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कमजोर है स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियाद



इस बात में कोई शक नहीं है कि हमारे देश ने अनेक क्षेत्रों में धुआंधार प्रगति की है, जिसमें रक्षा, अंतरिक्ष, आर्थिक क्षेत्र समेत अन्य आंकड़े शामिल किये जा सकते हैं, लेकिन जब हम मनुष्य की बेसिक जरूरतों पर नजर दौड़ाते हैं तो मन बैठ जाता है. रोटी, कपड़ा, मकान के पैमाने पर भी देश की एक बड़ी आबादी खरी नहीं उतरती है तो स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में तो स्थिति उससे भी बुरी दिखती है. देश की सर्वाधिक आबादी वाला मध्यम वर्ग कम से कम रोटी, कपड़ा और मकान के मानकों पर ठीक ठाक तो है, लेकिन जब बात स्वास्थ्य सुविधाओं की आती है तो यह बड़ा हिस्सा भी बेहद लाचार दिखने लगता है. साधारण भाव से कहें तो अगर किसी के परिवार में एक व्यक्ति को छोटा मोटा भी रोग हो गया तो उसकी अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है और अगर कैंसर इत्यादि जैसा गंभीर रोग हो जाय तो फिर पहले उसकी संपत्ति जाती है, फिर उसकी जान. इन बातों से साफ़ जाहिर है कि बुनियादी स्वास्थ्य पर हमारे देश में गंभीर नीतियों का सर्वथा अभाव रहा है. जहाँ तक बात, आपातकाल में स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने की है तो इस एक प्रसंग से तस्वीर समझनी आसान हो जाएगी. पिछले सालों में जब पश्चिम बंगाल के एक अस्पताल में आग लगी और उसमें तमाम लोग हताहत हुए तो जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री का एक भावुक ट्वीट (या बयान) आया था कि 'अब मुझे यकीन हो गया है कि हम तीसरी दुनिया के देश में रहते हैं'. इस एक हादसे का उल्लेख यहाँ सिर्फ इसलिए किया गया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में तीसरी दुनिया के देश भारत पर एक नजर डाली जा सके, वरना ऐसे हादसे, स्वास्थ्य समस्याएं तो हमारे यहाँ बेहद आम बात हैं, होते ही रहते हैं वाले अंदाज में! 
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इमरजेंसी स्वास्थ्य समस्याओं पर एक और प्रकरण देखिये, पिछले दिनों जब स्वाइन फ़्लू का प्रकोप फैला तो दिल्ली जैसे शहर और उसके स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर ने अपने हाथ खड़े कर दिए. और तो और इस बीमारी के टेस्ट के नाम पर तमाम डायग्नोस्टिक सेंटर्स और अस्पतालों ने जमकर वसूली करनी शुरू कर दी तो तमाम कंपनियों और मेडिकल स्टोर्स ने वगैर किसी स्टैण्डर्ड के एक या दो रूपये के मास्क को सैकड़ों रूपयों में बेचा. लोगों में एक जबरदस्त खौफ पसर गया और सरकार से प्रशासन तक इस मामले पर काफी दिनों तक चुप्पी साधे रहे और बहुत दिनों के बाद सरकार ने टेस्टिंग से सम्बंधित कुछ दिशा-निर्देश जारी किये और जागरूकता के नाम पर एकाध होर्डिंग लगवाए. यही हालत आज भी है, जब डेंगू के कहर से दिल्ली जैसा विश्व स्तरीय शहर हलकान हो रहा है. कभी दिल्ली सरकार की उपलब्धियों के नाम पर तो कभी 'राष्ट्रपति के शिक्षक दिवस सम्बोधन' को ऐतिहासिक बताकर पूरी दिल्ली को गैर-जरूरी रूप से होर्डिंग-बैनरों से पाट देने वाली दिल्ली सरकार, डेंगू के बारे में जागरूकता फैलाने में कहीं नजर नहीं आ रही है, विशेषकर जब इसकी जरूरत थी. डेंगू को लेकर सरकार की तैयारी हर बार की तरह  इस बार भी बेहद कमजोर नजर आयी है. अगर आंकड़ों की बात की जाय तो, डेंगू के मामलों में दिल्ली में पिछले पांच साल का रिकॉर्ड टूट गया है. इस साल डेंगू मरीजों में न केवल 38 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है, बल्कि सरकारी अस्पतालों में एक बेड पर 3 -3 मरीज लेटे हुए हैं. आलम ये है कि अस्पताल के गलियारों में बेड लगाकर मरीज पड़े हैं, तो निजी अस्पतालों ने डेंगू मरीजों की भर्ती में ही आनाकानी करनी शुरू कर दी है. 
