पुरानी कहावत है कि 'मूर्खों से विवाद में मत उलझो', अन्यथा पहले वह आपको अपने स्तर पर ले आएंगे और फिर अपने मूर्खतापूर्ण दावों, कृत्यों से आपकी खाट खड़ी कर देंगे! अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में 'पाकिस्तान' कमोबेश उसी मूर्ख की तरह है, जो भारत को हमेशा अपने स्तर पर लाने के लिए बेचैन रहता है पर पूरे भारत में शायद ही कोई बुद्धिजीवी हो जो पाकिस्तान को हमारे लिए बड़ी चुनौती मानता हो. बल्कि, भारत का शासन-प्रशासन और आम जनता तक इस तथ्य से वाकिफ हैं कि असल चुनौती 'चीन' है. थोड़ी और गहराई से कहा जाए तो 'चीन' से भी बड़ी चुनौती है कि दक्षिण एशिया में चल रहे 'अंतरराष्ट्रीय-गेम' के बड़े दावों से किस प्रकार संतुलन बिठाया जाए. इस पर चर्चा आगे की पंक्तियों में करेंगे, पहले कुछ और सम्बंधित बातों पर नज़र (Balochistan issue, Pakistan Terrorism, Jammu Kashmir, Modi Government, Hindi Article) डालते हैं. पिछले दिनों अपने एक बयान में सुषमा स्वराज ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को लताड़ लगाते हुए कहा कि अपनी घरेलु चुनौतियों से ध्यान हटाने के लिए नवाज़ ने 'कश्मीर मुद्दे' पर चिल्ल-पों करना शुरू किया. उनकी यह बात काफी हद तक सही है, किन्तु इसके साथ सच यह भी है कि 'कश्मीर मुद्दा' कोई आज का मुद्दा तो है नहीं और इसी के इर्द गिर्द दोनों देशों में कई लड़ाइयां भी छिड़ चुकी हैं. पाकिस्तानी शासक, जनरल और विचारक बार-बार यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत से पाकिस्तान कभी कश्मीर नहीं ले सकता है. यह स्थिति बड़ी साफ़ सी है, किन्तु इस बीच जो मूल प्रश्न उठता है वह सुषमा स्वराज के बयान में ही छिपा हुआ है कि जिस तरह अपनी घरेलु चुनौतियों से ध्यान भटकाने के लिए पाकिस्तान ने 'कश्मीर-कश्मीर' का शोर ज़ोरदार ढंग से मचाना शुरू किया, कहीं वैसे ही कश्मीर की आतंरिक समस्याओं से ध्यान हटाने भर के लिए ही मोदी सरकार ने 'बलूचिस्तान-बलूचिस्तान' का शोर तो नहीं मचाया?
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इस लेख की शुरूआती पंक्ति 'मूर्खों के स्तर' पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि कहीं न कहीं इससे हम पाकिस्तानी मंतव्यों को ही पूरा कर रहे हैं. क्या वाकई भारतीय विदेश नीति के अफसर इस बात को मान चुके हैं कि 'कश्मीर का जवाब बलूचिस्तान के माध्यम से दिया जा सकता है'? अगर वाकई ऐसा है तो यह 'मूर्खतापूर्ण' आंकलन है, क्योंकि दोनों समस्याएं और मुद्दे बिलकुल जुदा हैं. बेशक इसके लिए हम कितनी भी राष्ट्रवादी नारेबाजी क्यों न कर लें! कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान कितना भी शोरगुल मचाता था, किन्तु सच यही है कि उसकी किसी ने सुनी नहीं किन्तु बलूचिस्तान का मुद्दा पहले लाल-किले से और फिर अब संयुक्त-राष्ट्र में उठाकर भारत ने खुद ही कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का कार्य (Balochistan issue, Pakistan Terrorism, Jammu Kashmir, Modi Government, Hindi Article, International Politics) किया है. लाल किले से पीएम मोदी ने हल्की सी 'बलूचिस्तानी चिकोटी' काटकर पाकिस्तान के खिलाफ एक नया दांव ठीक ही फेंका और उसका असर भी हुआ, किन्तु इस मुद्दे पर भारत आखिर किस सहारे आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है? चीन पहले से पाकिस्तान के पक्ष में है और बलूचिस्तान में उसकी महत्वकांक्षी सीपीइसी (CPEC) इस रास्ते से गुजर रही है. पाकिस्तान और रूस रक्षा क्षेत्र में करीब आते जा रहे हैं और उनके बीच संयुक्त सैन्याभ्यास के नाम से ही अमेरिका सहित भारत चिंता में है. रही बात अमेरिका की तो उसने ऑफिशियल बयान दे दिया है कि अमेरिका पाकिस्तान की एकता-अखंडता का सम्मान करता है और किसी हाल में बलूचिस्तान की आज़ादी का समर्थन नहीं करता है. बताते चलें कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने साफ़ कहा है कि 'सरकार की नीति यह है कि हम पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन करते हैं और हम बलूचिस्तान की स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करते.' इस क्षेत्र का एक और मजबूत खिलाड़ी ईरान भी तमाम कारणों से बलूचिस्तान मामले में भारत का समर्थन किसी कीमत पर नहीं करने वाला है.
