कहते हैं कि चूल्हे पर भोजन आराम से पकाना चाहिए, स्वाद बढ़िया हो जाता है! लेकिन, ज्यादा पकाने से भी भोजन के जल जाने का खतरा बन जाता है. कुछ ऐसा ही चतुर महबूबा मुफ़्ती के साथ हुआ लगता है! जम्मू कश्मीर में मुफ़्ती मोहम्मद सईद के मरहूम हो जाने के बाद हालात इतने ज्यादा उलझ गए हैं, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी! छन- छनकर जो बातें सामने आ रही हैं, उसके अनुसार महबूबा मुफ़्ती जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री बनने की जल्दबाजी में नहीं हैं, तो इसके साथ वह भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से किन्हीं बातों पर आश्वासन चाहती हैं, साथ ही साथ वह पाकिस्तान से बातचीत को लेकर केंद्र के ऊपर किसी अन्य तरह का आश्वासन भी चाहती हैं! आप गौर से देखें तो इनमें से कोई भी बात राजनीतिक नहीं है और इनसे साफ़ जो सन्देश निकलकर सामने आ रहा है, वह यही है कि मामले में पीडीपी की ओर से जबरदस्त ढंग से टालमटोल की जा रही है, जिसका नतीजा मध्यावधि चुनाव ही है. हालाँकि ऊपरी तौर पर कहा यही जा रहा है कि महबूबा अपने पिता के सपनों के लिए कार्य कर रही हैं, लेकिन यह साफ़ नज़र आ रहा है कि हुर्रियत से लेकर पाकिस्तान तक को साधने के प्रयास में महबूबा अपने पिता के सपनों के साथ साथ अपनी पार्टी के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर रही हैं! थोड़ा पीछे जाएँ तो, सन 2002 में जब पहली बार पीडीपी की सरकार कश्मीर में बनी तो लोग मेहबूबा की जगह मुफ़्ती साहब को बजीरे आला देखकर हैरान थे क्योंकि तब कश्मीर में लोगों ने मेहबूबा की पीडीपी को वोट दिया था, ऐसा आंकलन मीडिया में खूब प्रचलित हुआ. तब कहा गया कि कांग्रेस की जिद के कारण मेहबूबा मुफ़्ती के बजाय मुफ़्ती साहब को गठबंधन सरकार की कमान मिली थी.
इस पूरे वाकये से समझा जा सकता है कि महबूबा की अपनी पार्टी पर पकड़ कितनी मजबूत थी, जो कालांतर में और भी मजबूत होती गयी. हालाँकि, इसके बाद जब मुफ़्ती मोहम्मद भाजपा के साथ गठबंधन में मुख्यमंत्री बने तब महबूबा परदे के पीछे भाजपा नेतृत्व और अलगाववादियों के बीच पूल की तरह कार्य करती नज़र आयीं. बीच में कुछ अलगाववादियों को जब 'जे एंड के सरकार' ने नज़रबंद किया तब महबूबा ने हस्तक्षेप करके इस निर्णय को पलटा भी था. ऐसे में आज जो यक्ष प्रश्न उठता है, वह यह है कि आखिर महबूबा जैसी राजनेत्री को इतनी भी क्या समस्या आ गयी कि वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी नज़र आ रही है! क्या उन्हें यह नहीं पता है कि अगर मध्यावधि चुनाव होते भी हैं तो पीडीपी के लिए जो स्थिति आज है, उससे बेहतर स्थिति की कल्पना बड़े से बड़ा आशावादी भी नहीं कर सकता! अगर कल, फिर जम्मू और कश्मीर में ऐसी ही त्रिकोणीय स्थिति पेश आती है, तब महबूबा का रूख कितना अलग होगा? आखिर, 10 महीने चली पीडीपी-बीजेपी हुकूमत मुफ़्ती साहब के बाद क्यों नहीं चल पा रही है ये एक बड़ा सवाल है! इस पूरी उहापोह से यूँ कहे कि मामला, बीजेपी बनाम पीडीपी से हटकर जम्मू बनाम कश्मीर में तब्दील होता जा रहा है! जाहिर है कि पिछले साठ वर्षो के कश्मीर केंद्रित सियासत को जम्मू रीजन से पहली बार चुनौती मिली है, जिसके आगे भी जारी रहने की उम्मीद कहीं ज्यादा मजबूत दिखती है! असल सवाल यही उलझ जाता है कि इस पूरी खींचतान में आम लोगों की परेशानी बढ़ती ही जा रही है. अपने पिता के अचानक देहावसान के बात महबूबा के पास जो सबसे बढ़िया रास्ता था, उसमें वह अगले पांच साल एक बेहतर कश्मीर का मॉडल प्रस्तुत कर सकती थीं लेकिन उन्होंने खुद को बेवजह उलझा लिया है!
