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में यूं तो कांग्रेस बहुत पहले से कमजोर हालत में थी, किन्तु लोकसभा के
हालिया हार के बाद तो उसकी स्थिति वेंटिलेटर पर आने जैसी हो गयी थी. बिहार
विधानसभा में जरूर उसे कुछेक सीटों पर सफलता मिली, किन्तु पिछलग्गू होने की
मुहर उस पर लगी ही रही. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव उसके लिए करो या
मरो की स्थिति इसलिए बन गए हैं, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां उसके अस्तित्व
के लिए बड़ा संकट साबित हुई हैं. अगर उत्तर प्रदेश में भी वह कुछ नहीं कर
पाती है तो उसके लिए फिर राष्ट्रीय राजनीति में वापसी कर पाना असंभव सा हो
जाता. शायद इसीलिए वह अबकी बार सब कुछ झोंक देना चाहती है. इसीलिए, उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर कांग्रेस पार्टी में बड़ी सुगबुगाहट है और यह सुगबुगाहट इसलिए भी बढ़ गयी है क्योंकि राजनीतिक परिदृश्य में चुनावी जीत की
गारंटी बन चुके प्रशांत किशोर अपनी पॉलिटिकल कंसल्टेंसी इस पुरानी पार्टी
को देने पर राजी हो गए हैं. अभी विधानसभा चुनाव में एक साल शेष है, किन्तु
प्रशांत किशोर ने अपने चिर-परिचित अंदाज में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की
बैठकें लेनी शुरू कर दी हैं. बीच-बीच में कांग्रेसी खेमे से मुख्यमंत्री के
दावेदारों की भी बातें सामने आ रही हैं, जिसमें कभी प्रियंका गांधी का नाम
तो कभी शीला दीक्षित का नाम उछाला जा रहा है. हालाँकि, यह सारे आंकलन अभी
अँटकलों तक ही सीमित हैं. आगे क्या होगा, क्या नहीं होगा, इस बाबत किसी
प्रकार की टिप्पणी जल्दबाजी होगी, किन्तु प्रशांत किशोर ने कांग्रेस पार्टी
को मुख्यधारा में चर्चित तो कर ही दिया है.
प्रदेश कांग्रेस को मिशन-2017
के लिए तैयार करने पहुंचे चुनाव प्रबंधन विशेषज्ञ प्रशांत किशोर ने प्रदेश
के पार्टी मुख्यालय में जिला व शहर अध्यक्षों के साथ प्रमुख पदाधिकारियों
की क्लास ली है तो प्रत्येक विधानसभा सीट पर ऐसे 20 पूर्णकालिक कार्यकर्ता
तैयार करने को भी कहा है जो टिकट न मांगें और चुनाव तक केवल कांग्रेस के
लिए कार्य करें, जिनका खर्च पार्टी वहन करेगी. जाहिर तौर पर राजनीति के
बेसिक नियमों को प्रशांत किशोर बखूबी समझते हैं और वह जानते हैं कि टिकटों
की मारामारी में ही पार्टियों की दुर्गति होती है. इसी कड़ी में, जिला और शहर अध्यक्षों को 18 बिंदुओं वाला एक डॉक्यूमेंट भी सौंपा गया, जिसे 31 मार्च तक भरकर भेजने के निर्देश दिए गए जिसमें स्थानीय जनसमस्या, जीत हासिल करने के लिए तरीकों जैसे सुझाव प्रशांत किशोर ने मांगे है. अपने 12 मिनट
के संबोधन में 'पीके' ने लगातार पराजय मिलने से हताश नेताओं में ऊर्जा का
संचार करने की कोशिश की और अपनी भूमिका के बारे में भी बताया, जिसने
शुरूआती स्तर पर कुछ हद तक तो कांग्रेसजनों को उत्साहित किया ही होगा.
