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इस सामयिक विषय पर चर्चा वर्तमान में पूर्णतः न्यायोचित है, क्योंकि बदलते दौर में उद्देश्यपरक पत्रकारीय परंपराओं को याद करते हुए ही नए ज़माने में कदम बढ़ना चाहिए. पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों की रक्षा करते हुए हम किस प्रकार आगे बढ़ सकते हैं, अगर यह बात हम विचार करते हैं तो महात्मा गांधी के रुप में हमारे माने एक ऐसा चेहरा आता है, जिसने न केवल पत्रकारिता में बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में जो कहा, वह कर के दिखलाया भी. भारत के अंतरराष्ट्रीय ब्रांड अंबेसडर महात्मा गांधी ने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में कई कार्य किये हैं, जिन्हें गिनाये बिना शायद पत्रकारिता का इतिहास अधूरा रह जाए. वैसे कोई भी समाज सुधारक हो, अपनी बातों से जन जन तक पहुंचाने के लिए उसे प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष पत्रकार बनना ही पड़ता है और तभी सुविचारित तथ्य हम आगे बढ़ा पाते हैं. इस सम्बन्ध में जहाँ महात्मा गांधी के पत्रकारीय योगदानों को हमें क्रमवार देखने का प्रयत्न करना चाहिए, वहीं डिजिटल युग में पत्रकारों के सामने किस प्रकार की चुनौतियां हैं उसे भी समझने का प्रयत्न करना चाहिए. बहुत मुमकिन है कि गाँधी के पत्रकारीय उद्देश्यों को अगर हम आज के डिजिटल युग में ढालने का प्रयत्न करें तो फिर गांधी के 'रामराज्य' का उद्देश्य कुछ हद तक ही सही, पाया जा सकता है अथवा उसकी आस जगाई जा सकती है. Journalism of Mahatma Gandhi and Digital Media, Hindi Article, New, Journalist Mithilesh
पत्रकार महात्मा गाँधी
महात्मा गांधी जहां खुद हरिजन नामक पत्रिका निकालते थे, वहीं इस पत्रिका में तत्कालीन समस्याएं जैसे छुआछूत, धर्मांतरण इत्यादि पर भी साफगोई से अपना नजरिया रखते थे. उनके नित्य-प्रतिदिन लिखे गए लेखों से समाज आंदोलित होता था. वस्तुतः महात्मा गांधी को सिर्फ आजादी की लड़ाई का नेतृत्वकर्ता कह दिया जाना उनके साथ न्यायपूर्ण नहीं होगा, बल्कि सामाजिक समस्याओं से लड़ने में भी वह हमेशा अग्रणी रहे. जाहिर तौर पर इसमें उनका पत्रकार होना सबसे प्रमुख भूमिका में था. उनकी पत्रकारिता की बारीकियों को समझने का प्रयास किया जाए तो वह व्यावहारिक पत्रकारिता के स्तंभ कहे जा सकते हैं. गाँधी द्वारा परत्राकरिता के शुरुआत की बात की जाए तो जब महात्मा गांधी अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, उसी दौरान वहां की एक अदालत ने उन्हें कोर्ट परिसर में पगड़ी पहनने से मना कर दिया था. इस दोहरेपन का विरोध करते हुए गांधी ने तब डरबन के एक स्थानीय संपादक को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध प्रकट किया था, जिसको उस अखबार ने प्रकाशित भी किया था. तत्पश्चात, अफ्रीका प्रवास के दौरान उन्होंने ‘इन्डियन ओपिनियन’ के जरिए अपने सिद्धांतों की बात करते हुए देशवासियों के हित में आवाज उठायी. गांधी की निर्भीक पत्रकारिता से प्रभावित होकर अफ्रीका जैसे देश में, जहाँ रंगभेद चरम पर था, वहां पांच अलग-अलग भारतीय भाषाओं में इस अखबार का प्रकाशन होता रहा था. जाहिर तौर पर महात्मा गाँधी के इन पत्रकारीय मूल्यों की बार-बार बात होनी चाहिए. तब अन्य अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों में भी महात्मा गाँधी के तमाम लेख छपने लगे थे.
