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स्मृति ईरानी की 'प्रमोशन या डिमोशन'! Smriti Irani, Central Cabinet Reshuffle, Hindi Article, Mithilesh



नरेंद्र मोदी ने अपने बीते दो साल के प्रधानमंत्रित्व काल में पहली बार मंत्रिमंडल में फेरबदल और इसका विस्तार किया, किन्तु इस पूरे अवसर की चर्चा मीडिया ने स्मृति ईरानी के 'डिमोशन' के रूप में की. कभी-कभी बेहद आश्चर्य होता है कि मीडिया के कामों में कितना छिछलापन आ गया है कि बजाए कि तर्कों के आधार पर वह समग्र मंत्रिमंडल और उसके कार्यों का लेखा-जोखा पेश करते, लेकिन तमाम बड़े चैनलों ने घंटों स्मृति ईरानी पर कार्यक्रम (Smriti Irani, Central Cabinet) कर डाले! यह सोचना मुश्किल नहीं है कि अगर कहीं पीएम स्मृति ईरानी को मंत्रिमंडल से बाहर कर देते तब तो ईरानी मैडम का जीना ही हराम कर देती मीडिया! खैर, उनके चर्चित होने के पीछे कहीं न कहीं यह भी वजह है कि वह 'ग्लैमर-वर्ल्ड' से राजनीति में आयी हैं तो 'सुषमा स्वराज' की कमी भरने के साथ, वह बेहद बोल्ड भी हैं. खैर, उनकी 'कैबिनेट-रैंक' तो नहीं घटी है, किन्तु अगर लोगबाग यही मान रहे हैं कि उनकी 'डिमोशन' हुई है तो वह यह भी समझ गए होंगे कि सरकार अभी स्मृति ईरानी की अनदेखी करने के मूड में कतई नहीं है, इसलिए ईरानी को 'ट्रोल' करने की कोशिशों पर विराम लगना चाहिए. अगर हम थोड़ा पीछे जाते हैं तो आपको याद होगा वो दिन जब प्रधानमंत्री ने सरकार-गठन के समय अपने मंत्रिमंडल में जब स्मृति ईरानी को शिक्षा विभाग सौंपा था, तब चारों तरफ इसकी ही चर्चा थी.  


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इसका कारण भी साफ़ था क्योंकि राजनीति में नयी नवेली स्मृति के लिए यह पद भार बहुत बड़ा था. तब लोग ये भी कयास लगा रहे थे कि अमेठी में राहुल और कांग्रेस से मोर्चा लेने की एवज में उन्हें ये पद भार मिला है, तो कई लोगों ने इसे 'सुषमा स्वराज' की काट के तौर पर भी विश्लेषित किया! वैसे इस बात में कोई शक नहीं है कि अपनी तेज-तर्रार और विरोधियों के प्रति आक्रामक शैली के चलते लोकसभा चुनाव ने स्मृति ईरानी को रातोंरात लोगों की नजरों में ला दिया था. वहीं अपनी आक्रामकता के चलते वो प्रधानमंत्री की भी पसंदीदा बनीं, जिसके लिए पीएम की पार्टी के भीतर और बाहर खूब आलोचना भी हुई. इस आलोचना से पीएम तो विचलित नहीं हुए, लेकिन कहते हैं कि अति किसी भी चीज की ठीक नहीं होती है, खासकर राजनीतिक जीवन में! अगर उनके पिछले दो साल के रिकार्ड को देखें तो उनका सफर विवादों से ज्यादा भरा रहा है. हालाँकि, यह बात अलग है कि काफी विवाद जान-बूझकर पैदा किये गए थे, पर मूल प्रश्न तो यह है कि 'विवाद' तो हुए ही! वह चाहे दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो अथवा इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान 'इरानी और मायावती के बीच बहस में (Smriti Irani, Central Cabinet) इनका 'सर कटाने की बात कहना हो! इस मामले में स्मृति ईरानी की किरकिरी भी हुई, जब मायावती अड़ गईं कि 'वह ईरानी के जवाब से संतुष्ट नहीं हैं, और ऐसे में क्या वह अब क्या अपना वादा निभाएंगी'. अब भाई, सर कौन कटाने जाए इस 'मुई' राजनीति के चक्कर में. इसके अतिरिक्त, उनके मंत्रालय के कामकाज की बात की जाये तो परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर ने आईआईटी मुंबई बोर्ड के चेयरपर्सन पद से मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हस्तक्षेप का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया, तो वहीं आईआईटी दिल्ली के डायरेक्टर आरके शेवगांवकर ने भी अपना कार्यकाल खत्म होने से दो साल पहले ही दिसंबर 2014 में अपने पद से इस्तीफा देते हुए आरोप लगा दिया था कि आईआईटी में इरानी की गैरजरूरी दखल की वजह से उन्होंने यह कदम उठाया है.