चूंकि कोई कन्फ्यूजन न रह जाए कार्यकर्ताओं के मन में इसलिए उन्होंने यह भी
कहा कि उनसे पार्टी का न कोई अनुबंध हुआ और न ही सोशल नेटवर्किंग से
जुड़ाव है, बल्कि एक रणनीति के तहत उन्हें जिम्मेदारी दी गयी है. अपनी
क्षमता का प्रयोग करते हुए गत लोकसभा चुनाव में मिली हार के गम से उबारने
के लिए उन्होंने वोटों के आंकड़े को समझाया और बताया कि 2009 में कांग्रेस
ने नौ करोड़ मत मिलने पर सरकार बना ली जबकि वर्ष 2014 में दस करोड़ वोट
पाने के बावजूद सत्ता से बाहर हो गई.
जाहिर तौर पर इस प्रकार के तथ्यात्मक
भाषणों से मरे हुए कार्यकर्त्ता दौड़ेंगे नहीं तो कम से कम सांस तो लेने ही
लगने. हालाँकि, प्रशांत किशोर का यह अभियान किस हद तक कारगर रहेगा, इस बाबत
राजनीतिक विश्लेषक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाये बैठे हैं, किन्तु इस बात में
रत्ती भर भी दोराय नहीं है कि अगर वर्तमान हालत में भी कांग्रेसी जीजान से
जुट जाएँ तो किंग नहीं तो किंगमेकर की हालत में उन्हें पहुँचने से शायद ही
कोई रोक सके. 'पीके' ने कांग्रेसियों से इस बाबत कहा कि भाजपा के खिलाफ हर
मोर्चे पर लड़ते दिखेंगे तब ही पार्टी का भला होगा. जाहिर तौर पर यह तेज
व्यक्ति यह समझता है कि सपा बसपा जैसे दल खुद ही हाशिए पर आ जाएंगे क्योंकि
आमजन कांग्रेस को ही भाजपा के विकल्प के तौर पर देखना चाहते हैं. चूंकि
कांग्रेसी सीरियस नहीं हैं, इसलिए इन दलों के उभार में सहायता मिलती है और
इसी राजनीति की डोर को पकड़कर प्रशांत ने यह मुश्किल जिम्मेदारी ली है. इसी कड़ी में प्रशांत किशोर का कहना था कि जिलों में सक्रियता बढ़ानी होगी, विधानसभा क्षेत्र को केंद्र बनाकर कार्यक्रम आयोजित करने होंगे जिसके लिए अप्रैल अंत तक संगठन की प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए. साथ ही साथ पार्टी
को जिताऊ उम्मीदवारों के चेहरे चिन्हित करने होंगे. हालाँकि इस महत्वपूर्ण
बैठक में प्रियंका गांधी को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई. इस कड़ी में सपा व
बसपा से दूरी बनाए रखने पर जिला व शहर अध्यक्षों का जोर रहा तो पश्चिमी
उप्र से संबंधित नेताओं ने जरूर स्थानीय दलों से चुनावी तालमेल करने की
पैरोकारी की. देखना दिलचस्प होगा कि कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं में
बढ़े फासले मिटाने, पार्टी में बढ़ी गुटबाजी जैसी खामियों को ध्यान से
सुनने और समझने के बाद प्रशांत क्या कर पाते हैं. हालाँकि, कांग्रेस का
प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व प्रशांत को लेकर उत्साहित जरूर हैं, इस बात में
कोई शक नहीं! देखने वाली बात यह भी होगी कि प्रशांत किशोर सपा या बसपा में
से किसी एक के साथ तालमेल करके कांग्रेस को आगे बढ़ाते हैं अथवा एकला चलो
को तरजीह देते हैं. अभी की उनकी रणनीति से यही लग रहा है कि वह अपने सभी
विकल्प खुले रखकर चल रहे हैं. हालाँकि, कांग्रेस में बढ़ी इस हलचल से प्रदेश
की राजनीति में कई बदलाव आ सकते हैं, इस बात की सम्भावना जरूर बढ़ गयी है
तो कांग्रेस के लिए करो या मरो की स्थिति बनने से उसके नेतृत्व के पास अपनी
जान लड़ाने के सिवा दूसरा चारा ही क्या बचता है!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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