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देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीतिक अहमियत वैसे भी सबसे ज्यादा रहती है और अब तो 2017 में विधानसभा के चुनाव होने हैं तो तमाम राजनीतिक पार्टियों ने अपने घोड़े छोड़ रखे हैं. अभी हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनावों में अपने बेहतरीन प्रदर्शन से बीजेपी ने सबको चौंका दिया है, खासकर उन राज्यों में जहाँ उसका वोट बैंक न के बराबर था. यूं तो सीधे तौर पर उसकी सरकार असम में ही बनी, किन्तु अन्य जगहों पर भी उसका प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर हुआ. इस जीत का सकारात्मक असर ये हुआ है कि पार्टी के कार्यकर्ता भी उत्साह से भरे हुए हैं. अपने कार्यकर्ताओं और मंत्रियों के इसी उत्साह को सही दिशा देने के लिए बीजेपी ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक आयोजित की, जिसका मुख्य उद्देश्य 2017 में होने वाले पांच राज्यों की चुनाव रणनीति पर चर्चा करना था. यह राज्य उत्तर प्रदेश, गोवा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड हैं. इसमें भी उत्तर प्रदेश की चुनावी रणनीति पर पार्टी का फोकस कहीं ज्यादा रहा, क्योंकि उत्तर प्रदेश का जीतना उसके लिए बेहद आवश्यक है, ताकि 2019 के केंद्रीय चुनावों से पहले इस मजबूत और बड़े हिंदी भाषी राज्य से उसे शुभ संकेत मिलता रहे. आखिर, 2014 में भी अगर केंद्र में भाजपा आयी है तो उसमें सबसे बड़ा सपोर्ट उत्तर प्रदेश तो ही है. उत्तर प्रदेश को जीतना इस पार्टी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि बिहार में काफी ज़ोर लगाने के बावजूद पार्टी वहां हार गयी. अब अगर इस 'हार के घूँट' को पार्टी 'उत्तर प्रदेश' की जीत से धोना चाहती है तो कुछ गलत भी नहीं है, किन्तु सवाल वही है कि विभिन्न गुटों में बंटी पार्टी क्या वाकई इस राज्य में जीत की खातिर एक राग अलापने को तैयार होगी?
राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में यूपी में सरकार बनाने के लिए भाजपा कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती और इसके लिए उसने काफी समय पहले ही मंथन शुरू कर दिया है. पीएम नरेंद्र मोदी ने भी 13 जून को इलाहाबाद रैली से माहौल को गरमाने में कोई कसर नहीं छोड़ा. अपने दहाड़ने वाली शैली में मोदी ने जम कर सपा और बसपा पर निशाना साधा. उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि दोनों पार्टियों ने जुगल बंदी की है कि बारी-बारी से यूपी को लुटेंगें. पीएम मोदी ने समाजवादी पार्टी के 'गुंडाराज' के मुद्दे को भी गिनाया और मथुरा की हिंसा की घटना में पार्टी और सरकार की नाकामयाबी पर भी खूब बरसे. हालाँकि कार्यकारिणी की बैठक में पीएम मोदी ने बहुत छोटा भाषण दिया और महत्वपूर्ण मुद्दों को छुआ. यह कुछ-कुछ औपचारिकता की माफिक था, जैसे हमारे देश में 80 करोड़ युवा हैं और उनके मन को पढ़ते हुए जरूरी बदलाव करना होगा. इस क्रम में मोदी ने अपने संगठन को भी निर्देश दिया कि 'जीत' के उद्देश्य में अभी से जुटें और लोकसभा चुनाव के बाद जुड़े सदस्यों व कार्यकर्त्ताओं को भी इसमें जोड़ें. इस बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने सपा पर हमला बोला और कांग्रेस के दस साल तक केंद्र सरकार में रहने और 12.5 लाख करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार का ज़िक्र किया. इसके साथ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने मोदी सरकार के दो साल में किये कार्य और योजनाओं की भी विस्तार से चर्चा की. यह बात ठीक है कि हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन चुकी है, तो सऊदी अरब और अफगानिस्तान ने अपने देश का सर्वोच्च सम्मान भी पीएम को दिया है. इसी के साथ केंद्र सरकार की उपलब्धियों में अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र ने मोदीजी के भाषण के दौरान कई बार स्टैंडिंग ओबेशन भी दिया, जिसे भाजपा ख़ास बता सकती है. पर मूल मुद्दा यह है कि क्या प्रदेश की जनता भी 'वोट' देते समय इन्हीं मुद्दों पर गौर करेगी या उसके लिए 'महंगाई, काला धन' जैसे मुद्दे भी कुछ मायने रखेंगे!