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साफ़ समझा जा सकता है कि अगर अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में बेड या इलाज की व्यवस्था होती तो कोई मासूम जिंदगी की जंग नहीं हारता, जैसा कि दिल्ली में हो रहा है. दिल्ली सरकार के अलावा, नगर निगम यह कहते हुए नए आंकड़ों के साथ सामने आया है कि 1-12 सितंबर के बीच 1041 मरीज डेंगू के परीक्षण में पोजिटिव पाए गए हैं जिनमें 613 मामले पिछले एक सप्ताह के हैं. पहली जनवरी से 12 सितंबर तक डेंगू के कुल 1872 मामले सामने आए जो पिछले पांच सालों में इस अवधि के दौरान के डेंगू के सर्वाधिक मामले हैं. वैसे निगम ने इस साल डेंगू से पांच मरीजों की मरने की बात कही है लेकिन विभिन्न अस्पतालों से प्राप्त आंकड़े ने उनकी संख्या नौ बताई है. नगर निगम की यह सफाई कतई स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि जब दिल्ली में हर साल डेंगू का प्रकोप अपने बुरे रूप में सामने आता है तो देश की राजधानी इस एक बिमारी की तैयारी में इतनी अक्षम क्यों दिखती है, हर बार... बार बार. हालाँकि, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के अस्पतालों का निरीक्षण किया और सभी अस्पतालों को हिदायत भी दी कि वे अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएं. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपने बयान में कहा कि अगर इमरजेंसी जैसे हालात पैदा होते हैं तो अस्थायी डाक्टरों की नियुक्ति की जाए और इसके साथ ही हजारों की संख्या में अतिरिक्त बेड लगाने की बात भी कही गयी. यहाँ सवाल उठता है कि यह सारे कदम मासूमों की ज़िंदगियाँ दांव पर लगाने के बाद ही क्यों उठाये जाते हैं, पहले क्यों नहीं? 
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क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री यह आश्वासन दे सकते हैं कि अगले कुछ महीनों में दिल्ली राज्य डेंगू और स्वाइन फ़्लू जैसे किसी अन्य खतरे से निपटने में पूरी तरह सक्षम होगा और कम से कम स्वास्थ्य सुविधाएं चरमरायेंगी नहीं. साफ़ है कि अगर देश की राजधानी की यह हालत है तो बाकी हिस्सों की चर्चा बेमानी ही है और साथ ही बेमानी है किसी सुपर-पावर की बात करना, क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामलों में हम तीसरी दुनिया के ही देश हैं और भविष्य में हम कब इससे ऊपर उठते हैं, इसकी जिम्मेवारी उठाने वाला कोई नहीं दिखता है, कम से कम अभी तो नहीं ही.... !! यह समस्या किसी एक राज्य भर की है ऐसा भी नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार के स्तर पर ही एकीकृत स्वास्थ्य नीतियों का अभाव है. वैश्विक आंकड़े इस सन्दर्भ में बेहद निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं. अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर सरकार द्वारा किये जाने वाले खर्च से यह पता चलता है कि वर्तमान समाज के वैश्विक राजनैतिक नेतृत्व जनस्वास्थ्य को लेकर कितने सजग हैं. अमेरिका जहां अपने सकल घरेलू उत्पादन का 16 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है वहीं भारत में सरकार 0.9 प्रतिशत के आसपास ही खर्च करती है. अन्य विकसित देशों में कनाडा 10 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया 9.2 प्रतिशत, बेल्जियम 10.1 प्रतिशत, डेनमार्क 8.9 प्रतिशत, फ्रांस 10.4 प्रतिशत, इटली 8.4, जापान 8 प्रतिशत, स्वीडन 9.3 प्रतिशत, इंग्लैंड 7.8 प्रतिशत खर्च स्वास्थ्य पर करते हैं. यहां तक कि श्रीलंका 1.8 प्रतिशत, बांग्लादेश 1.6 प्रतिशत और नेपाल अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर 1.5 प्रतिशत खर्च करते हैं. इस मामले पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (ब्ल्यूएचओ) ने 2011 में भारत को चेतावनी दी थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर भारत सरकार द्वारा मात्र 32 डॉलर प्रति व्यक्ति का खर्च स्वास्थ्य सुविधा की दयनीय दशा को दर्शाता है जिसके कारण देश गरीब और समृद्ध, दोनों वर्ग के लोगों को होने वाली बीमारियों के दोहरे बोझ का सामना कर रहा है. समझना आवश्यक है कि हम स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में कहाँ खड़े हैं. 
