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पब्लिक एवं प्राइवेट सेक्टर एम्प्लाइज की कार्यशैली, उत्पादकता में साम्यता लाए सरकार! Private and Public Sector Employees, Hindi Article, New, Productivity, Job Security, Reservation, Salary



निजी एवं सार्वजानिक क्षेत्र का विषय काफी बड़ा एवं लगातार चर्चा में रहने वाला भी है, तो इस विषय से जुड़े दूसरे विषय भी हैं जो कई समस्यायों के लिए सीधे तौर से जिम्मेदार हैं. आप आरक्षण को ही ले लीजिये, जिस प्रकार सरकारी नौकरियों में 'रिजर्वेशन' को लेकर देश के विभिन्न हिस्से अलग-अलग समय पर जलते रहते हैं, वह अंततः हमारे विकास को ही तो प्रभावित करता है. आरक्षण पर पुराने हंगामों को छोड़ भी दें, तो हाल ही में हरियाणा का जाट-आंदोलन, गुजरात का पटेल आंदोलन एवं राजस्थान में गुज्जर आंदोलन ने हमारे देश की इकॉनोमी और उससे बढ़कर लोगों की मानसिकता को काफी पीछे (Private and Public Sector Employees, Hindi Article, New, Reservation movements) धकेला है. ऐसा भी नहीं है कि मामला एकतरफा ही है, बल्कि दोनों क्षेत्रों (निजी-सार्वजनिक) के कर्मचारियों की कार्यशैली में भारी अंतर की वजह से देश के लोगों में दो फाड़ वाली मानसिकता भी विकसित होती जा रही है. दिलचस्प बात यह है कि प्राइवेट और पब्लिक, दोनों ही क्षेत्रों के एम्प्लोयी देश के विकास में योगदान की बात करते हैं जो काफी हद तक सच भी है, किन्तु उन दोनों की कार्यशैली और उत्पादकता के बीच की दूरी नार्थ और साउथ पोल की तरह ही है. बड़ा प्रश्न है कि एक ही देश के नागरिकों के कार्य करने, परिणाम देने और जवाबदेही (Performance and accountability) देने में इतना अंतर क्यों होना चाहिए? चर्चा की शुरुआत किसी बड़े कथन या मुद्दे से करने पर उसमें थोड़ा वजन आ जाता है, तो इस सम्बन्ध में जो बड़ी टिपण्णी आयी, वह है रिजर्व बैंक के चर्चित गवर्नर रघुराम राजन की. कई हलकों में तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपनी अलग प्रतिष्ठा बना चुके रघुराम राजन ने इस सम्बन्ध में कहा कि सार्वजनिक (पीएसयू) बैंकों में निचले स्तर पर वेतनमान ‘अधिक’ है, लेकिन शीर्ष कार्यकारियों को ‘कम वेतन’ मिलता है. 

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यूं तो एक तरह से मजाकिया लहजे में राजन ने कहा कि उन्हें तो खुद कम पैसा मिलता है, किन्तु   सार्वजनिक बैंकों के शीर्ष पदों पर प्रतिभाओं को आकर्षित करने में आ रही दिक्कतों की तरफ इशारा करते हुए उनकी यह बात पूरी तरह न्यायोचित प्रतीत होती है. न केवल पब्लिक सेक्टर बैंकिंग में, वरन यह कथन प्रत्येक पब्लिक सेक्टर डिपार्टमेंट का माना जाए, तो गलत न होगा! वस्तुतः अर्थशास्त्र की गूढ़ व्याख्या इस कथन में छिपी हुई है. बकौल राजन सार्वजनिक क्षेत्र की सभी इकाइयों में एक समस्या यह भी है कि आप निचले स्तर पर अधिक वेतन (ओवरपे) देते हैं, जबकि शीर्ष पर कम वेतन (अंडर पे) देते हैं. राजन आगे कहते हैं कि यह सही है कि आपको लगता है कि आप व्यापक जनहित में काम कर रहे हैं लेकिन इससे शीर्ष प्रतिभाओं को आकर्षित करना (Productivity, Job Security, Reservation, Salary, Good People needs good salary, Raghuram Rajan) मुश्किल हो जाता है. गौरतलब है कि वित्तीय संस्थानों की सालाना रिपोर्ट्स के अनुसार सार्वजनिक व निजी बैंकों के शीर्ष अधिकारियों के वेतनमान में भारी अंतर है. उदाहरणार्थ एसबीआई की वर्तमान चेयरपर्सन अंरुधति भट्टाचार्य को 2015-16 में 31.1 लाख रुपये वेतन मिला जबकि निजी बैंक एचडीएफसी बैंक के प्रबंध निदेशक आदित्य पुरी का वेतनमान इसी अवधि में अनुमानतः 9.7 करोड़ रुपये रहा. अगर इन रिपोर्ट्स को हम एक मानक बनाकर सोचें तो अधिकांश सरकारी डिपार्टमेंट्स के शीर्ष अधिकारियों को कम पेमेंट ही मिलती है, तो प्राइवेट सेक्टर अपने शीर्ष अधिकारियों के लिए खज़ाना खोल देता है. इसका परिणाम हम कुछ यूं समझ सकते हैं कि ऐसे में प्राइवेट सेक्टर के शीर्ष अधिकारियों को परिणाम देने और सही प्रबंधन करने में प्रेरणा मिलती है तो कार्य करने का दबाव भी होता है. वहीं सरकारी क्षेत्र के शीर्ष अधिकारी कम वेतनमान की स्थिति में ढुलमुल हो जाते हैं और कई तो 'भ्रष्टाचार' की ओर मुड़ जाते हैं. 

