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आरक्षण की बजाय हो 'योग्यता' का संरक्षण! Fighting resevation, Hindi Article, Go for ability

हम पांच भाइयों में से चार ने 12वीं के बाद इंजीनियरिंग और प्रबंधन की पढाई की और संयोगवश सरकारी नौकरियों के फॉर्म भरने की नौबत ही नहीं आयी, किन्तु एक भाई साहब 'सरकारी अध्यापक' बनने के प्रति कहीं से इंस्पायर हो गए. बस फिर क्या था, साल दर साल बीतते गए, परीक्षाएं आती गयीं, फॉर्म भरते रहे और ... अभी लगे हैं. हिम्मत हारने वालों में से तो वह नहीं है, किन्तु जब परीक्षाओं का परिणाम आता है तो वह 'आरक्षण' पर बात करना नहीं भूलते हैं. वस्तुतः यह कई लोगों का अनुभव है, जो धीरे-धीरे ज़ख़्म बन चुका है और वह नासूर बनने की ओर अग्रसर है. कई बार तो लोग अपनी काबिलियत और मेहनत की कमी का दोष भी आरक्षण पर डाल देते हैं, लेकिन यह प्रश्न ऐसा है कि समझना-समझाना मुश्किल हो जाता है. अगर 'सीटेट' की परीक्षा में कोई विद्यार्थी 100 नंबर लेकर भी सेलेक्ट नहीं होता है और दूसरा 70 या 75 लाकर चयनित हो जाता है तब हीन भावना तो जो उत्पन्न होती है वह होती ही है, इससे भी बड़ी बात यह सामने आती है कि 100 नंबर पाने वाला कैंडिडेट 110 या 120 नंबर पाने के लिए प्रेरित नहीं होता है, बल्कि उसके मन में घोर संघर्ष का भाव आ जाता है. तमाम सरकारी परीक्षाओं में यह स्थिति विकट से विकराल और विकटतम होने लगी है तो 'योग्यता' का ह्रास भी इन मामलों में बड़े पैमाने पर हो रहा है. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि हमारा सरकारी तंत्र 'आरक्षण प्रावधानों' से लगातार अक्षम होता जा रहा है, क्योंकि 70 नंबर पाने वाले आधे कर्मचारी और अधिकारी इसमें भरे जा रहे हैं तो निजी क्षेत्र वाले उपक्रम 120 से लेकर 150 नंबर पाने की योग्यता रखने वालों से कार्य ले रहा है. इससे निजी क्षेत्र को तो जो लाभ मिलता है, वह अपनी जगह है, किन्तु सरकारी स्कूल, हॉस्पिटल, कालोनियां और दूर तमाम क्षेत्र 'बदहाल' स्थिति में आ गए हैं. 

आज सरकारी स्कूलों में अगर बच्चे नहीं हैं, सरकारी अस्पतालों में लोग इलाज कराने नहीं जा रहे हैं तो इसके पीछे 70 नंबर और 150 नंबर पाने वाले उन्हीं विद्यार्थियों का प्रबंधन है तो वर्तमान में सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच 'प्रतिस्पर्धा' के रूप में सामने दिख रहा है. अगर आप ध्यान से देखें तो जिस सामाजिक असंतुलन को दूर करने के लिए 'आरक्षण' का प्रावधान किया गया था, उससे बड़ा सामाजिक असंतुलन तो अब पैदा हो रहा है, जो हमारे 'सरकारी-तंत्र' को ही खाये जा रहा है और नतीजे के रूप में गलत राजनीतिक व्यवस्था से लेकर, सरकारी विभागों की अक्षमता व्यापक रूप में नज़र आ रही है तो आरक्षण के तमाम आंदोलन भी इसी के फलस्वरूप पनप रहे हैं, जिससे वर्ग संघर्ष की बड़ी भूमिका भी तैयार हो रही है. इस मामले में कहा जा सकता है कि आरक्षण का आंदोलन तब तक नहीं थमेगा जब तक इसपर गहन चिंतन कर कोई दूरगामी परिणाम न निकल जाय! भारत के लिए आरक्षण नासूर बन गया है जो समय समय पर दर्द देता रहता है, इस बात में दो राय नहीं!आरक्षण की आग में जल रहे और देश को भी जला रहे निकम्मे लोगों को बस मुफ्त की रोटी चाहिए. आरक्षण की आग गुजरात से सुलगते हुए हरियाणा तक पहुंची तो राजस्थान समेत उत्तर प्रदेश के भी कई क्षेत्र और कई समुदाय इस आग में जलने और जलाने को तैयार हैं. यह भी आश्चर्य ही है कि गुजरात में आरक्षण मांगने वाले वो लोग हैं, जिन्हें असल में आरक्षण की कोई जरूरत ही नहीं है. गौरतलब है कि 60 के दशक में जो भू-सुधार आंदोलन हुआ, उसमें गुजरात के पटेल समुदाय को सबसे ज्यादा जमीन मिली है. गुजरात के प्रत्येक क्षेत्र जैसे आर्थिक, राजनीतिक, कृषि-विकास, शैक्षणिक और यहाँ तक कि धार्मिक क्षेत्रों में भी इस समुदाय का खासा दबदबा है. हालाँकि, गुजरात में हुआ यह हालिया आंदोलन अपने डेवलपमेंट मॉडल पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है. 

