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पृथ्वी बचाने की कवायद में कितनी गम्भीरता? Hindi article on climate change and the world, Mithilesh

जलवायु परिवर्तन के बुरे परिणामों से मनुष्य के रहने योग्य एकमात्र ग्रह को बचाने की कवायद कोई नई नहीं है. इसके लिए पहले भी प्रयास होते ही रहे हैं, लेकिन इन प्रयासों में किस हद तक गम्भीरता है इस बात पर गाहे-बगाहे अवश्य ही प्रश्न उठते रहे हैं. पृथ्वी को बचाने के लिए तथा लोगों में जागरूकता फ़ैलाने के लिए पुरे विश्व के द्वारा 22 अप्रैल को अंतर्राष्ट्रीय अर्थ दिवस मनाया जाता है. हालाँकि, जब तक लोगों को यह ख्याल आया, तब तक धरती ने अपना रौद्र रूप धारण करना शुरू कर दिया था! कहा जा सकता है कि लोग धरती को नही बल्कि अपनी जान बचाने के लिए धरती दिवस मनाने को विवश हैं. यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अगर दुनिया वालों को प्रकृति द्वारा, इतने झटके नहीं लगते तो शायद ऐसी बातों का विचार भी लोगों के मन में नहीं आता. हालाँकि, अभी भी यह काफी हद तक औपचारिकता ही है, किन्तु वो कहते हैं न कि 'नहीं मामा से अच्छा काना मामा'! पूरा विश्व प्राकृतिक संपदाओं का इतनी बेरहमी से अंधाधुंध दोहन कर रहा है, जिसके फलस्वरूप सबको इसकी सजा भी मिल रही है. चाहे वह प्रचण्ड गर्मी के रूप हों या फिर सूखा, बाढ़, भूकम्प या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के रूप में मनुष्यों के समक्ष उपस्थित विनाशलीला ही क्यों न हो! ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही अचानक बदलते मौसम के मूड ने पूरे वैश्विक समुदाय को गहरी चिंता में डाल दिया है. इसी साल 2016 की बात करें तो, फरवरी में अप्रैल का मौसम दिखा और अप्रैल में मई जून का, तो सोचो मई जून का क्या होगा! धुआंधार कटाई से वनों का सिकुड़ता क्षेत्रफल जिसके कारण वन्य-जीव अब रिहायशी क्षेत्रों की ओर पलायन करने को मजबूर हो गये हैं तो कई विलुप्त भी हो गए हैं. शहरीकरण का बढ़ता दायरा, बड़े बड़े कल कारखाने की स्थापना, कृषियोग्य भूमि का दायरा सिकुड़ना, वन और वृक्षों की लगातार होती कटाई से पर्यावरण का संतुलन बुरी तरह बिगड़ गया है, जिसके कारण भारत और विश्व के कई अन्य देशों में अप्रैल के महीने से ही लोग पानी के लिए तरसने लगे हैं. इन्हीं समस्याओं से निपटने के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ में ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर अमेरिका समेत कुल 171 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें भारत भी शामिल है. 

भारत की तरफ से पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने इस सम्मेलन में शिरकत की और बाद में ट्वीट कर कहा ‘पेरिस समझौते पर भारत की तरफ से हस्ताक्षर करना अविस्मरणीय पल है'. इस समझौते का मुख्य मकसद है दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणामों से बचाना!  देखा जाय तो, पेरिस जलवायु समझौते में भारत की भागीदारी कई कोणों से अहम है. भारत ने धरती के बढ़ते तापमान का मुकाबला करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में पहले ही कटौती करना शुरू कर दिया है. इस बड़े सम्मेलन की सफलता इस मामले में जरूर कही जा सकती है कि वैश्विक संगठन के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी संधि पर पहले ही दिन एक साथ इतने सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए हैं. जैसाकि पिछले साल दिसंबर में फ्रांस की राजधानी पेरिस में ये सम्मलेन हुआ था और 150 से ज्यादा देशों के प्रमुखों की मौजूदगी में जलवायु समझौते पर सहमति भी बनाई गयी थी. इस बार भी दुनिया को बचाने के लिए 171 देशों ने एकजुटता तो दिखा दी है, लेकिन अब इन सभी देशों को अपने यहां से इस समझौते को मंजूरी दिलाने की चुनौती होगी. जलवायु परिवर्तन पर आयोजित इस हस्ताक्षर समारोह का संचालन संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने किया. उन्होंने दुनियाभर से आए नेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि अब वह समय बीत गया है जब हम परिणाम की चिंता किए बगैर खतरनाक गैसों का उत्सर्जन करते रहे हैं. उन्होंने कहा कि हमारी प्रतिस्पर्धा समय के साथ है और यदि हम चूके तो आने वाली पीढ़ी को इसका गंभीर खामियाजा भुगतना पड़ेगा. जाहिर है, बान की मून का बड़ा इशारा तथाकथित 'विकसित' देशों की तरफ ज्यादा रहा है, क्योंकि पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ने में भी उन्हीं का योगदान ज्यादा दिखता है. भारत ने भी कमोबेश ऐसी ही भाषा में कहा है कि 'पेरिस जलवायु संधि विकसित देशों के लिए परीक्षा होगी. इससे पता चलेगा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती और गरीबी उन्मूलन को लेकर उनकी कथनी और करनी एक जैसी रहती है या नहीं और विकासशील देशों को इसके लिए मदद उपलब्ध कराते हैं या नहीं'. साफ़ है कि अमेरिका, रूस, चीन और यूरोप के तमाम देशों को अपनी जिम्मेदारियों को आगे बढ़ कर निभाना ही होगा, अन्यथा इसके असफल परिणामों के लिए सर्वाधिक जवाबदेह भी वही होंगे. 