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जाहिर है, इन सबका असर पब्लिक सेक्टर पर खूब पड़ता है तो प्राइवेट सेक्टर का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ता जाता है. इसी कड़ी में, अब हम बात करते हैं निचले स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारियों की. प्राइवेट सेक्टर में कम वेतन पर जहाँ कर्मचारियों पर शुरुआत से ही दबाव बना रहता है कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए हर हाल में उत्पादकता देनी ही होगी, वहीं सरकारी क्षेत्र में एक बार कोई व्यक्ति नियुक्त हो गया कि उसे 'सरकारी दामाद' की पदवी मिल जाती है. यकीन मानिये, वह सिर्फ न्यूनतम कार्य ही करता है, जिसकी मात्रा दिन ब दिन घटती ही जाती है. एक उदाहरण लेते हैं यहां पर, उत्तर प्रदेश के प्राइमरी अध्यापक का! लगभग 40 हजार से ऊपर की सेलरी और 30 - 30 मिनट के चार पीरियड उसे अटेंड करने होते हैं. वह भी उनके लिए जो पूरे ईमानदार अध्यापक हैं, अन्यथा सरकारी नौकरियों में हरामखोरी (Private and Public Sector Employees, Hindi Article, New, Laziness in Government Jobs) की लत तो कुछ यूं है कि कई महीने-महीने भर क्लास ही नहीं जाते हैं. इनमें डर, भय नामक कोई चीज है नहीं, एकाउंटेबिलिटी है नहीं, टारगेट है नहीं और पैसे किसी प्राइवेट कर्मचारी की तुलना में कई गुणा. चूंकि हम भारतीय लोग 'धर्मभीरू' होते हैं और यह मानते हैं कि हर कर्म का परिणाम भी होता है तो इसी आधार पर मैंने अपने आस-पास नज़रें घुमाईं और सरकारी अध्यापकों के परिवार पर नज़रें डालीं. चूंकि, सरकारी अध्यापक का जीवन तो मिलने वाली सेलरी में बढ़िया चल जाता है, किन्तु उसकी अगली पीढ़ी को कहीं न कहीं इसका दुष्परिणाम भोगना ही पड़ता है. हालाँकि, यह कोई ग्राउंड-सर्वे नहीं है, किन्तु सेना जैसी सरकारी संस्थाओं को छोड़ दें तो बाकी क्षेत्रों में आपको नकारात्मकता ही दिखेगी. वहीं प्राइवेट सेक्टर के बिचारे एम्प्लोयी, सरकारी कर्मचारियों की तुलना में कई गुणा मेहनत करने के बावजूद फायर कर दिए जाते हैं. ऐसे में इन उलटी परिस्थितियों का परिणाम तो देश को ही भुगतना पड़ता है, तो क्यों न सरकार दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों की कार्यशैली, उत्पादकता इत्यादि विषयों पर एक गहन सर्वे कराये और जहाँ तक संभव हो दोनों के लेवल में 'साम्यता' लाने की कोशिश करे. 

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आखिर, उस सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को टैक्सपेयर्स के पैसे से 60 साल तक मोटे पैसे देने की क्या आवश्यकता है, जिसकी परफॉरमेंस उससे एक चौथाई सेलरी पाने वाले प्राइवेट कर्मचारी से भी कम है? आखिर, प्राइवेट कर्मचारियों की परफॉरमेंस हर तीन महीने पर (क्वार्टरली) देखी जाती है तो सरकारी कर्मचारियों की कम से कम 1 साल पर तो देखी ही जानी चाहिए और न केवल देखी जानी चाहिए, बल्कि उसी के अनुसार उसकी पेमेंट घटाई या बढ़ाई भी जानी चाहिए. ऐसे ही यदि कोई सरकारी एम्प्लोयी लगातार 4 या 5 साल ख़राब परफॉरमेंस देता है, प्रोडक्टिविटी नहीं देता है तो उसे जॉब की गारंटी क्यों दी जानी चाहिए? जब प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारी 2 या 3 क्वार्टर बढ़िया परफॉर्म न करने पर फायर (Productivity, Job Security, Reservation, Salary, Fire bad performer Government servants) किये जा सकते हैं तो फिर सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं? मैं यह नहीं कहता कि प्राइवेट सेक्टर एम्प्लॉयीज को फायर करके कोई बहुत बढ़िया कार्य करता है, किन्तु सरकार अपने कर्मचारियों को जीवन भर के लिए 'दामाद' बनाकर ही कौन सा तीर मार लेती है? अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अगर पब्लिक, प्राइवेट सेक्टर के निचले, मध्य और उच्च स्तर के कार्यों का निष्पादन करने वाले कर्मचारियों के बीच 'साम्य' स्थापित करने का प्रयत्न किया जाता है तो यह एक बड़ा क्रन्तिकारी कदम साबित हो सकता है, इस बात में दो राय नहीं! यकीन मानिये, ऐसे में आरक्षण जैसी शब्दावलियों से भी हमारा देश धीरे-धीरे मुक्त होने की ओर कदम बढ़ा देगा तो जो प्रतिभा-पलायन की बड़ी समस्या है, उससे भी हमें काफी हद तक छुटकारा मिल सकता है. इसके लिए प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारियों को कुछ हद तक जॉब-सिक्योरिटी मिले, तो पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों की हमेशा के लिए जॉब-सिक्योरिटी पर तलवार भी लटकाई जानी चाहिए. 