एक अनुमान के अनुसार, गुजरात के पटेलों ने नकदी फसलों से पैसा कमाया और उसे लघु, मझोले उद्योगों में डाला, लेकिन आलोचक यह कहने से नहीं चूकते हैं कि मोदी के शासनकाल में सिर्फ और सिर्फ बड़े उद्योगों को ही बढ़ावा मिला और यहाँ करीब करीब 60 हजार छोटे उद्योग बंद हो गए और जिसका सीधा असर पटेल समुदाय पर हुआ. अब जब इन्होंने आरक्षण की मांग की, जिसके लिए हिंसक आंदोलन भी हुए तो सरकार ने 10 फीसदी सवर्ण जातियों को उनके आय के आधार पर आरक्षण देने के नया पैंतरा चल दिया. जाहिर है, आरक्षण की राजनीति में गुजरात सरकार का यह फैसला देश भर में एक नज़ीर की तरह लिया जा सकता है. हालाँकि, इस मामले में अभी काफी किन्तु-परन्तु हैं तो कानूनी उलझनें भी सामने आ सकती हैं. ऐसे ही एक आंदोलन हरियाणा के  जाट समुदाय का था, जिन्होंने अपने ही राज्य हरियाणा में जमकर लूट-मार मचाई. इनके जैसे सम्पन्न और विद्रोही लोगो द्वारा दबकर प्रदेश सरकार ने बेहद कमजोर सन्देश प्रेषित किया है, जिसकी भीतरी तौर पर हर जगह निंदा ही हुई है. ऐसे परिपूर्ण लोगों द्वारा आरक्षण की मांग को देखते हुए ऐसा लगता है कि शायद ही किसी को 'आरक्षण और उसके उद्देश्य' की समझ रही है. जब आरक्षण का कानून बना होगा तब इसका उद्देश्य पिछड़े लोगों को समानता का अधिकार दिलाना ही था, किन्तु आज कौन पिछड़ा है और कौन आगे है इसका अनुमान उसकी आर्थिक स्थिति से लगाए जाने की आवश्यकता है. आज कई लोग वैसे तो पिछड़ी और अनुसूचित जाति-जनजाति से हैं, किन्तु उनकी आर्थिक स्थिति उनके आस पास के समान्य वर्ग से भी ज्यादा मजबूत है. जाहिर है ऐसे में हमें आरक्षण के प्रावधानों को बदलने की आवश्यकता है, मसलन जो एक बार आरक्षण का लाभ ले ले, वह स्वतः ही सामान्य वर्ग में आ जायेगा और उसके साथ, उसकी अगली पीढ़ी भी सामान्य-वर्ग में गिनी जाएगी. अगर ऐसे प्रावधान हम नहीं कर पाते हैं तो 'क्रीमी लेयर, कृमि की भाँती' जायज़ लोगों के हक़ पर कुंडली मारे रहेगी! 

आरक्षण की आड़ में राजनीतिक पार्टियों का वोट-बैंक का प्लान रहता ही है, क्योंकि यदि आरक्षण आर्थिक आधार पर हुआ तो समान्य गरीब वर्ग को भी राहत मिलेगी और तब जातियों के मध्य विभाजन और वोट-बैंक पर कुंडली मारने के प्रयास समाप्तप्राय हो जायेंगे. ऐसे में राजनेताओं की तो दूकान ही बंद हो जाएगी और फिर वह कैसे एक-दुसरे को लड़ाएंगे? देखा जाए तो बीते दस साल में ख़ुद को 'ओबीसी' बताने वाले दस प्रतिशत बढ़कर 44% हो गए हैं तो बीस प्रतिशत अजा और नौ प्रतिशत अजजा है. इस तरह कुल 73% को आरक्षण की पात्रता है. यदि इनमें नई आंदोलन कर रही जातियों को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 80-81% तक पहुंच जाएगा. देश में अब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों रूप से ताकतवर जातियां आरक्षण मांग रही हैं. गुजरात के पटेल, हरियाणा में जाट, ऐसे में ग़रीब सवर्ण ख़ुद को बुरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा था. ऐसे में गुजरात सरकार के फैसलों का चाहे जो मतलब निकाल जाए, किन्तु इससे इस बात की चर्चा जरूर शोर पकड़ सकती है कि अब जाति की बजाय, आरक्षण 'कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि' के लोगों को दिया जाए, वह भी बेहद कम मात्रा में, ताकि इससे 'निकम्मापन' न बढे! हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने 50% से अधिक आरक्षण पर रोक लगा रखी है और ऐसे में गुजरात सरकार का फैसला कितने लम्बे समय तक चल पाएगा, यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि राजस्थान में कोई दस साल पहले गुर्जर सहित चार जातियों को पांच प्रतिशत और सवर्णों के लिए चौदह प्रतिशत आरक्षण घोषित किया गया था, किन्तु कोर्ट में यह अंटक गया. फिर पिछले साल वसुंधरा सरकार ने दोनों समूहों के लिए अलग विधेयक पास करवाए, किन्तु 50% से अधिक आरक्षण हो जाने की वजह से यह लागू नहीं हो सकता. 