पेट्रोल, डीजल के दाम खूब बढे हैं तो टमाटर, दाल जैसी रोजमर्रा की जरूरतों की कीमत भी आसमान छूने को तैयार है. ऐसे में भाजपा को इन आम जनों के विषयों पर भी कार्य करना होगा अगर उसे सच में जीत हासिल करनी है तो! यह बात काफी हद तक ठीक है कि हमारे पीएम मोदी एक तेजस्वी प्रधानमंत्री हैं और उन्होंने विभिन्न अवसरों पर 125 करोड़ भारतीयों का मान बढ़ाया है. ऐसे ही एमटीसीआर और एनएसजी के लिए दुनिया भर से भारत को समर्थन मिल रहा है, पर सच कहा जाए तो यह मुद्दे उद्योगपतियों, बुद्धिजीवी वर्ग को ज्यादा समझ आते हैं और आम जनमानस तो आज भी छूटते ही प्रश्न पूछता है कि 'मोदी ने कितने रोजगार उत्पन्न किये'? या फिर 'महंगाई' कितनी कम हुई? जाहिर है, इस प्रकार के सवालात भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं. हालाँकि, राष्ट्रीय कार्यकारिणी की संगम तट पर बैठक में इस पर भी अंदरखाने चर्चा हुई ही होगी, बेशक वह बात सामने न आयी हो. इसी क्रम में इस कार्यकारिणी को केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, यूपी बीजेपी इंचार्ज ओम माथुर आदि लोगों ने भी सभा को सम्बोधित किया. हालांकि जिस बात की घोषणा की उम्मीद लोगों ने इस बैठक से लगायी थी वो उम्मीद पूरी नहीं हुयी. जी हाँ, यूपी में बीजेपी के सीएम पद के उम्मीदवार की तस्वीर अभी साफ़ नहीं हुई और तमाम उम्मीदवारों के समर्थक 'पोस्टरबाजी' और 'बयानबाजी' से अपने नेता को यूपी में सीएम के लिए सुयोग्य उम्मीदवार बता रहे हैं. योगी आदित्यनाथ, वरुण गांधी, स्मृति ईरानी और यहाँ तक की राजनाथ सिंह तक का नाम यूपी सीएम के पद के लिए खूब चर्चा पा चुका है. जाहिर है भाजपा के खेमे में अगर इतने बड़े नेता मैदान में आने की चर्चाओं को हवा देंगे तो पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर इसका नकारात्मक असर ही पड़ेगा. बेहतर होता पार्टी किसी चेहरे को सामने लाती और अगर रणनीतिक रूप से ऐसा करना उचित न हो तो कम से कम नेताओं और उनके समर्थकों को चुप रहने का कड़ा निर्देश तो जारी करती.