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस उलझन और उससे आगे बढ़कर जम्मू और कश्मीर दोनों क्षेत्रों के बीच सत्ता संतुलन साधने में वह खुद को नर्वस महसूस करना छोड़ेंगी और अपनी पार्टी के साथ-साथ जनता के बेहतर भविष्य के लिए आने वाले समय में मजबूती के साथ कार्य करेंगी! मेहबूबा मुफ़्ती के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वह उनका यह मानना कि वह सॉफ्ट सेप्रेटिजम के एजेंडे के सहारे खुद की पहचान मानती रही हैं. जब तक उनके पिता जीवित थे तो वह दोनों एजेंडे यानी सरकार चलाना और अलगाववादियों को भी संतुलित करने का यत्न करती रहीं, किन्तु अब जब उनके ही कन्धों पर सारा भार आ गया है, उनके लिए यह अग्निपरीक्षा की घड़ी आ गयी है! बीच में ऐसी भी खबरें सामने आयीं कि महबूबा अपने भाई या फिर पीडीपी के ही किसी वरिष्ठ को मुख्यमंत्री पद की कमान दे सकती हैं. यह सुगबुगाहट इसलिए भी समाप्त हो गयी, क्योंकि महबूबा के अतिरिक्त कोई भी इस घाटी राज्य में सीएम बने वह महबूबा के रिमोट कंट्रोल से ही चलेगा और सारा राजनीतिक प्रबंधन, यहाँ तक कि छवि भी महबूबा की ही रहेगी! ऐसे में वह किसी भी बैक एजेंडे को उनके लिए चला पाना और भी मुश्किल होगा! 2002 की पीडीपी हुकूमत में अपनी पॉलिसी के जरिये मुफ़्ती सईद ने हुर्रियत के लीडरो को अपनी ज़मीन तलाशने पर मजबूर कर दिया था और उनकी हैसियत समाज में पाकिस्तान के एजेंट के तौर पर रह गयी थी. हालाँकि, बाद के दौर में उन्हें कई ऐसे मौके मिले जिसमे उन्होंने दुबारा अपने को स्थापित किया.
साफ़ है कि जब-जब कश्मीर में जम्हूरियत मजबूत होगी संवैधानिक शासन का जोर होगा तो अलगाववाद कमजोर होगा, जो प्रयोग मुफ़्ती साहब ने कर दिखाया था. ऐसा प्रतीत होता है कि इस साहस का अभाव महबूबा मुफ़्ती में कहीं घर कर गया है. इस पूरे प्रकरण में भाजपा दम साधे इन्तेजार कर रही है, जो उसके लिए उचित भी है! साफ़ तौर पर इस पूरी उहापोह में उसके लिए कुछ ख़ास करने को नहीं है! हालाँकि, कई लोग यह आंकलन करने में जुटे हुए हैं कि इस राज्य में पीडीपी के इंकार के बाद भाजपा अल्पमत की सरकार का गठन कर सकती है. अगर ऐसा होता है तो यह सांकेतिक भर ही होगा, क्योंकि इसके बाद चुनाव लगभग तय ही माने जायेंगे! वैसे नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला भाजपा पर डोरे डाल रहे हैं, लेकिन भाजपा उसके साथ इसलिए नहीं जाना चाहेगी, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में नेकां को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था और अगर उसके साथ भाजपा कोई मेलजोल करती है तो घाटी के लोगों में गलत सन्देश जाने का खतरा रहेगा! हालाँकि, यह पूरा समीकरण सिर्फ और सिर्फ महबूबा मुफ़्ती का उलझाया हुआ प्रतीत होता है, जो शुरुआत में तो एक अच्छा दांव था भाजपा पर दबाव बनाने का, लेकिन समय गुजरने के साथ दबाव महबूबा पर ज्यादा बढ़ गया लगता है! भाजपा बेहद परिपक्वता के साथ कदम बढ़ा रही है, लेकिन 'महबूबा' के जाल से भला कौन बच पाया है!
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