जहाँ तक विकासशील और गरीब देशों की बात है तो 'सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और विकसित देशों की ओर से मुहैया कराए गए धन के समुचित उपयोग को लेकर उन्हें ही सतर्क रहना होगा अन्यथा 'पनामा पेपर्स' जैसे तमाम स्कैम्स और टैक्स चोरी से यह धन पर्यावरण समस्याओं को दूर करे न करे, किन्तु 'भ्रष्टाचार और निकम्मेपन' को बढ़ावा ही दे देगा. जाहिर है, इसके लिए तमाम देशों को पारदर्शी व्यवस्था, खासकर राजनीति के क्षेत्र में बनानी ही होगी. जहाँ तक भारत का सवाल है तो भारत जैसे विकाशील देशों में अभी बहुत अधिक परिवर्तन की जरुरत है. इसी क्रम में, हर परिवार को बिजली की आपूर्ति की सरकारी योजना के तहत 2022 तक अपना नवीकरणीय विद्युत क्षमता चार गुणा बढाकर 175 गिगावाट करने की योजना की घोषणा की है तथा साथ ही जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण की चुनौती से निपटने की दिशा में सरकार ने अहम कदम बढ़ाया है. इसके साथ केंद्र ने बहुप्रतीक्षित क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण निधि (कैम्पा) विधेयक, 2015 में आधिकारिक संशोधनों को मंजूरी दी है. इस विधेयक के कानून का रूप लेने के बाद कैम्पा फंड में 40,000 करोड़ रुपये धनराशि के पारदर्शी और प्रभावी ढंग से खर्च होने का रास्ता साफ हो जाएगा. इस विशाल धनराशि पर हर साल करीब छह हजार करोड़ रुपये ब्याज भी इकठ्ठा होता है. आधिकारिक संशोधनोंं को शामिल करने के बाद सरकार द्वारा इस विधेयक को 25 अप्रैल से शुरू हो रहे संसद सत्र में पेश करने की योजना बताई जा रही है. 

भारत के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इसी हफ्ते के प्रारंभ में यहां के एक थिंक टैंक को संबोधित करते हुए कहा था कि अपनी विकास जरूरतों के बावजूद भारत जलवायु की सुरक्षा के लिए पूरी तरह कटिबद्ध है. इस सम्मेलन के दौरान एक दिल छूने वाला वाकया तब दिखा जब, संयुक्त राष्ट्र में ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर जब हस्ताक्षर करने अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी पहुंचे. वह अपने साथ, अपनी पोती को भी लाए थे. केरी लोगों को यह सन्देश देना चाहते थे कि हमारा यह कदम हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए कितना आवश्यक है. केरी को अपनी पोती को यहां लाने का इशारा साफ था कि आने वाली पीढ़ियों को जलवायु में हो रहे बदलावों के विनाशकारी परिणामों से दूर रखा जा सके. अब देखना ये है कि इतने बड़े पैमाने में तमाम राष्ट्र-प्रमुखों और अधिकारियों के जुटने के बाद कितने ठोस कदम उठाये जाते हैं, धरती के तापमान को कम करने में, तो किस हद तक विकसित देश मदद करते हैं ग्रीनहाउस गैसों को कम करने में और कैसे अपनी जरूरतों को कम कर विकासशील देश आगे आते हैं धरती को बचाने में! जाहिर है, जब सवाल अपनी अगली पीढ़ियों का हो तो कोई भी अपनी जिम्मेदारी से ज्यादा देर तक बचा नहीं रह सकता!

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