यह भी दिलचस्प है कि कार्यकारिणी बैठक से पहले पूरा इलाहबाद शहर जिस तरह से होर्डिंग और पोस्टरों से पटा पड़ा था, उससे तो यही लग रहा था कि इस बार सीएम का नाम तय तो जायेगा, पर भाजपा नेतृत्व शायद विवाद की वजह से अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर हुआ होगा. खबर तो यह भी बाहर आयी कि जिस तरह वरुण गांधी और उनके समर्थकों ने 'पोस्टरबाजी' की, उसके उलट पार्टी अध्यक्ष अमित शाह उनसे खफ़ा हो गए और उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र से बाहर न आने का फरमान सुना दिया. राजनाथ सिंह ने पहले ही सीएम के पद के लिए इंकार कर दिया है, तो जाहिर है सर्वसम्मति के लिए कोई स्पष्ट चेहरा अभी नज़र नहीं आ रहा है. अटकलों का बाजार गर्म है, जिसमें प्रमुखता से केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी, केंद्रीय पर्यटन मंत्री महेश शर्मा, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के नाम की भी चर्चा हो रही है. स्मृति इरानी अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़कर खुद को सूबे की सियासत का एक जाना-पहचाना चेहरा बना चुकी हैं, तो महेश शर्मा ब्राह्मण चेहरा हैं और उन्हें संघ का समर्थन हासिल बताया जाता है. ऐसे ही, केशव प्रसाद मौर्य प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष हैं और गैर यादव दलित वोटरों को रिझाने के लिए पार्टी इनके नाम पर भी दांव खेल सकती है. इस कार्यकारिणी बैठक से एक संकेत यह भी मिला कि पार्टी दूसरा ऑप्शन भी लेकर चल रही है कि अगर यूपी सीएम का चेहरा पेश नहीं करने का फैसला हुआ तो बीजेपी को 6 इलाकों में बांटकर हर क्षेत्र को एक नेता के हवाले किया जाएगा. चुनाव के बाद अगर बीजेपी सरकार बनाती है तो इन्हीं 6 क्षेत्र प्रभारियों में से जो सबसे अच्छा प्रदर्शन करेगा, उसको बीजेपी मुख्यमंत्री बना सकती है. हालाँकि, राजनीति को समझने वाले कच्चे खिलाड़ी तो होते नहीं हैं और अगर ऐसा किया गया तो बहुत उम्मीद होगी कि एक नेता, दुसरे के क्षेत्र में पार्टी को कमजोर करने की रणनीति भी बनाएगा तो उसे शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेताओं की बयानबाजी से हवा भी देगा.
भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि एक तरफ उसके मुकाबले में समाजवादी पार्टी की सरकार के अखिलेश यादव हैं तो दूसरी ओर बसपा की मायावती हैं. इन दोनों पार्टियों और इसके नेताओं की बेशक कोई बुराई करे, किन्तु यह एक तथ्य है कि पार्टी कैडर इनके नाम पर एकजुट है तो इनका वोटबैंक भी कमोबेश फिक्स है. मतलब सपा के पक्ष में मुसलमान और यादव मजबूती से खड़े दिखते हैं तो बसपा का दलित वोट बैंक आधार 'आरसीसी दीवार' की तरह मजबूत है. ऐसे में अगर भाजपा ज़रा भी लड़खड़ाई तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है. भाजपा नेतृत्व ने कार्यकारिणी बैठक में सम्भवतः इस बाबत भी विचार अवश्य ही किया होगा कि अब उत्तर प्रदेश चुनाव में 'मोदी लहर' जैसी बात नहीं है तो 'कैराना' जैसे छिटपुट मुद्दों के सहारे उसकी नांव बहुत दूर तक नहीं जा सकती है. हालाँकि, इस बैठक में रणनीति के लेवल पर कुछ ख़ास निकल कर आया हो इस प्रकार का संकेत नहीं मिला, जबकि दूसरी पार्टियां अपनी तैयारी किस ज़ोर शोर से कर रही हैं, यह ग्राउंड पर नज़र आने लगा है. साफ़ दिखता है कि भाजपा को मुकाबले के लिए अपनी रणनीतियां और तैयारियां 'बुलेट स्पीड' से दौड़ाने की जरूरत है, वह भी स्थानीय और प्रादेशिक नेताओं को एकजुट करके और तब भाजपा के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनने की उम्मीद भी बढ़ जाएगी, इस बात में कोई दो राय नहीं!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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