हालाँकि, संविधान के आर्टिकल 15 के क्लॉज़(4) में कहा गया है कि राज्य सरकारें सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गों के लिए कोई ‘विशेष’ उपाय कर सकती हैं, जिससे वह समाज में आगे बढ़ सकें. बावजूद इसके तमाम किन्तु-परन्तु होने हैं तो आरक्षण की लड़ाई भी उलझने ही वाली है, क्योंकि आरक्षण अब सामाजिक संतुलन की बजाय पूरी तरह 'राजनीतिक चंगुल' में फंस चुका है. इस बीच यह जरूर ही विचार किया जाना चाहिए कि जब आज़ादी के बाद आरक्षण के लिए 10 वर्ष का समय तय किया गया था, तो इसे 'अनंतकाल तक बढ़ाने से आखिर कौन से उद्देश्य पूरे किये जा रहे हैं? छह दशक गुजर गए,  और यूं देखा जाए तो न तो सरकारी नौकरियां बची हैं, न ही बची हुई सरकारी नौकरियां किसी आकर्षण का केन्द्र रह गई हैं! ऐसे में इन कुछ पदों के लिए समाज को आपस में लड़ाना कहाँ की बुद्धिमानी कही जा सकती है? अब वक्त आ गया है कि आरक्षण को राजनीति के चंगुल से निकालकर इसे समाज के हित में प्रयोग किया जाए, अन्यथा हमारे समाज को यह कितना नीचे ले जा सकती है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. इससे भी बड़ी बात यह है कि 'योग्यता' का संरक्षण नहीं करने से हम लगातार दुसरे देशों से पिछड़ते जा रहे हैं, जिसकी भरपाई करने का मन्त्र शायद ही किसी सुधारक के पास हो!

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5 टिप्पणियाँ

  1. मिथिलेश जी, सही कहा आपने। योग्यता को बढ़ावा मिलना चाहिए। तभी सही मायने में विकास सभव है।

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    1. धन्यवाद् ज्योति जी ...
      वस्तुतः, यह समस्या बेहद कठिन दौर में पहुँच गयी है.

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  2. आरक्षण के इस आंधी में समान्य वर्ग कमजोर होता जा रहा है . या तो आरक्षण को ख़त्म कर देना चाहिए या फिर इसके नियमों को फिर से संसोधित करना चाहिए

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  3. सहमत परन्तु कुछ बातें है जिन्हें सवर्णों को समझना होगा पहला अपमानजनक जातिसूचक शब्दों का प्रयोग बन्द करना होगा मेरे पास एक सन्देश आया था कि एक बच्चा अपनी माँ से कहता है कूड़े वाले आये हैं तो माँ टोकती है बेटा कूड़े वाले तो हम है वे तो सफाई वाले है उनका सम्मान करो यह मानसिकता हमें भी लानी होगी आरक्षण तो डाली है वृक्ष तो जातिगत भेदभाव है और दलितों को भी यह समझना होगा कि जिन्हें वे अपना आदर्श मानते हैं बाबा साहेब अम्बेडगर यदि आरक्षण होता तो उनके जीवन में संघर्ष नहीं होता और वे दलितों के मसीहा नहीं होते ।
    और दोनों मिलकर जिस दिन महाराणा प्रताप,महाराजा अग्रसेन और परशुराम का जन्मदिवस दलित बस्ती में और बाबा साहेब, ज्योतिबा फुले,बिसरा मुंडा का जन्मदिवस सवर्णों की बस्ती में मनाएंगे आरक्षण उस दिन अपनी अंतिम साँसे गिनना आरम्भ कर देगा

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    1. बहुत सकारात्मक बातें कहीं हैं आपने अनुराग जी ...
      उम्मीद और हमें इस बात का प्रयत्न करना होगा कि सामजिक भेदभाव समाप्त हो ताकि देश के विकास में सब एक साथ लगें!

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