आज के समय में 'वायरल' शब्द बेहद तेजी से प्रचलित हुआ है. कोई वीडियो, कोई कंटेंट अथवा कोई फोटो तेजी से वायरल हो जाती है. कई बार तो उसे जाने माने पत्रकार भी ट्विटर पर पोस्ट कर देते हैं, किंतु बाद में पता चलता है कि वह खबर या संदर्भ फर्जी था. जाहिर तौर पर जितनी तेजी से डिजिटल मीडिया में पत्रकारिता बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से उसे अपनी विश्लेषण क्षमता भी सुधारने की आवश्यकता है. चूंकि, घड़ी की सुईया पीछे घूम नहीं सकती, तो क्यों ना हम उतनी ही तेजी से इस नए ज़माने की टेक्नोलॉजी पर अपनी पकड़ स्थापित करें. इसी सन्दर्भ में अगर हम सिटीजन जर्नलिज्म की बात नहीं करते हैं तो यह विषय अधूरा रह जाएगा. पहले जिसका लेख या रिपोर्ट अखबार, पत्रिका में छपती थी उसे ही पत्रकार, रिपोर्टर होने का तमगा हासिल था, किंतु वर्तमान में तो हर व्यक्ति ही नागरिक पत्रकार बनता जा रहा है. अब देखिए मैंने कोई खबर देखी, अपनी फेसबुक या अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया और उसे सैकड़ों, हजारों लोगों ने देखा, उस पर प्रतिक्रिया दर्ज की! क्या यह पत्रकारिता नहीं है? आज के समय में हर व्यक्ति पत्रकारिता के कुछ हिस्सों को निभा ही रहा है, वह कुछ न कुछ लिखता है, कुछ ना कुछ बताता है अथवा उसके द्वारा कोई वीडियो ही पोस्ट की जाती है. ऐसे में सवाल है कि क्या आज हर एक व्यक्ति को पत्रकारिता नहीं सीखनी चाहिए? क्या आज के समय में 'सिटीजन जर्नलिज्म' जैसे विषयों को पाठ्यक्रम में शुरू से ही शामिल नहीं किया जाना चाहिए. इस विषय पर मैंने एक विस्तृत लेख लिखा है कि 'स्टूडेंट्स के लिए ब्लॉगिंग जरूरी क्यों है'? हम माने या न माने किंतु कई ऐसे व्यक्ति हैं कि अगर वह फेसबुक पर या दूसरे माध्यम पर कुछ लिखते हैं और उन्हें कई हजार लोगों द्वारा देखा जाता है, फॉलो किया जाता है, उस पर रिएक्शन दिया जाता है. ऐसे लोग आखिर पत्रकार के ही तो एक रूप हैं. यह अलग बात है कि लोगों को क्या लिखना चाहिए, क्या पोस्ट करनी चाहिए और क्यों उन्हें यह करना चाहिए, इसे समझने में काफी प्रयत्न करना होगा. कुछ दशक पहले तक 'नैतिक शिक्षा' जैसे विषय हमारे पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाते थे, तो अब ऐसी ही जरूरत पत्रकारिता और लेखन को लेकर भी है, यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है. चूंकि, हर व्यक्ति पत्रकार की जिम्मेदारी जाने अनजाने में निभाता ही है और ऐसे में अगर उसके संदेश साफ और सही रूप में डिलीवर नहीं होंगे तो उससे कंफ्यूजन ही पैदा होगी और गलतफहमी कितनी घातक होती है, खासकर पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में इसे हम इस छोटी सी कथा से जोड़ सकते हैं. किसी गोष्ठी में गया था, जहाँ किसी विद्वान ने छोटी सी कथा सुनाई जिसके अनुसार-
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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गौर करने वाली बात यह है कि गांधी की पत्रकारिता में भारतीय मूल के लोगों की समस्याओं को हमेशा से ही शिद्दत से उठाया जाता रहा. उनकी पत्रकारिता प्रभाव इस कदर फैलने लगा था कि उनके लेखों से विचलित अफ्रीकी प्रशासन ने 1906 में उन्हें जोहांसबर्ग में एक जेल में बंद कर दिया तो, गांधी की सटीक लेखनी का लोहा मानते हुए किसी अंग्रेजी लेखक ने यहां तक कहा है कि 'गांधी के संपादकीय लेखों के वाक्य ‘थाट फॉर द डे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकते हैं.' दिलचस्प यह भी कि भाषाई अवरोध गांधी की पत्रकारिता में कभी आड़े नहीं आये. वह बेहद सहजता से समय और अवसर के अनुकूल हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में लेखन करते थे और पत्रकारिता का उद्देश्य 'जनजागरण' के लिए जुटे रहते थे. बाद में उन्होंने स्व-संपादन में ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन शुरू किया जो जनमासन के बीच काफी लोकप्रिय हुआ. बाद में इसका गुजराती संस्करण ‘नवजीवन’ के नाम से भी शुरू किया गया. इन बातों के अतिरिक्त, महात्मा गाँधी का जो सबसे बड़ा योगदान था, वह समाज के निचले तबके के प्रति गांधी की चिंता थी. पीड़ित-दलित-शोषित समाज की आवाज उठाने के उद्देश्य से उन्होंने समय-समय पर ‘हरिजन’ में विचारोत्तेजक लेख लिखे, जिसका तत्कालीन समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा. उनके लेख और पत्रकारीय उद्देश्य आज भी उतने ही सार्थक हैं, इस बात में दो राय नहीं! Journalism of Mahatma Gandhi and Digital Media, Hindi Article, New, Journalist Mithilesh
