सांप और छछूंदर की कहानी तो हम सब जानते ही हैं, मगर राजनीति करने वालों के लिए आज के समय में भ्रष्टाचार का रूप भी कुछ ऐसा ही हो गया है. कभी-कभी यह बात समझ से बाहर हो जाती है कि आखिर एक नेता राजनीति से पहले ईमानदारी की बात करता है और जब वही राजनीति में घुस जाता है तो फिर भ्रष्टाचार को रोकने की बात तो दूर, उसकी रखवाली तक करने लगता है. ताजा मामला हमारे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल उर्फ़ आम आदमी का है, जो सीना ठोंक कर भ्रष्टाचार के खिलाफ कदमताल करते-करते दिल्ली सेक्रेटेरियट के मुखिया बन गए , लेकिन आश्चर्य तो यह हुआ कि उनके प्रिंसिपल सेक्रेटरी पर सीबीआई ने छापा मारा तो उसे लेकर उन्होंने अपना संतुलन तक खो दिया. न केवल वह, बल्कि उनके तमाम मंत्री, प्रवक्ता टीवी चैनलों पर आत्मनियंत्रण खोते नज़र आये और अभद्र शब्दावली की भरमार लग गयी. केजरीवाल ने जहाँ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मनोरोगी, कायर कह कर अपने असंतुलन का परिचय दिया, वहीं ऐसी ही एक चर्चा में केजरीवाल के विश्वस्त मंत्री कपिल मिश्रा ने पहली महिला आईपीएस किरण बेदी को 'स्टैंडअप कॉमेडियन' और 'जोक' तक कह डाला, जबकि ऐसा तब था जब किरण बेदी ने चर्चा में किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत या असम्मान प्रकट करता हुआ शब्द इस्तेमाल नहीं किया था. सवाल है कि अगर किसी आरोपी के ऊपर जांच एजेंसी छापेमारी करती है तो इतनी बौखलाहट क्यों? ऐसी भी क्या आफत आ पड़ी कि इतनी जल्दी-जल्दी लोकतंत्र के ऊपर हमला, आफत जैसे व्यवहार के विपरीत शब्द इस्तेमाल किये गए. यह पूरा मामला तब शुरू हुआ जब सीबीआई ने दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के घर और दफ्तर छापे मारे हैं.
सीबीआई ने राजेंद्र कुमार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक मामला दर्ज करने के बाद दिल्ली सचिवालय स्थित कार्यालय सहित कई स्थानों पर छापे मारे और इस क्रम में एजेंसी ने यह दावा किया कि उसने कुमार के आवास से 2.4 लाख रुपये समेत कुल 13 लाख रुपये बरामद किए है. अधिकारी के खिलाफ दिल्ली सरकार के विभागों में निविदाएं दिलाने के लिए गत वर्षों में एक विशेष फर्म की मदद करके अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग करने का आरोप है और छापेमारी की कार्रवाई बाकायदा वारंट लेने के बाद की गयी. थोड़ा तकनीकी व्याख्या करें तो, एजेंसी ने भारतीय दंड संहिता और भ्रष्टाचार निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज अपनी प्राथमिकी में कुमार के अलावा इंटेलिजेंट कम्युनिकेशन सिस्टम इंडिया लिमिटेड (आईसीएसआईएल) के पूर्व प्रबंध निदेशकों ए के दुग्गल और जीके नंदा, आईसीएसआईएल के प्रबंध निदेशक आरएस कौशिक, एनडीवर सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड के निदेशकों संदीप कुमार और दिनेश के गुप्ता और उक्त फर्म का नाम आरोपी के रूप में दर्ज किया है. अब प्रथम दृष्टया यह पूरा मामला भ्रष्टाचार का लगता है और केजरीवाल का रिएक्शन ऐसा है कि उन पर या उन से जुड़े लोगों पर कोई भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, या केजरीवाल जी से पूछ कर होनी चाहिए? मतलब साफ़ है कि वह भारतीय कानून से ऊपर हैं, क्योंकि वह आम आदमी पार्टी के मुखिया हैं? आप थोड़ा ही पीछे जाएँ तो पाएंगे कि पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के एक मंत्री जीतेन्द्र तोमर की फर्जी डिग्री की बात सामने आयी थी, सोमनाथ भारती द्वारा पत्नी पर अत्याचार करने की बात पर भी केजरीवाल ने जमकर अपने लोगों का बचाव किया, किन्तु अंततः यह सब मामले में न्यायालय द्वारा आरोपी साबित किये गए और इन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी. आखिर, भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का नारा लगाते-लगाते केजरीवाल महोदय को ऐसा क्या हो गया कि वह भ्रष्टाचारियों की रक्षा जी-जान से करने लगे हैं! क्या यह सत्ता का नशा नहीं है, जो सर चढ़कर बोल रहा है? क्या जनता ने अपशब्दों का इस्तेमाल करने और भ्रष्टाचारियों की रक्षा करने के लिए ही केजरीवाल को चुना है? कहीं न कहीं दिल्ली की जनता के मन में यह सवाल तेजी से घुमड़ ही रहा होगा!
