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यूपी विधानसभा चुनाव, राम मंदिर और मोदी - Ayodhya Ram Mandir issue, new hindi article by mithilesh, modi in action

जैसे-जैसे 2017 नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे चुनावी राजनीति के तमाम सिम्पटम्स दिखने लगे हैं. हालाँकि, अयोध्या का राममंदिर मुद्दा और आंदोलन प्रदेश की चुनावी राजनीति से कहीं ज्यादा अहमियत रखने वाला रहा है. न केवल प्रदेश की राजनीति में, बल्कि देश भर की राजनीति में अयोध्या और राम-मंदिर का एक खास महत्त्व है. कौन नहीं जानता है कि भगवान राम के नाम पर न केवल एक पार्टी सत्ता तक में काबिज हुई, बल्कि देश भर में एक अलग तरह की राजनीति का भी प्रकटीकरण और सशक्तिकरण हुआ. अगर कोर राममंदिर के मुद्दे की बात करें तो, सरयू नदी के दाएं तट पर बसा यह प्राचीन काल का 'कौशल देश' हिन्दुओं का प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में एक माना जाता है. इस प्राचीन नगर के अवशेष अब खंडहर के रूप में रह गए हैं जिसमें कहीं कहीं कुछ अच्छे मंदिर भी हैं. वर्तमान अयोध्या के प्राचीन मंदिरों में सीतारसोई तथा हनुमानगढ़ी मुख्य मंदिर हैं, तो कुछ मंदिर 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बने हैं जिनमें कनकभवन, नागेश्वरनाथ तथा दर्शनसिंह मंदिर दर्शनीय हैं. इन मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है. अयोध्या को पांच जैन र्तीथकरों की जन्मभूमि भी कहा जाता है, जिसके कारण जैन समुदाय के लोग यहाँ की यात्रा करते रहते हैं. विवादास्पद ढांचे के ढहने से लेकर आज तक इसका मामला विभिन्न जगहों से अंटकता हुआ सुप्रीम कोर्ट के विचार में है. हालाँकि, दिनाँक सितम्बर 2010 के अपने फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने एक बेहतरीन फैसला दिया था, जिसका चहुंओर स्वागत भी हुआ था. इस फैसले में उच्च न्यायालय ने यह जमीन तीन भागों में राममंदिर न्यास, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बांटने का आदेश दिया लेकिन दुर्गभाग्यवश इनमें से किसी भी पक्ष को ये फैसला पसंद नहीं आया और सुन्नी वक्फ बोर्ड व हाशिम अंसारी ने इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी तथा बाद में राममंदिर न्यास, निर्मोही अखाड़े ने भी उच्चतम न्यायालय में अपील की. हमारे देश की बिडम्बना यही तो रही है कि यहाँ मामला कोई सुलझाना नहीं चाहता, बल्कि दुसरे पक्ष को तकलीफ में रखने की चाहत लिए खुद को और सबको ही तकलीफ देता रहता है. हाई कोर्ट का तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में यह बेहद हेल्दी डिसीजन था, जिसका स्वागत व्यक्तिगत बातचीत में दक्षिणपंथी और दूसरी विचारधारा वालों ने खुलकर किया था. यह तीन जजों की बेंच का एक सर्वसम्मत फैसला था, जिस पर सभी पक्षों को सोचना चाहिए था. 




मगर हाय रे राजनीति! इस समस्या को फिर से अँटका दिया गया, ताकि इस पर राजनीति करने की सम्भावना खुली रह सके. खैर, 2015 बीतते-बीतते विश्व हिंदू परिषद (विहिप) की ओर से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की खातिर देशभर से पत्थर इकट्ठा करने का अभियान और उसके तहत, पत्थरों से लदे दो ट्रकों के शहर में प्रवेश करने पर जिला पुलिस के कान खड़े हो गए और देश भर में इसकी खबरें तैरने लगीं. अभी ज्यादे दिन नहीं हुए जब विश्व हिन्दू परिषद के सर्वोच्च नेता रहे अशोक सिंघल के देहावसान के बाद श्रद्धांजलि सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भगवत ने बड़ा बयान देते हुए कहा कि 'उनके जीवन काल में राम-मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हो सकता है'. अब उनके बयान के तमाम तरह के मंतव्य निकाले गए, किन्तु हकीकत तो यही है कि यह समस्या भानुमति के पिटारे की तरह हो गयी है, जिसमें एक-एक करके सैकड़ों समस्याएं गुंथी हुई है. इस बार की उठापठक में, विहिप के प्रवक्ता शरद शर्मा सहित राम जन्म भूमि के अध्यक्ष महंत नृत्य दास की ओर से ‘शिला पूजन’ किया गया है. तो महंत नृत्य गोपाल दास यह इशारा करने से नहीं चूके कि मोदी सरकार से उन्हें ‘संकेत’ मिले हैं कि मंदिर का निर्माण ‘अब’ कराया जाएगा. 

