती का बोझ बढ़ाना! उम्मीद की जानी चाहिए कि परिपक्व होते लोकतंत्र में कानून बढ़ने के बजाय निगरानी तंत्र को बढ़ाया जाय और भ्रष्टाचार से निपटने की जिम्मेवारी खुद पार्टी के सुप्रीमों ही उठाएं. आखिर, कांग्रेस में सोनिया, भाजपा में मोदी और आम आदमी पार्टी में केजरीवाल से बड़ा लोकपाल कौन हो सकता है? अगर ये अपनी पार्टी को ही सुधार लें तो न तो तामझाम बढ़ेगा और न ही बढ़ेगा भ्रष्टाचार !!!
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