इस व्याख्या से अलग थोड़ा मनोवैज्ञानिक ढंग से सोचें कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों में आखिर ऐसा कौन सा 'शहद' लगा होता है कि अच्छे से अच्छे दिखने वाले लोग इससे चिपड़ जाते हैं. क्या इसका जवाब 'असुरक्षा' है? वह असुरक्षा जो सत्ता-प्राप्ति के क्रम में 'अच्छे' लोगों को दरकिनार करने से आती है. जाहिर है, सत्ता हासिल करने का जितना बड़ा लालच आप दिखलायेंगे, अच्छे, सच्चे और समझदार लोगों की सलाह आपको उतनी ही चुभेगी और आप उनसे जैसे-तैसे पीछा छुड़ाने के प्रयास में लग जायेंगे. तिकड़म भिड़ाकर आप उन सबको दरकिनार भी कर सकते हैं, लेकिन चूँकि लोग तो आपको चाहिए ही और ऐसे में भ्रष्टाचारी लोगों के मकड़जाल में आपका उलझना लगभग तय ही हो जाता है. ऐसी स्टेज पर यह अस्तित्व का प्रश्न बन जाता है. अरविन्द केजरीवाल के ही केस में देख लीजिये, आज की आम आदमी पार्टी नौसिखियों और मौकापरस्त लोगों से भरी पड़ी है. कोई कांग्रेस से आया है, कोई भाजपा से आया है तो कोई गुंडा है, कोई असामाजिक है.... और इन सबका साथ केजरीवाल जैसे व्यक्ति को इसलिए लेना पड़ा क्योंकि सत्ता हासिल करने के क्रम में उन्होंने अन्ना हज़ारे, किरण बेदी, संतोष हेगड़े, यहाँ तक कि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण तक को लतिया दिया. किसी की राय की ज़रा भी कद्र नहीं की. यह सारे लोग नींव में थे. मैं ऐसा दावा नहीं करता कि यह सारे लोग स्वार्थ से मुक्त संत थे... किन्तु यह दावा तो किया ही जा सकता है कि यह सभी लोग नींव थे, समझदार हैं, राजनीति का उंच-नीच जानते हैं, ईमानदार हैं, स्वतंत्र विचारधारा के हैं और सबसे बढ़कर इनके संघर्ष को एक पहचान है. ज़रा गौर कीजिये, अगर इनकी इच्छाओं और अपनी महत्वाकांक्षाओं को अरविन्द कहीं मिला पाते तो क्या आज उन्हें अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का संरक्षण करने की जरूरत पड़ती? तमाम पेंच है इसमें, किन्तु राजनीति करने वालों को किसी हाल में अपने इर्द-गिर्द अच्छे लोगों को रखना चाहिए. बेशक, वह कई बार आपको भार की तरह महसूस होंगे, किन्तु सच तो यही है कि वह आपकी ढाल होते हैं. चाहे वह आपके परिवार के लोग हों अथवा आपकी नींव के पत्थर. खैर, इस मनोवैज्ञानिक और सामाजिक व्याख्या से इतर हटकर देखें तो दिल्ली में केजरीवाल हर बार की तरह मोदी को निशाने पर लिए हुए हैं, उनको जी भर-भरकर गरिया रहे हैं, किन्तु उनकी हताशा और असुरक्षा उनको शब्दों में उतनी ही तेजी से बाहर निकलती दिख रही है. उनकी हालत किसी सांप-छछूंदर की तरह होती जा रही है, जिसको अपने अस्तित्व के लिए लोगों का साथ चाहिए ही और आज जो लोग उनके इर्द-गिर्द हैं, वह न केवल स्वार्थी और मूर्ख हैं, बल्कि उनमें भ्रष्टाचारियों का एक बड़ा समूह भी है. दिलचस्प होगा यह देखना कि, केजरीवाल जी कितने लम्बे रेस के घोड़े हैं. हालाँकि, अभी की झुंझलाहट तो कुछ और ही कहानी कह रही है.
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