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जॉब-सिक्योरिटी के साथ परफॉरमेंस के आधार पर इन्क्रीमेंट-डिक्रीमेंट हो तो नॉन-परफार्मिंग सरकारी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखलाया जाए. चूंकि कंप्यूटर और दूसरी टेक्नोलॉजीज ने 'ट्रांसपेरेंसी' को बेहद आसान बना दिया है, तो ऐसे में कोई भी बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी या खुद सरकार का 'नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर' ऐसे सॉफ्टवेर डेवेलप कर सकता है, जो हर एक कर्मचारी का हर एक पहलु माप सकता है, उसकी क्वार्टरली, सिक्स मंथली या इयरली परफॉरमेंस कैलकुलेट कर सकता है, प्रोडक्टिविटी दिखा सकता है. इसके लिए पहले से ही तमाम ईआरपी सिस्टम मार्किट में हैं, तो फिर व्यापक स्तर पर इन्हें प्रयोग में क्यों नहीं लाया जाता है? ऐसे ही परफॉर्म करने और परिणाम देने वाले शीर्ष स्तर के सरकारी अधिकारियों को प्राइवेट सेक्टर के शीर्ष अधिकारियों के बराबर ही सेलरी और सुविधाएं (Private and Public Sector Employees, Hindi Article, New, Best salary for best performer is needed) दी जाएँ, ताकि 'भ्रष्टाचार' पर स्वाभाविक रूप से लगाम लगे. आखिर योग्य व्यक्तियों को उनकी योग्यता और परफॉरमेंस के आधार पर तनख्वाह मिलनी ही चाहिए. ऐसे ही, दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों को विभिन्न स्तरों पर आदान-प्रदान करने की गुंजाइश भी ढूंढी जा सकती है, ताकि दोनों तरह के कर्मचारी देश के विकास, मेहनत और टैक्सपेयर्स के टैक्स की कीमत समझ सकें. आखिर, घंटा दो घंटा पढ़ाने के नाम पर सरकारी स्कूलों में टाइम पास करने वाले अध्यापकों को यह क्यों समझ नहीं आना चाहिए कि प्राइवेट स्कूलों में मात्र 4 - 5 हज़ार लेकर कैसे उनसे ज्यादा मेहनत की जाती है तो उनसे ज्यादा प्रोडक्टिविटी भी दी जाती है. 

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ऐसे ही, प्राइवेट स्कूलों में बढ़िया परफॉर्म करने वालों को (थ्योरी एवं प्रैक्टिकल) भी किसी न किसी स्तर पर सरकारी स्कूलों में आने का चांस भी मिलना चाहिए, ताकि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था कुछ तो सुधरे! हालाँकि, शुरूआती स्तर पर इस प्रकार से तालमेल का कांसेप्ट थोड़ा अव्यवहारिक लग सकता है, किन्तु अगर ऐसा कुछ होता है तो निश्चित तौर पर यह क्रन्तिकारी और सुधारवादी कदम (Productivity, Job Security, Reservation, Salary, Transparency is needed) होगा. यकीन मानिये, ऐसा प्रावधान होने मात्र से सरकारी कर्मचारियों की कार्य करने की क्षमता में कई गुणा सुधार हो जायेगा, तो प्राइवेट सेक्टर में निचले स्तर पर हो रहे शोषण से निकलने में कुछ हद तक ही सही, राहत मिलेगी! उम्मीद की जानी चाहिए कि पब्लिक-प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारियों की कार्यशैली एवं उत्पादकता में आ रहे अंतर को सरकार गंभीरता से लेगी और दोनों को एक दूसरे की पूरक बनाएगी. ऐसे में काफी हद तक गैर-बराबरी भी दूर होने की सम्भावना जागृत होगी, जो भारत जैसे देश के लिए अमृत-तुल्य साबित हो सकता है.

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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