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चिकित्सकों के मामले में भी अभी हम बौने ही हैं. अमेरिका में जहां 300 व्यक्तियों पर 1 चिकित्सक उपलब्ध है वहीं भारत में 2000 व्यक्तियों पर एक चिकित्सक उपलब्ध है. सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलीजेंस के एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में 5,40,330 बिस्तर हैं. यदि जनसंख्या को हम एक अरब ही काउंट करें, तो प्रति 1850 व्यक्तियों के लिए सिर्फ एक बिस्तर उपलब्ध है. जबकि अफ्रीका में 1000 व्यक्तियों के लिए तथा यूरोप के देशों में 159 लोगों के लिए 1 बिस्तर उपलब्ध है. आज भी हमारे देश के अधिकांश जिलों में एमआरआई तथा सीटी स्केन जैसी जांच नहीं होती है, जबकि अति विशिष्ट चिकित्सक जैसे न्यूरो सर्जन, हार्ट स्पेशलिस्ट, हार्ट सर्जन, तथा नेफ्रोलाजिस्ट केवल चुनिंदा स्थानों पर ही उपलब्ध हैं. जाहिर है बुनियादी स्तर पर हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं बेहद कमजोर हालत में हैं. योजना के नाम पर केंद्र सरकार की राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन (National Rural Health Mission / एनआरएचएम) भारत सरकार की एक योजना जरूर है जिसका उद्देश्‍य देशभर में ग्रामीण परिवारों को बहुमूल्‍य स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं उपलब्‍ध कराना है. यह वर्तमान स्वास्थ्य योजनाओं को और जन स्वास्थ्य की अवस्था को सुधारने के लिए एक सरकारी योजना है, जो अप्रैल 2005 में लागू हुई है, मगर इसका प्रभाव आज 2015 में कहाँ है, यह साफ़ दिख रहा है. साफ़ यह भी दिख रहा है कि किस प्रकार ऐसी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं. सरकारें बदलीं, मगर स्वास्थ्य समस्याएं जस की तस ... !! काश! स्मार्ट सिटी जैसी परियोजना के साथ हमारे वर्तमान, दूरदर्शी प्रधानमंत्री लोगों के स्वास्थ्य के लिए 'स्मार्ट हेल्थ' के सम्बन्ध में भी सीधा ठोस कदम उठाते. हालाँकि, जनता को जागरूक करने के लिए 'इंटरनेशनल योगा डे' और 'स्वच्छ भारत' अभियान जरूरी शुरू किया गया है, मगर देश की जनता भी तो पक्की मिटटी की बनी हुई है, इतनी जल्दी जागरूक हो जाए तो बात न बन जाए. इस कड़ी में, आपात्कालीन स्वास्थ्य सेवायें हमारा जब और तब मजाक उड़ाती ही रहती हैं और पूछती हैं अरे ओ! विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था... देखो, तुम और तुम्हारे लोग अभी भी स्वास्थ्य मामलों में गंभीर रूप से पीड़ित हो! और हम ऐसे मजाकों का उत्तर दें भी तो किस प्रकार ... !! आपके पास है इसका उत्तर ... या यह 'ला-इलाज' बीमारी है, ईश्वर ही जाने ... !!
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