रघुराम राजन वर्तमान में बेहद चर्चित व्यक्तित्व बन चुके हैं और यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि उनको मिल रही चर्चा से कइयों को ईर्ष्या हो रही होगी. यदि मोटे तौर पर भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी को छोड़ दिया जाए तो बड़े व्यक्तित्वों के साथ जनता के मन में भी राजन के प्रति एक अच्छी छवि रही है और उनको न जाने देने के लिए कइयों ने खूब ज़ोर भी लगाया. हालाँकि, राजनीति में 'बहुत बढ़िया' होने की खूबी भी कई बार आपकी खामी बन जाती है और सच कहा जाए तो रघुराम राजन के साथ यही कुछ मामला था. थोड़ा और स्पष्ट किया जाए तो सरकार के आर्थिक सुधारों और भारत की इकॉनमी के स्थायित्व और तेजी से बढ़ने की 'क्रेडिट' में रघुराम राजन हिस्सेदार बनते जा रहे थे. अब सवाल उठा कि क्या वाकई कोई सरकार किसी नौकरशाह या अधिकारी से 'क्रेडिट' शेयर करना चाहेगी? बेशक वह कितने भी काबिल हों, उनकी नीतियां सुडौल और परिपक्व हों पर नरेंद्र मोदी और भाजपा अपनी सरकार की क्रेडिट पर कोई समझौता नहीं कर सकते थे. अगर इस आंकलन को थोड़ी गहराई में और ले जाया जाए तो विपक्ष के रसातल में चले जाने के बाद रघुराम राजन (Raghuram Rajan, Hindi Article) जैसे लोग सरकार के 'मूक विपक्ष' का भी रोल अदा कर रहे थे, जो कई मसलों पर इशारे में टोकाटोकी कर दिया करते थे और उनकी छवि चूंकि ऐसी थी कि उस टोकाटोकी के इशारे को दुनिया भर में तवज्जो भी मिलती थी. आप अख़बारों की कटिंग उठा कर देख लीजिए, उसमें वित्तमंत्री अरुण जेटली कुछ भी कहें, निर्मल सीतारमण किसी भी आर्थिक सुधारों की बात करें, किन्तु इन सबकी बातों पर राजन का एक बयान भारी पड़ जा रहा था. अगर एक प्रधानमंत्री मोदी को छोड़ दिया जाए तो रघुराम राजन की छवि और लोकप्रियता बाकी मंत्रियों से कहीं आगे निकल रही थी, जो भविष्य में मोदी सरकार के लिए खतरा बन सकती थी. वित्तमंत्री की छवि तो और भी रघुराम राजन के सामने बेहद फीकी पड़ गयी थी.
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वैसे भी 'गवर्नर' तो कोई भी आ जाए, वह नोटों पर हस्ताक्षर करेगा तो सरकार की मर्जी से मौद्रिक नीतियों में थोड़ी हेर-फेर भी कर देगा, किन्तु यह तय है कि उसका इस्तकबाल रघुराम राजन जैसा नहीं होगा और सरकार और सत्तासीन पार्टी को इससे ज्यादा और क्या चाहिए भला! ऐसे में राजन के ऊपर विश्व बैंक का नकारात्मक तमगा चेपने की कोशिश एक बहाना भर ही है और उनके जाने का असल कारण राजनीतिक नज़र आता है. दुनिया के बेहतर अर्थशास्त्रियों में से एक माने जाने वाले रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन का कार्यकाल सितम्बर में ख़त्म हो रहा था और जैसा कि अब स्पष्ट हो चुका है कि इसे बढ़ाया नहीं जायेगा. राजन की इस बात पर असहमति जताने के बाद भारतीय रिजर्व बैंक के अगले गवर्नर के लिए उम्मीदवारों की चर्चा भी ज़ोर पकड़ चुकी है. रिजर्व बैंक में गवर्नर पड़ के लिए जिन नामों की चर्चा हो रही है, उसमें महंगाई के मोर्चे पर राजन के लेफ्टिनेंट कहे जाने वाले रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल, 2जी घोटाले को खंगालने वाले पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) के प्रमुख विनोद राय, एसबीआई प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य, मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन, विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु, राजस्व सचिव शक्तिकान्त दास, वित्त मंत्री के पूर्व सलाहकार पार्थसारथी शोम, ब्रिक्स बैंक के प्रमुख के वी कामत, सेबी के चेयरमैन यूके सिन्हा, रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर राकेश मोहन और सुबीर गोकर्ण, पूर्व वित्त सचिव विजय केलकर, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग के पूर्व चेयरमैन अशोक चावला, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिड़ी तथा प्रबुद्ध अर्थशास्त्री वैद्यनाथन का नाम शामिल किया जा रहा है. आप कहेंगे कि इतने नाम ऊपर गिनाए गए हैं तो उसका जवाब यही है कि सरकार भी अभी 'कन्फ्यूज' ही है कि वह किसे सामने लाए, जिसका कद थोड़ा बहुत ही सही किन्तु राजन के बराबर हो और वह सरकार की बात भी 'अंडर' में रहकर माने!