अब बिचारी मोदी सरकार तो खुद ही संसद न चलने से परेशान है और उसके कुछ ही दिन पहले सहिष्णुता-असहिष्णुता के जंग में फंसी हुई थी. अब उसने इस बीच कौन सा इशारा कर दिया, जिसे गोपाल दास जी ने समझ लिया और पूरे देश ने देखा नहीं! विहिप मुख्यालय पर पत्थरों के पहुंचने पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए फैजाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने मीडिया से कहा कि पुलिस हालात पर नजर रख रही है और अगर इस वाकये से शांति भंग होती है या सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ता है तो हम निश्चित तौर पर कार्रवाई करेंगे.’ खैर, पुलिस का काम ही है कि अगर कुछ बिगड़ जाए तो उसे देखे और समझे, जबकि कुछ बिगड़ने से पहले का कार्य तो नेताओं का है. ऐसे में पुलिस भला कर भी क्या सकती है, वह भी तब जब केंद्र और राज्य के नेता इस मामले पर नज़र गड़ाए हुए हों. जाहिर है, ऐसे में पुलिस के पास सिर्फ और सिर्फ इन्तेजार करने का रास्ता ही होता है. हालाँकि, इस सम्बन्ध में एक सकारात्मक बयान आया उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक का. संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में राम नाईक ने साफ़ कहा कि राम मंदिर निर्माण उच्चतम न्यायालय का फैसला आने के बाद ही होना चाहिए. जाहिर है, इस पूरे मामले में ऊपर से तो अतिरिक्त सतर्कता बरती जा रही है, किन्तु राजनीति करने वाले इस मामले पर किसी भी प्रकार की ढील नहीं दे रहे हैं. ठीक भी है, जब उत्तर प्रदेश के चुनाव नजदीक हों, तब अयोध्या के राम से बेहतर और दूसरा मुद्दा क्या हो सकता है. जैसे-जैसे 2017 नजदीक आता जायेगा, वैसे-वैसे सरगर्मियां भी बढ़ेंगी, किन्तु इससे जनता में किस हद तक वैमनस्य होगा, इस बात की फ़िक्र किसे है! मात्र राजनीति के लिए, राम मंदिर के लिए नहीं... कदापि नहीं! जहाँ तक नरेंद्र मोदी सरकार का इस महत्वपूर्ण और विवादित मुद्दे पर एक्शन लेने का सवाल है तो यह समझना बेहद आसान है कि वह खुद भी सुप्रीम कोर्ट से फैसला आने तक इन्तजार करना चाहेगी. हाँ! नरेंद्र मोदी को करीब से जानने वाले यह जरूर आंकलन करने में लगे हुए हैं कि अगर हाई कोर्ट के सदृश कोई फैसला उच्चतम न्यायालय से आ गया तो वह उस फैसले की तामील कराने में देरी नहीं करेगी. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब तक आएगा, तब देश के हालात क्या रहेंगे, इस पर किसी प्रकार की टिप्पणी करना उतना ही कठिन प्रतीत होता है, जितना यह आंकलन करना कि आने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में राम मंदिर के मुद्दे को कितना इस्तेमाल किया जायेगा और इससे दो समुदायों के बीच किस हद तक वैमनस्यता पनपेगी. कहते हैं कि लकड़ियाँ जल कर राख हो जाती हैं, किन्तु चूल्हे में उसकी तपन बनी रहती है. यह मुद्दा भी बेशक अभी आगे न हो, किन्तु कई दिलों में इस मुद्दे की तपन बखूबी बनी हुई है, विशेषकर उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में तो निश्चित ही! अब इस तपन को राजनेता किस हद तक इस्तेमाल करते हैं, यह देखना निश्चित रूप से कोई अच्छा अनुभव तो नहीं ही होगा!

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