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भारत के वर्तमान सैन्य विकल्प एवं 'एटॉमिक फियर' से मुक्ति! Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan, China Atomic War, Real Strength, Indian Army, Foreign Policy, Citizen's Responsibility



कश्मीर स्थित उरी में आतंकियों के माध्यम से एक बार फिर पाकिस्तान ने हमारे 17 निर्दोष जवानों को मौत के मुंह में धकेल दिया है. सारा देश क्रोध से उबल रहा है, तो सरकार सहित तमाम मीडिया संस्थान घटना का विभिन्न स्तर पर लेखा-जोखा कर रहे हैं. इस हमले के बाद लगातार मैंने भी तमाम भारतीय नागरिकों की तरह विभिन्न अपडेट्स पर नज़रें जमाएं रखीं, ऐतिहासिक सन्दर्भ में वर्तमान विश्लेषण पढ़े, देश-विदेश के जिम्मेदार पदाधिकारियों के बयान सुने, किन्तु दुर्भाग्य से कुछ ऐसा 'ठोस' दिखा नहीं, जिससे आश्वस्त हुआ जा सके (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan)! शायद ही किसी भारतीय नागरिक की 'बुद्धि' उसे कहेगी कि ऐसे मामलों का हल तुरंत निकल सकता है, किन्तु आज नहीं, बल्कि आज के दस साल बाद ही हमारे हालात किस प्रकार भिन्न होंगे, इस बाबत प्रयास तो होना ही चाहिए. चूंकि, ऐसे समय संस्थानों की आलोचना उचित नहीं है पर कुछ बातें हैं जिनसे हमें अपनी आँखें नहीं चुरानी चाहिए. राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा विषय देश के लिए किसी भी अन्य विषय से महत्वपूर्ण है और इसलिए हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार करने का प्रयत्न इस लेख में करने की कोशिश की गयी है.

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पाकिस्तानी आतंक के सन्दर्भ में वर्तमान भारतीय विकल्प: उरी अटैक के बाद, यूं तो कहने को हमारे पास सीमित क्षेत्र में 'स्पीडी एक्शन' करने से लेकर, पाकिस्तान से राजनयिक-सम्बन्ध तोड़ने तक का विकल्प है, किन्तु सच्चाई यही है कि एक तो सरकार इन्हें आजमाने के मूड में अभी दिख नहीं रही है और अगर इन्हें आजमाया भी गया तो कुछ खास फायदा नहीं ही होगा. न तो तात्कालिक और न ही दीर्घकालिक, बल्कि यह 'खिसियानी बिल्ली, खम्बा नोचे' वाला एक्शन होगा. तो सवाल है कि तात्कालिक रूप से किया क्या जाय? कई जगह ऐसी खबरें दिखीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रक्षामंत्री को रूखे स्वर में सलाह दी है कि वह गोवा में कम और सीमा-सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दें. बताते चलें कि आने वाले गोवा चुनाव में हमारे रक्षामंत्री साहब कुछ ज्यादा ही रुचि दर्शा रहे थे. खैर, पीएम की इसी सलाह के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो पिछले साल मणिपुर के चंदेल ज़िले में सेना के काफिले पर घात लगाकर नागा विद्रोहियों द्वारा किए गए हमले में 18 सैनिकों के मारे जाने की याद बरबस ही आ जाती है. हालाँकि उसके बाद बर्मा की सीमा में घुसकर कार्रवाई की बात सामने आयी थी, किन्तु क्या सच में हमने उस हमले से कुछ सीखा है? पूर्व थल सेनाध्यक्ष और वर्तमान विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह ने भी बेहद सावधानी से कहा है कि ‘सेना को काफी नजदीक से देखे होने के कारण मेरा मानना है कि यह विश्लेषण करने की जरूरत है कि वहां क्या हुआ. जांच करने की जरूरत है कि कैसे घटना हुई और क्या खामियां रहीं.’’ कुछेक और रक्षा विशेषज्ञ इस बात को बताते दिख रहे हैं कि उरी में आतंकियों के अटैक में सीधे रूप से एक या दो सैनिक ही मरे होंगे, जबकि आग लग जाने से ज्यादा सैनिक हताहत हुए हैं. 