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हालाँकि, अर्थव्यवस्था के कई पेंच हैं और बेहतर होगा अगर सरकार रघुराम राजन के गवर्नर पद से हटने के बाद उन्हें कहीं और एडजस्ट करने की कोशिश करे. इसके लिए वर्तमान में जो पद हैं, अगर वह फिट न हों तो कोई और पद भी सृजित किया जा सकता है. जाहिर है, ऐसी उम्मीद सरकार से इसलिए की जा रही है क्योंकि 'आर्थिक' विशेषज्ञ और इंडस्ट्रियलिस्ट इस बात पर एकमत थे कि अगर रघुराम राजन (Raghuram Rajan, Hindi Article) को दूसरे कार्यकाल का मौका दिया जाता तो भारत की अर्थव्यवस्था और भी अच्छी हो सकती थी. खैर, जो नहीं हुआ वह नहीं हुआ, किन्तु उसकी पिछले दरवाजे से भरपाई करने की कोशिश सरकार की सजगता और काबिल व्यक्तियों के प्रति सम्मान ही दिखाएगी. वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी एक-एक करके अधिकारियों को निशाने पर ले रहे हैं, जिसमें ताजा मामला मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम का है. स्वामी ने उन पर कड़ा निशाना साधा है और उन्हें हटाने की मांग की है. उन्होंने साफ़ तउार पर ट्विटर पर कहा कि ‘‘अमेरिकी कांग्रेस को 13 मार्च 2013 को अरविन्द सुब्रमण्यम ने कहा था कि अमेरिकी फार्मा उद्योग के हितों की रक्षा के लिए भारत के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, इसलिए उन्हें हटाया जाए.’’ स्वामी ने यह निशाना ऐसे समय में साधा है जब ऐसी खबरें आ रही थीं कि अरविंद सुब्रमण्यम देश के केंद्रीय बैंक के प्रमुख के तौर पर राजन के संभावित उत्तराधिकारी हो सकते हैं. ऐसा नहीं है कि सुब्रमण्यम स्वामी के आरोप हल्के ही हैं, बल्कि ऐसे आरोप इतने गम्भीर हैं कि उस पर कान धरना ही पड़ेगा और इस बात की उम्मीद बढ़ गयी है कि अरविन्द सुब्रमण्यम अब शायद ही इस रेस में आगे बढ़ पाएं! अगर केंद्रीय बैंक की चुनौतियों और आने वाली संभावित जिम्मेदारियों पर बात करें तो इस काफी हद तक रघुराम राजन ने स्पष्ट कर दिया है. आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने साफ़ कहा कि मुद्रास्फीति को छोड़कर विकास पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जा सकता. रघुराम राजन ने महंगाई को काबू करने के लिए अपनाई गई मौद्रिक नीति का पुरजोर बचाव किया. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में एक भाषण के दौरान राजन ने ब्याज दर अधिक रखने के आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि महंगाई और ब्याज दरों को एक साथ कम नहीं रखा जा सकता.
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जाहिर है 'महंगाई' कम रखने की अपनी कोशिशों पर राजन अपनी पीठ थपथपा रहे थे तो सुब्रमण्यम स्वामी के उन आरोपों का जवाब भी वह देने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी नीतियां न केवल बड़े उद्योगों के लिए बल्कि आम जनता के लिए भी उतनी ही मुफीद थीं. साफ़ है कि आने वाले दिनों में जो भी राजन का उत्तराधिकारी आएगा, उस पर महंगाई और विकास दर दोनों में तालमेल बिठाकर आगे बढ़ना होगा. राजन ने आरबीआई कर्मचारियों को जो पत्र लिखा है, उसमें भी आने वाले दिनों की आहात सुनाई देती है. राजन आरबीआई के उन खातों को मजबूत करना चाहते थे जो नॉन परफॉर्मिंग असेट्स से ताल्लुक रहते हैं और उनका असर आरबीआई के क्वालिटी के कार्यों पर पड़ता है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था को एक लेवल पर पहुंचाने में रघुराम राजन ने मजबूत योगदान किया है और उनके उत्तराधिकारी पर भी सही नीतियां अपनाने के लिए उतना ही दबाव रहेगा. प्रक्रियात्मक ढंग से देखें तो, रिजर्व बैंक गवर्नर पद की नियुक्ति के लिए एक उच्चस्तरीय वित्तीय क्षेत्र नियामक नियुक्ति खोज समिति का गठन होता है और यह समिति ही उम्मीदवारों के नाम को छांटने का काम करती है. उसके बाद प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री की सलाह के बाद अंतिम फैसला होता है. हालाँकि, अभी तक ऐसी कोई सुगबुगाहट सामने नहीं आयी है. शायद सरकार भी समय लेना चाहती है और उचित भी यही है कि जांच-परख कर आगे बढ़ा जाए और जिस पर भी भरोसा किया जाए उसे पर्याप्त समय दिया जाए ताकि वह आज़ादी से कार्य कर सके, क्योंकि देशहित आज अर्थव्यवस्था से पूर्णतः जुड़ चुका है और अगर किसी नासमझ या दबाव में आने वाले व्यक्ति के हाथ में कमान जाएगी तो व्यवस्था का बेड़ागर्क होने से कतई नहीं रोका जा सकता.
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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