भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास में पारिवारिक संघर्ष की कई कहानियां मिल जाएँगी, जो उत्थान और पतन की कई मिसालें बेहद स्पष्टता के साथ पेश करती हैं. महाभारत काल में कौरव-पांडवों की लड़ाई भला कौन नहीं जानता है, जिसने सत्ता-संघर्ष के अनगिनत पहलुओं को कुछ इस तरह उजागर किया जिसकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है. आज़ाद भारत में भी केंद्र के नेहरू-गांधी परिवार से लेकर तमाम राज्यों में सत्ता की खातिर पारिवारिक झगड़े होते ही रहे हैं. वस्तुतः राजनीति के अध्याय इतने उलझाऊ होते हैं कि उसमें संगठन की महत्ता सर्वोपरि होती है. बात जब राजनीतिक ताकत (Akhilesh Yadav, Shivpal Yadav, Political Article, Hindi, Power Game) प्राप्त करने की होती है तो संगठन की खातिर परिवार के तमाम धड़े एक-दूसरे से जुड़ते हैं किन्तु ज्योंही सत्ता की प्राप्ति होती है, उसकी छीनाझपटी में संगठन का बिखराव भी शुरू हो जाता है. राजनीतिक जगत के पहलवान कहे जाने वाले मुलायम सिंह ने बड़ी खूबसूरती और चतुराई से पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय तक समाजवादी पार्टी और अपने परिवार का संगठन बनाये रखा है, किन्तु 2012 में जब पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तबसे ही इस पार्टी में पारिवारिक खींचतान शुरू हो गयी जो 2017 का चुनाव आते-आते फटने की स्थिति में पहुँच गयी है. राजनीति के क्षेत्र में ऐसे मौके दुर्लभतम ही हैं जो कई शक्ति-केंद्रों पर निर्भर हों, बल्कि बहुधा यही देखा जाता है कि एक ताकतवर व्यक्ति (या शक्ति-केंद्र) के इर्द-गिर्द ही राजनीति घूमती है. मुलायम सिंह यादव जैसा जो व्यक्ति ज़मीनी स्तर से उठा रहता है तो उसके पास स्वाभाविक रूप से ताकत निहित होती है, किन्तु अगर अखिलेश जैसे किसी व्यक्ति को बनी बनाई ताकत मिल जाए तो उस पर सर्वसम्मति बनना व्यवहारिक रूप से बेहद कठिन हो जाता है.
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हालाँकि, अखिलेश यादव के पास सीएम बनने के बाद चार साल का मौका था, जिसमें वह अपनी ज़मीन बना सकते थे, बिना किसी बगावत की परवाह किये पर अपने कार्यकाल का अधिकांश मौका उन्होंने "जी-हज़ूरी" करने में ही लगा दिया. अब साढ़े चार साल बाद जब उनको लगा कि मामला उनके नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है, तो वह आपा खोते नज़र आये. खैर, उनकी नाराज़गी स्वाभाविक ही थी, क्योंकि मुख़्तार अंसारी के भाई की पार्टी 'कौमी एकता दल' का उनकी इच्छा के विरुद्ध शिवपाल यादव ने सपा में विलय करा दिया. अखिलेश द्वारा काफी नाराज़गी दिखलाने के बाद उसका विलय रद्द भी हुआ तो फिर अफवाहें उड़ने लगीं कि 'कौएद' को सपा में फिर शामिल किया जा सकता है. ऐसे में बिचारे अखिलेश की इज्जत बचे भी तो कैसे (Akhilesh Yadav, Shivpal Yadav, Political Article, Hindi, Self Esteem) बचे? एक फैसला लेते नहीं कि उसकी वापसी का फरमान बिचारे को चार साल तक सुनना पड़ा. अमर सिंह, पूर्व मुख्य सचित दीपक सिंघल की नियुक्ति समेत ऐसे अनेक निर्णय आपको दिख जायेंगे, जिसमें अखिलेश का सीएम होना न होना एक बराबर ही महसूस होगा. पहली बार बिचारे ने शिवपाल यादव की मनमानी पर कैंची चलाने का साहस किया, और उसमें भी संगठन में मजबूत पकड़ रखने वाले शिवपाल के दांवों ने उसे पीछे हटने को मजबूर कर दिया. अखिलेश के लिए सकारात्मक बात यही रही कि इस बार अखिलेश से निपटने में शिवपाल यादव को न केवल अपने बेटे और पत्नी समेत इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र चलना पड़ा, बल्कि सपा के दूसरे कद्दावर नेता रामगोपाल यादव समेत खुद अखिलेश यादव के खिलाफ सड़क पर नारेबाजी तक करानी पड़ी. बेशक इस बार शिवपाल की चली है, किन्तु अब परिवार में उनकी छवि अखिलेश विरोधी के रूप में निश्चित ही बन जाएगी.