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डिजिटल युग की पत्रकारिता
सामाजिक समस्याओं को निष्पक्ष ढंग से उठाना और उन्हें समाधान की ओर प्रेरित करना बेहद आवश्यक रहा है और पत्रकारिता कमोबेश यही कार्य करती रही है. मनुष्य का मन मस्तिष्क तमाम मामलों में सटीक निर्णय ले सकता है, अगर उसे सही सूचना प्राप्त हो और पत्रकार बिरादरी वही तो करती है. समाजिक समस्याओं के साथ-साथ पत्रकारिता का जुड़ाव राजसत्ता और राजनीति से भी सीधा-सीधा माना जाता है, क्योंकि कई ऐसी नीतियां होती हैं, कई ऐसे कदम प्रशासन द्वारा उठाए जाते हैं जिनका प्रभाव / दुष्प्रभाव जनता पर पड़ता है. उसके पीछे के तथ्यों की विवेचना करना और सामने लाना वर्तमान पत्रकारिता के मूलभूत उद्देश्यों में गिनाया जा सकता है. हमारे देश में तमाम ऐसे कलमकार हुए हैं, पत्रकार हुए हैं जिन्होंने समय-समय पर अपनी आवाज से बुराइयों की दिशा बदली है तो प्रशासन को, राजनीति को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वह जनता के हितों में कार्य करें. महात्मा गाँधी का ज़िक्र इस सम्बन्ध में ऊपर किया ही जा चुका हैं. ऐसे में यह कहा जाना उचित होगा कि आज की पत्रकारिता "परंपरागत मीडिया और डिजिटल पत्रकारिता" के बीच झूल रही है. नए जमाने के लड़के डिजिटल माध्यमों से तो भिज्ञ हैं, किन्तु पत्रकारिता के उद्देश्यों को समझने में कहीं न कहीं उनसे चूक हो जाती है, जो कहीं ज्यादा सुर्खियां बटोरती है. डिजिटलाईजेशन की आपाधापी में कहीं ना कहीं पत्रकारिता के मूल्यों को समझने में थोड़ा बहुत ही सही, हम सभी को प्रयत्न करना चाहिए. आज हम अगर डिजिटल पत्रकारिता की बात करते हैं तो उसमें इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया और इंटरनेट प्रमुख रूप से आता है. डिजिटल पत्रकारिता और परंपरागत पत्रकारिता के बीच आज हम तुलना करते हैं देखते हैं कि पहले जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ती थीं तो उन चुनाव में पत्रकार ही राजनेताओं के मुख्य सलाहकार हुआ करते थे. इसका कारण यही था कि राजनेता के सन्देश को वह बेहतर ढंग से जनता को बता सकते थे, तो जनता का फीडबैक भी नेताओं को उनके द्वारा दिया जाता था. पर अब बदले हालात में उनके पास पत्रकार शायद कम होते हैं, किंतु सोशल मीडिया की टीम हर एक नेता के पास होती ही है. अभी पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा चुनाव आयोग द्वारा की गई है, तो आप देख सकते हैं कि हर एक पार्टी के अपने-अपने "डिजिटल स्ट्रैटेजिस्ट" हैं. कोई अमेरिका से आया हुआ रणनीतिकार है, तो कोई यहीं का देसी रणनीतिकार! पर वह सभी सोशल मीडिया और डिजिटल स्ट्रेटेजी बनाने में सिद्धस्त हैं. इससे इस क्षेत्र की रोज बढ़ रही महत्ता आप ही प्रमाणित हो जाती है. इसका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि जिस त्वरित गति से यह संदेशों को जन जन तक पहुंचाने में सक्षम हुई है, वैसी क्षमता आज दूसरे परंपरागत माध्यमों में नहीं रही है. इस बीच जो चीज छूट जाती है वह है तथ्यों की जांच पड़ताल करने का और उसमें नयी पीढ़ी के पत्रकार साथियों को अवश्य ही गौर फरमाना चाहिए. Journalism of Mahatma Gandhi and Digital Media, Hindi Article, New, Journalist Mithilesh
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किसी शहर में एक लेखक रहता था. गरीबी के दिन थे, वैसे भी पत्रकार और कलमकारों को गरीबी से बहुत हद तक जोड़ा जाता रहा है. ऐसे में उन लेखक महोदय के घर के सभी सामान बिक चुके थे, सेठ के पास गिरवी रखे जा चुके थे. कहीं से किसी कार्यक्रम में उन्हें एक ताम्र शील्ड मिली थी, जिस पर लिखा था "ठहरो, एक बार फिर सोचो!"