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स्मृति इरानी के मंत्री बनने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार साल के ग्रैजुएशन प्रोग्राम को वापस लेने का उनका फैसला भी  विवादों में रहा, तो वहीं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक के दर्जे पर भी काफी विवाद रहा! इस क्रम में अगर हम आगे बात करते हैं तो, एचआरडी मंत्रालय द्वारा संचालित सेंट्रल स्कूलों में जर्मन की जगह संस्कृत भाषा लाने के उनके कदम पर काफी हो-हल्ला मचा, तो खुद मंत्री महोदया की अपनी डिग्री भी शुरू से विवादित रही. इसके अतिरिक्त, बड़े बड़े विवादों के साथ ही छोटे विवाद जैसे कि बिहार के शिक्षा मंत्री डॉक्टर अशोक चौधरी और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी (Smriti Irani, Central Cabinet) की ट्विटर पर 'डियर बहस', आईआईटी कैंटीन विवाद, अंबेडकर-पेरियार ग्रुप पर बैन, क्रिसमस के दिन गुड गवर्नेस डे, इत्यादि मुद्दों पर स्मृति हमेशा ही विवादों में घिरीं रहीं. हालाँकि, उपरोक्त जितने भी मुद्दे गिनाए गए, उस पर अगर आप बारीक निगाह डालें तो समझ जायेंगे कि वह सारे मुद्दे 'संघ और भाजपा' की ही सोच से मिलते जुलते रहे हैं और सच कहा जाए तो संघ को स्मृति ईरानी के कार्यों से खुश होना चाहिए, क्योंकि जिस तरह वामपंथी-समुदाय तमाम शैक्षणिक संस्थाओं में कुंडली मारकर बैठा हुआ था, उसे स्मृति ईरानी ने हिलाने का कार्य जरूर किया है. जेएनयू सहित तमाम संस्थानों में स्मृति ईरानी का 'डर' पनपा, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है. उनकी बोल्ड महिला और सफल वक्ता होने की छवि बहुत काम आयी और शायद इसीलिए पीएम ने उनका 'कैबिनेट-मंत्री' का ओहदा नहीं घटाया!

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साफ़ है कि अब उनके उत्तराधिकारी प्रकाश जावड़ेकर को 'संघ और भाजपा' की नीतियां मुलायमियत से लागू करने में कोई खास दिक्कत नहीं पेश आने वाली! वैसे भी जावड़ेकर की छवि विनम्र और अपेक्षाकृत सुलझे, मगर तीक्ष्ण राजनेता की रही है. जहाँ तक स्मृति ईरानी का सवाल है तो उन्होंने राजनीति के लिहाज से पुराने मंत्रालय में बेहतर कार्य किया है और उन्हें हटाया इसलिए गया ताकि अब सरकार और शैक्षणिक संस्थाओं में टकराव के बदले तालमेल पर जोर दिया जा सके. इसके साथ मंत्रिमंडल (Smriti Irani, Central Cabinet) के अन्य लोगों में यह सन्देश भी गया कि अगर पीएम स्मृति ईरानी का ओहदा घटा सकते (मीडिया की जुबान में) हैं तो फिर बाकी सबको भी विवादों से दूर रहकर 'परफॉर्म' करना ही होगा! उधर स्मृति पीएम का धन्यवाद कर रही हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि उन्हें पहले भी उनके कद से ज्यादा मिला था और अब भी काफी मिला है. हाँ, इसके पीछे मीडिया बेशक 'लाठी' पीटे, कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि सांप तो निकल चुका है. वैसे भी, कई लोग यह कयास लगा रहे हैं कि 'यूपी इलेक्शन' में स्मृति ईरानी की बड़ी भूमिका के लिए उन्हें 'कपड़ा मंत्रालय' मिला है. अगर सच में ऐसा है तो फिर स्मृति से सुलगने वाले 'धधक-धधक' कर जलने वाले हैं.

- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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