कश्मीर स्थित उरी में आतंकियों के माध्यम से एक बार फिर पाकिस्तान ने हमारे 17 निर्दोष जवानों को मौत के मुंह में धकेल दिया है. सारा देश क्रोध से उबल रहा है, तो सरकार सहित तमाम मीडिया संस्थान घटना का विभिन्न स्तर पर लेखा-जोखा कर रहे हैं. इस हमले के बाद लगातार मैंने भी तमाम भारतीय नागरिकों की तरह विभिन्न अपडेट्स पर नज़रें जमाएं रखीं, ऐतिहासिक सन्दर्भ में वर्तमान विश्लेषण पढ़े, देश-विदेश के जिम्मेदार पदाधिकारियों के बयान सुने, किन्तु दुर्भाग्य से कुछ ऐसा 'ठोस' दिखा नहीं, जिससे आश्वस्त हुआ जा सके (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan)! शायद ही किसी भारतीय नागरिक की 'बुद्धि' उसे कहेगी कि ऐसे मामलों का हल तुरंत निकल सकता है, किन्तु आज नहीं, बल्कि आज के दस साल बाद ही हमारे हालात किस प्रकार भिन्न होंगे, इस बाबत प्रयास तो होना ही चाहिए. चूंकि, ऐसे समय संस्थानों की आलोचना उचित नहीं है पर कुछ बातें हैं जिनसे हमें अपनी आँखें नहीं चुरानी चाहिए. राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा विषय देश के लिए किसी भी अन्य विषय से महत्वपूर्ण है और इसलिए हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार करने का प्रयत्न इस लेख में करने की कोशिश की गयी है.
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थोड़ी साफगोई से कहा जाए तो वर्तमान में हमारे पास यही विकल्प है कि 'सैन्य पुनर्गठन' की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए, जो आने वाले कई दशकों तक प्रासांगिक रह सके. चीन बेहद चतुराई से अपनी सेना का पुनर्गठन करना शुरू कर चुका है, जिसके लिए उसने 2 लाख से ज्यादा सैनिकों की संख्या जरूर घटाई है, किन्तु आधुनिकता के अनुसार बाकियों की एफिसिएंसी पर जबरदस्त ढंग से कार्य कर रहा है. पिछले दिनों ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिसमें 'सोशल मीडिया', 'हनी ट्रैप' इत्यादि माध्यमों से सेना के भीतर से ही सूचनाएं लीक हुई हैं और संभवतः 'उरी हमले' में भी ऐसा होने की गुंजाइश दिख रही है. हमारे देश का हर नौजवान देश के लिए जान देता रहा है, किन्तु क्या वाकई हम 80 के दशक की लड़ाई के मेथड को 2016 में सफल होने की उम्मीद कर सकते हैं? या फिर बदली परिस्थितियों में हमें 'री-स्ट्रक्चर' (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan, China Atomic War, Re structuring of Indian Army) होने की जरूरत है. इसके साथ कठोरता से यह बात भी महसूस की जा रही है कि हमारा इंटेलिजेंस सिस्टम, खासकर देश के भीतर का कई बार 'मौसम विभाग' से प्रेरित हो जाता है. साफ़ तौर पर इसे 'सटीक' एवं 'ज्यादा सक्षम' बनाने की जरूरत है. रक्षामंत्री साहब को 'सैन्य पुनर्गठन' के साथ-साथ 'ख़ुफ़िया-तंत्र' को 'शार्प' करने पर ज़ोर देना होगा और निश्चित तौर पर यह 'राफेल विमान' सौदे से कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है. बाकी जो 'ड्रामेबाजी' विदेश - नीति के मोर्चे पर की जा रही है, गुट निरपेक्षता की नीति से किनारा किया ही जा रहा है तो उसके बदले ठोस 'सौदेबाजी' की जाए. जाने माने सुरक्षा विशेषज्ञ ब्रूस रिडेल जो ओबामा सहित चार और अमेरिकी राष्ट्रपतियों के सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं, उनका बयान कहीं देखा कि अगर भारत, पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य विकल्प आजमाता है तो अमेरिका द्वारा इसका समर्थन करने की बजाय विरोध करने की सम्भावना ही अधिक है. तो विधिवत विश्लेषण करने पर वर्तमान और भविष्य की खातिर 'सैन्य पुनर्गठन', 'खुफ़िया-तंत्र' की धारदार मजबूती और ठोस परिणामों पर आधारित 'विदेश-नीति' ही आजमाई जा सकती है, जो हमें आने वाले समय में सशक्त बना सकते हैं.
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नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस तरह रियो ओलंपिक 2016 में कम पदक जीतने पर अगले 20 सालों के लिए टास्क-फ़ोर्स का गठन कर दिया है, ठीक वैसे ही 'एटॉमिक फियर' से पार पाने की रणनीति पर भी दीर्घकालिक कार्य शुरू किया ही जाना चाहिए. कम से कम पाकिस्तान के खिलाफ तो खुलेआम रूप से तैयारी होनी चाहिए, बेशक इस पर कितना भी खर्च क्यों न हो. वैसे भी विमान, पनडुब्बी इत्यादि की खरीद में हम खर्च कर ही रहे हैं तो इस पर क्यों नहीं? न केवल इस पॉइंट पर, बल्कि अमेरिका-जापान जैसे देशों से बढ़ते संबंधों के बीच हमें उनके साथ साझा वैज्ञानिक रिसर्च भी करने पर ज़ोर देना चाहिए कि 'परमाणु हमले को निष्फल कैसे किया जाए'? अथवा अगर परमाणु हमला हो गया तो उसका प्रभाव किस प्रकार नियंत्रित किया जाए? भारत के पास 'ब्रह्मोस, अग्नि, सागरिका, सूर्या (संभावित रूप से निर्माणाधीन)' जैसी घातक मिसाइलें (Uri attack news, Hindi Article, New, India, Pakistan, China Atomic War, Misael Techniques) हो सकती हैं, किन्तु अगर दूसरा कोई हम पर हमला करता है तो ऐसे 'एंटी मिसाइल सिस्टम' पर और भी कार्य करने की आवश्यकता है. आखिर हासिल करने वाली 'चीजें' तो यही हैं न और इन तकनीकों के लिए अमेरिका से भारत को आगे बढ़कर 'सौदेबाजी' करना चाहिए. इसी की अगली कड़ी 'पुनर्वास' की है, जिसकी बेहतर सीख जापान से ली जा सकती है और न केवल सीख ली जाए, बल्कि इसके लिए 'एनडीआरफ' की एक विंग भी गठित की जाए. समझा जा सकता है कि इसमें असीमित धन और ऊर्जा खर्च होगी, किन्तु एक तरह से यह 'सैन्य तैयारी' ही तो है और जब तक 'एटॉमिक फियर' से हम पार नहीं पा लेते, आप 10 रूपये के सरकारी 'स्टाम्प-पेपर' पर लिखवा लीजिये, पाकिस्तान नामक नासूर से हमें मुक्ति नहीं मिलने वाली. मुक्ति तो शायद उसके बाद भी न मिले, किन्तु तब 'राहत' जरूर मिल सकती है. अगर पाकिस्तान सहित शेष दुनिया को पता चल जाए कि भारत 'परमाणु युद्ध' का मुकाबला कर सकता है तो मामला नियंत्रण में अवश्य ही आ सकता है. आज नहीं, दस-बीस या पचास सालों बाद ही सही!
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- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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