थोड़ी साफगोई से कहा जाए तो वर्तमान में हमारे पास यही विकल्प है कि 'सैन्य पुनर्गठन' की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए, जो आने वाले कई दशकों तक प्रासांगिक रह सके. चीन बेहद चतुराई से अपनी सेना का पुनर्गठन करना शुरू कर चुका है, जिसके लिए उसने 2 लाख से ज्यादा सैनिकों की संख्या जरूर घटाई है, किन्तु आधुनिकता के अनुसार बाकियों की एफिसिएंसी पर जबरदस्त ढंग से कार्य कर रहा है. पिछले दिनों ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिसमें 'सोशल मीडिया', 'हनी ट्रैप' इत्यादि माध्यमों से सेना के भीतर से ही सूचनाएं लीक हुई हैं और संभवतः 'उरी हमले' में भी ऐसा होने की गुंजाइश दिख रही है. हमारे देश का हर नौजवान देश के लिए जान देता रहा है, किन्तु क्या वाकई हम 80 के दशक की लड़ाई के मेथड को 2016 में सफल होने की उम्मीद कर सकते हैं? या फिर बदली परिस्थितियों में हमें 'री-स्ट्रक्चर' (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan, China Atomic War, Re structuring of Indian Army) होने की जरूरत है. इसके साथ कठोरता से यह बात भी महसूस की जा रही है कि हमारा इंटेलिजेंस सिस्टम, खासकर देश के भीतर का कई बार 'मौसम विभाग' से प्रेरित हो जाता है. साफ़ तौर पर इसे 'सटीक' एवं 'ज्यादा सक्षम' बनाने की जरूरत है. रक्षामंत्री साहब को 'सैन्य पुनर्गठन' के साथ-साथ 'ख़ुफ़िया-तंत्र' को 'शार्प' करने पर ज़ोर देना होगा और निश्चित तौर पर यह 'राफेल विमान' सौदे से कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है. बाकी जो 'ड्रामेबाजी' विदेश - नीति के मोर्चे पर की जा रही है, गुट निरपेक्षता की नीति से किनारा किया ही जा रहा है तो उसके बदले ठोस 'सौदेबाजी' की जाए. जाने माने सुरक्षा विशेषज्ञ ब्रूस रिडेल जो ओबामा सहित चार और अमेरिकी राष्ट्रपतियों के सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं, उनका बयान कहीं देखा कि अगर भारत, पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य विकल्प आजमाता है तो अमेरिका द्वारा इसका समर्थन करने की बजाय विरोध करने की सम्भावना ही अधिक है. तो विधिवत विश्लेषण करने पर वर्तमान और भविष्य की खातिर 'सैन्य पुनर्गठन', 'खुफ़िया-तंत्र' की धारदार मजबूती और ठोस परिणामों पर आधारित 'विदेश-नीति' ही आजमाई जा सकती है, जो हमें आने वाले समय में सशक्त बना सकते हैं.                                                      

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परमाणु खतरे से आगे की सोच का मतलब: साइंस का विद्यार्थी होने के नाते मैं यह बात भली-भांति समझता हूँ कि आज एक हजार किलो से थोड़ा बड़ा नाभिकीय हथियार भी इतनी ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है जितनी कई अरब किलो के परम्परागत विस्फोटकों से भी उत्पन्न नहीं हो सकती है. शायद इसीलिए नाभिकीय हथियार महाविनाशकारी हथियार भी कहे जाते हैं. इस कड़ी में, कई बार विचार के स्तर पर सोचने से यह बात उलझ जाती है कि अमेरिका, चीन, रूस या फ़्रांस, ब्रिटेन जैसे देश 'परमाणु युद्ध' की स्थिति से निपटने की तैयारी में नहीं जुटे होंगे. जापान जैसा देश तो आज से 70 साल पहले ही इस युद्ध की विभीषिका से कुशलतापूर्वक उबर चुका है और आज तो उसकी तैयारी और भी आगे होगी. ऐसे में, भला हम क्यों यह मान लें कि आने वाले भविष्य में 'परमाणु युद्ध' होगा ही नहीं? खासकर भारत पर तो 'परमाणु-युद्ध' के दो मजबूत खतरे हैं, एक धर्मांध पाकिस्तान, तो दूसरी ओर विस्तारवादी चीन है. अगर युद्ध न हो भी तो क्या हमें इस 'एटॉमिक फियर' से आगे बढ़कर 'जीतने' की ओर दृष्टि नहीं जमानी चाहिए? कुछ फैक्ट्स पर बात करें तो पिछले दिनों नार्थ-कोरिया के परमाणु परीक्षण से दक्षिण कोरिया, जापान समेत अमेरिका इत्यादि खूब परेशान दिखे. ऐसे में, यूएनओ की फॉर्मलिटीज, अमेरिका की पालिसी से आगे बढ़कर एक ख़बर बड़ी तेजी से फैली कि अगर दक्षिण कोरिया को ज़रा भी भनक लगी कि उत्तर कोरिया उस पर परमाणु हमला करने वाला है तो साउथ कोरिया ने ऐसी नीति तैयार रखी है कि मात्र कुछ ही पलों में 'प्योंगयांग' को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा. क्या भारत भी परमाणु हमले की हालात में इस्लामाबाद-करांची, बीजिंग इत्यादि को कुछ ही पलों में मटियामेट करने की काउंटर तैयारी रखे हुए है? अगर हाँ, तो पाकिस्तान जो बार-बार परमाणु हमले की गीदड़ भभकी देता है तो इसके जवाब में क्या ऐसा ही काउंटर मीडिया-अटैक नहीं किया जाना चाहिए? 




नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस तरह रियो ओलंपिक 2016 में कम पदक जीतने पर अगले 20 सालों के लिए टास्क-फ़ोर्स का गठन कर दिया है, ठीक वैसे ही 'एटॉमिक फियर' से पार पाने की रणनीति पर भी दीर्घकालिक कार्य शुरू किया ही जाना चाहिए. कम से कम पाकिस्तान के खिलाफ तो खुलेआम रूप से तैयारी होनी चाहिए, बेशक इस पर कितना भी खर्च क्यों न हो. वैसे भी विमान, पनडुब्बी इत्यादि की खरीद में हम खर्च कर ही रहे हैं तो इस पर क्यों नहीं? न केवल इस पॉइंट पर, बल्कि अमेरिका-जापान जैसे देशों से बढ़ते संबंधों के बीच हमें उनके साथ साझा वैज्ञानिक रिसर्च भी करने पर ज़ोर देना चाहिए कि 'परमाणु हमले को निष्फल कैसे किया जाए'? अथवा अगर परमाणु हमला हो गया तो उसका प्रभाव किस प्रकार नियंत्रित किया जाए? भारत के पास 'ब्रह्मोस, अग्नि, सागरिका, सूर्या (संभावित रूप से निर्माणाधीन)' जैसी घातक मिसाइलें (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan, China Atomic War, Misael Techniques) हो सकती हैं, किन्तु अगर दूसरा कोई हम पर हमला करता है तो ऐसे 'एंटी मिसाइल सिस्टम' पर और भी कार्य करने की आवश्यकता है. आखिर हासिल करने वाली 'चीजें' तो यही हैं न और इन तकनीकों के लिए अमेरिका से भारत को आगे बढ़कर 'सौदेबाजी' करना चाहिए. इसी की अगली कड़ी 'पुनर्वास' की है, जिसकी बेहतर सीख जापान से ली जा सकती है और न केवल सीख ली जाए, बल्कि इसके लिए 'एनडीआरफ' की एक विंग भी गठित की जाए. समझा जा सकता है कि इसमें असीमित धन और ऊर्जा खर्च होगी, किन्तु एक तरह से यह 'सैन्य तैयारी' ही तो है और जब तक 'एटॉमिक फियर' से हम पार नहीं पा लेते, आप 10 रूपये के सरकारी 'स्टाम्प-पेपर' पर लिखवा लीजिये, पाकिस्तान नामक नासूर से हमें मुक्ति नहीं मिलने वाली. मुक्ति तो शायद उसके बाद भी न मिले, किन्तु तब 'राहत' जरूर मिल सकती है. अगर पाकिस्तान सहित शेष दुनिया को पता चल जाए कि भारत 'परमाणु युद्ध' का मुकाबला कर सकता है तो मामला नियंत्रण में अवश्य ही आ सकता है. आज नहीं, दस-बीस या पचास सालों बाद ही सही! 

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जाहिर सी बात है कि इस बड़े खतरे का मुकाबला करने के लिए राजनीतिक रूप से समस्त भारत को एक स्वर में तैयार भी होना पड़ेगा. यह उस स्थिति में कदापि संभव न होगा कि कहीं दो प्रदेशों के लोग किसी नदी के जल के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लड़ मरें तो कहीं जाति-धर्म के नाम पर एक दूसरे को मार डालें. विभिन्न जायज़-नाजायज़ वजहों से लड़ने वाले लोगों को पता होना चाहिए कि इस बार उरी के आतंकी हमले में जो 18 जवान शहीद हुए हैं, वह जम्मू-कश्मीर, बिहार, झारखण्ड, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल से थे, तो समूचे भारतवर्ष में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र या जिला हो, जहाँ के सपूतों ने देश के लिए समय-समय पर अपने प्राण न्यौछावर न किये हों. फिर कभी हड़तालों में सरकारी संपत्ति जला देना, पटरियां उखाड़ देना किसी 'आतंकी घटना' से कम है क्या? आज जरूरत पड़ी है अपनी 'नस्लों' को बचाने की खातिर 'परमाणु युद्ध' जैसे हालातों से निपटने की तैयारी करने की और इतनी बड़ी तैयारी के लिए बेहद सशक्त और मजबूत 'इकॉनमी' चाहिए तो स्थिर समाज और राजनैतिक नेतृत्व की अनिवार्य शर्त से ही संभव है. राजनेताओं के लिहाज से एक और बात की, अगर 'चुनाव' की दृष्टि से ही यह कौम सोचती है, तो उस स्थिति में भी इन मुद्दों पर कार्य शुरू करने का बड़ा लाभ अन्य चुनावों सहित 2019 के आम चुनाव में मिल सकता है. इसके साथ इतिहास में 'नाम अमर' होने की गारंटी भी मिलेगी, क्योंकि आने वाली पीढ़ियों को तब शायद 'एटॉमिक फियर' से मुक्ति भी मिल जाए!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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