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आने वाले दिनों में टिकट बंटवारे का महत्वपूर्ण कार्य होना है और अखिलेश ने इसमें खुलकर अपना हक माँगा है तो ज़ाहिर है प्रदेशाध्यक्ष होने के बावजूद शिवपाल यादव इसमें अपनी मनमानी नहीं चला पाएंगे और एक-एक टिकट का मामला अंततः मुलायम सिंह के दरबार से ही फाइनल होगा. अगर आने वाले दिनों में सपा सत्ता में आती भी है तो अखिलेश ही ताकतवर होंगे और संभवत तब वह उस प्रकार से दब्बूपना नहीं दिखलायेंगे, जैसे इस बार दिखलाया है. हालिया विवाद से कहीं न कहीं उन लोगों की शिनाख्त भी हो ही गयी होगी जो शिवपाल गुट से सम्बंधित होंगे तो ऐसे लोगों को यादव परिवार के सदस्य (Akhilesh Yadav, Shivpal Yadav, Political Article, Hindi, Outer person) ख़ास राडार पर रखेंगे. इस पूरी उठापठक पर बारीकी से नज़र रखने वाले इस बात को समझ गए होंगे कि 'बाहरी' का ज़िक्र जिस तरह बार-बार हुआ है, वह न केवल अमर सिंह तक बल्कि हर उस व्यक्ति पर लागू होगा जो अखिलेश के विरोधी हैं. कहीं न कहीं इस विवाद से अखिलेश ने वह ताकत हासिल कर ली है कि यादव परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति पर वह अपना 'वीटो' लगा सकें. शिवपाल यादव के हालिया कदमों से लगा है कि वह तमाम किन्तु-परंतु के बावजूद सपा-नेतृत्व से अलग जाने का साहस नहीं दिखाएंगे. हाँ, अगर सपा अगले विधानसभा चुनाव में वापसी नहीं कर पाती है तो निश्चित रूप से सपाई राजनीति में खींचतान और बढ़ जाएगी.
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अखिलेश यादव की असल परीक्षा तभी होगी, क्योंकि संगठन की राजनीति का अभी उन्हें कुछ खास अनुभव नहीं है. जाहिर है शिवपाल यादव इसमें माहिर हैं, किन्तु उनके माहिर होने के बावजूद उनके पास 'छवि' का अभाव है और इसके लिए अपने 28 साल के बेटे आदित्य यादव को वह आगे कर रहे हैं. शिवपाल एक माहिर राजनेता हैं और यह बात वह बखूबी समझ चुके हैं कि अखिलेश के मुकाबले राजनीतिक अस्तित्व हेतु उन्हें अपने बेटे (Akhilesh Yadav, Shivpal Yadav, Political Article, Hindi, Aditya Yadav, Son of Shivpal Yadav) को मजबूती से आगे लाना ही होगा. यादव परिवार का होने के नाते, अखिलेश उन्हें बाहरी कह कर 'वीटो' भी नहीं कर सकते. हालाँकि, इस पूरे गेम में मुलायम सिंह की दूसरी बीवी के बेटे प्रतीक यादव और उनकी महत्वकांक्षी पत्नी अपर्णा यादव समेत और भी कई पेंच हैं, जिसे अखिलेश को सुलझाने होंगे और यह सारा कार्य उन्हें मुलायम सिंह की सक्रिय अवस्था में ही करने होंगे. देखना दिलचस्प होगा कि 'राजनीति' समझने का संकेत दे चुके अखिलेश यादव अपना ज़ज़्बा किस कदर कायम रख पाते हैं, सत्ता में भी और अगर विपक्ष का स्वाद मिले तब भी!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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