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साफ़ है कि बलूचिस्तान मुद्दे पर भारत 'चिकोटी' काटने से आगे नहीं बढ़ सकता, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से उसे प्रयास करना भी नहीं चाहिए. हाँ, अगर उसके खुफिया-तन्त्र में सामर्थ्य है तो जरूर वह अपनी गोटियां बिछाता रहे. ऐसे में, संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत एवं स्थायी प्रतिनिधि अजीत कुमार द्वारा 'बलूचिस्तान' का ज़िक्र करना तर्कसंगत नहीं लगता, बेशक वह मानवाधिकार का मुद्दा ही क्यों न हो! आप इसे एक बयान कह सकते हैं, मानवाधिकार का मुद्दा कह सकते हैं किन्तु एक तरह से यह बलूचिस्तान पर भारत का 'स्टैंड' बनता जा रहा है. सवाल वही है कि आगे हम किसके सहारे बढ़ेंगे और अगर नहीं बढ़ते हैं तो फिर संभावित 'किरकिरी' के लिए जिम्मेदार कौन होगा? सवाल कश्मीर को लेकर भी है कि एक और 'बलूचिस्तान का मोर्चा' खोलकर हम इसे किस प्रकार हल कर रहे हैं? यह सोचना एक और बड़ी बेवकूफी है कि 'कश्मीर' में सारी समस्याएं पाकिस्तान की ही भेजी हुई हैं. बेशक वह भड़काता है, पैसे भेजता है, अलगाववादियों को समर्थन (Balochistan issue, Pakistan Terrorism, Jammu Kashmir, Modi Government, Hindi Article, Policy) देता है किन्तु कश्मीर की असल समस्या पाकिस्तान के समर्थन से कहीं ज्यादा बड़ी है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इस मुद्दे को 'कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत' के रास्ते हल करने का सार्थक प्रयास किया था, जो वर्तमान केंद्र सरकार में कहीं नहीं दिखती है. इसी क्रम में अगर बिना किसी किन्तु-परंतु के कहा जाए तो कश्मीर-मुद्दे का भारत के लिए इतना ही समाधान है कि वहां सबसे पहले 'कश्मीरी पंडितों' की सुरक्षित बसावट की जाए. क्या वाकई इसके लिए हमें पाकिस्तान ने रोक रखा है? यह एक ऐसा कदम होगा, जो भारत सरकार के इक़बाल को कश्मीर में साबित करेगा, किन्तु दुर्भाग्य से मोदी सरकार इस मामले में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है और बेवजह दुनिया भर की राजनीति करके वाहवाही लूटना चाहती है. अरे अगर राजनीति ही करनी थी तो 'कांग्रेस' क्या बुरी थी?
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किसी वरिष्ठ विद्वान ने मुझसे दिल्ली की केजरीवाल सरकार पर हुई चर्चा के सन्दर्भ में कहा कि अगर केजरीवाल को भी शराब की दुकान खोलनी थी, वोट-बैंक की राजनीति की 'नक़ल' ही करनी थी तो 'कांग्रेस और भाजपा' क्या बुरी थी! आखिर नक़ल कितना भी हो, असल से कमतर ही होता है. इसी सन्दर्भ को अगर हम वर्तमान केंद्र सरकार पर लागू करते हैं तो देखते हैं कि कम से कम 'कश्मीर नीति' पर वह ऐसा कुछ भी नहीं कर रही है जो लंबे समय के लिए हितकारी हो. ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बलूचिस्तान मुद्दे को राष्ट्रवाद से जोड़कर 2019 की खिंचड़ी पकने की बात विचार कर रहे हैं, किन्तु यकीन मानिये इससे कश्मीर मुद्दे का हल नहीं ही होगा. यूं भी बलूचिस्तान से न हमारी सीमाएं सटी हैं जैसा बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) की स्थिति में था, तो सैन्य-हस्तक्षेप की गुंजाइश दूर-दूर तक नहीं दिखती है (Balochistan issue, Pakistan Terrorism, Jammu Kashmir, Modi Government, Hindi Article, Military Action as Bangladesh). बेहतर होगा कि 'कश्मीर' पर भारत अपनी पकड़ और मजबूत करे, ताकि महीनों-महीनों 'कर्फ्यू' वाली स्थिति से भविष्य में बचा जा सके तो 'कश्मीरी पंडितों' के रास्ते से जनसांख्यकीय-संतुलन को अपने पक्ष में करने हेतु 'पूर्व सैनिकों', भारत के अन्य क्षेत्रों के मजदूरों, व्यापारिक घरानों को वहां घुसाए. रोजगार के नाम पर ही सही, वहां उद्योग-धंधे लगाने की पहल की जाए ताकि इतिहास इस पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार को 'कश्मीर समस्या' का हल करने वाले के रूप में नाम ले, न कि बलूचिस्तान जैसे इधर-उधर मोर्चे खोलने को लेकर! हमें कश्मीर में 'अच्छे दिन' चाहिए मोदीजी और इसलिए इस पर अपने किये गए वादे को पूरा करने की दिशा में कदम बढाइये! हमें वाकई इसी का इन्तेजार है ... हम सभी भारतवासियों को!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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