मजबूरी जो न कराये, गरीबी ने उसे भी गिरवी रखने का दिन ला दिया. सेठ के पास उसे लेकर पहुंचे, किन्तु उलट-पुलट कर देखने के बाद सेठ ने सोचा यह मेरे किसी काम का नहीं है, किन्तु पुराना ग्राहक था, इसलिए नाक-भौं सिकोड़ने के बाद सेठ ने उसे रख लिए और जो भी थोड़ा बहुत खाने पीने का सामान था, लेखक महोदय को दे दिया.
दरवाजे के बाहर उसने उसे लटका दिया!
संयोग से उस सेठ की भी गरीबी के दिन आ गए और उसे भी अपना काम धंधा बंद करके दूर देश कमाने जाना पड़ा. पत्नी और एक छूटे बच्चे को छोड़कर वह परदेस चला गया.
कई सालों बाद जब वह कमाकर घर लौटा तो घर लौटते-लौटते रात हो गयी.
दरवाजा खटखटाने पर भी नहीं खुला, तो उसने उत्सुकतावश रोशनदान से झांकने की कोशिश की. वहां उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी युवक के साथ गहरी नींद में सोई हुई है.
बड़ा क्रोध आया. उसने सोचा इसका काम तमाम कर दूं और जब दरवाजे को उसने तोड़ना चाहा तो दरवाजे पर लेखक महोदय द्वारा गिरवी रखे ताम्रपत्र पर उसकी नज़र पड़ गयी, जिस पर लिखा था
"ठहरो, एक बार फिर सोचो!"
जाने उसके दिमाग में क्या आया. वह वहीं बैठ गया और रात भर इंतजार करता रहा. सुबह उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला तो ख़ुशी के मारे उससे लिपट गयी और लाड़ जताते हुए बोली- 'आप यहां क्यों बैठे हैं?
सेठ का क्रोध झलक ही आया और बोला-
'नाटक करती है मेरे सामने!'
मेरे ना रहने पर तू क्या-क्या करती है? बता वह युवक कौन है, जो रात में तेरे साथ सोया था.
पत्नी पहले तो अवाक रह गयी, किन्तु उसने जवाब दिया कि-
'वह आपका ही बेटा है, जिसे आप 1 साल का छोड़ कर मेरे पास गए थे.' अब वह 15 साल का हो गया है!
जरा सोचिये, अगर सेठ ने ठहर कर सोचा नहीं होता तो उसके हाथों कितना बड़ा अनर्थ हो जाता!
हम पत्रकारों को भी उस ताम्रपत्र की सख्त आवश्यकता है. खासकर डिजिटल युग में, एक बार ठहर कर सोचने की!
हम जो लिखते हैं जो पोस्ट करते हैं वह बेहद तेजी से फैलता है और साथ में उसका प्रभाव भी. अगर वह बिना सोचे-समझे पोस्ट किया जाता है तो 'अनर्थकारी' हो जाता है, किन्तु अगर ... !! Journalism of Mahatma Gandhi and Digital Media, Hindi Article, New, Journalist Mithilesh
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पत्रकारिता और व्यवसाय
यह विषय आज बेहद जटिल बन चुका है, किन्तु मेरा मानना है कि हमें इस सम्बन्ध में एकतरफा आंकलन नहीं करना चाहिए. अर्थ और अर्थशास्त्र के बिना यह संसार नहीं चल सकता, किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में अर्थ से पहले 'धर्म' का स्थान बनाया गया है और पत्रकारिता का अपना धर्म हमें हमेशा ही याद रखना चाहिए. आज तमाम मीडिया संस्थान, व्यावसायिक संस्थानों में बदल चुके हैं, किन्तु डिजिटल माध्यम ने आपके सामने संभावनाओं के असीमित द्वार भी खोले हैं, जहाँ आप अपने धर्म का पालन सहजता से कर सकते हैं. हाँ, इसके लिए आपको लगातार और अनवरत सीखते रहना होगा और इसके अतिरक्त दूसरा कोई विकल्प आपके सामने है भी नहीं! इस विषय पर मैंने अपनी दूसरी ब्लॉग पोस्ट्स में डिटेल से लिखा है कि आप कैसे पत्रकारिता के उसूलों का पालन करते हुए अपना अर्थशास्त्र संतुलित रख सकते हैं. अगली पोस्ट्स में भी इस विषय पर चर्चा होगी...
तब तक के लिए 'नमस्कार'!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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