देश में किसी भी विशिष्ट सुविधा को अगर कुतर्क के सहारे सही साबित करना हो तो विशिष्ट जन झट से विदेश के उदाहरणों को सामने ले आते हैं. ऐसे ही तर्क संसद की कैंटीन में भारी-भरकम सब्सिडी देने के लिए प्रयोग किये जाते रहे हैं मसलन, सांसदों के पास समय का अभाव होता है. उन्हें कई बिल पर चर्चा करनी होती है और उनके लिए "वर्किंग लंच का प्रिविलेज होना ही चाहिए" जो कई देशों में मुफ़्त उपलब्ध कराया जाता है. जब इन तर्कों का जवाब देने की कोशिश की जाती है कि अगर सांसदों की आमदनी और वेतन बहुत मुनासिब है, तो उन्हें ये 'प्रिविलेज"देने की क्या ज़रुरत? इस पर तेलंगाना के सांसद और खाद्य प्रबंधन संबंधी समिति के अध्यक्ष जीतेन्द्र रेड्डी जैसे लोग प्रिविलेज की ही बात को दुहरा देते हैं. इस संदर्भ में समझना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़े ज़ोर शोर से कहते रहे हैं कि सम्पन्न लोगों को एलपीजी की सब्सिडी स्वेच्छा से छोड़ देनी चाहिए. काफी लोगों ने उनकी बात भी मानी, किन्तु न जाने किस 'मुए' ने यह चर्चा छेड़ दी कि संसद की कैंटीन में 80 फीसदी की सब्सिडी दी जा रही है, उसे छोड़ने के लिए पीएम कब कहेंगे. बस फिर क्या था, सोशल मीडिया में यह बात आग की तरह फैली और इस बाबत जमकर चर्चा भी हुई. लोग-बाग़ साफ़ तौर पर कहने लगे कि अगर सांसद अपनी कैंटीन की सब्सिडी छोड़ दें तो वह भी अपनी एलपीजी की सब्सिडी छोड़ने पर विचार करेंगे. खैर, इस मुद्दे का तबसे कुछ नहीं हुआ, किन्तु अब जाकर इस मामले में कुछ हद तक कार्य करने की बात सामने आयी है. नए साल के पहले दिन यानी 1 जनवरी से देश के संसद की कैंटीन में खाने के लिए तीन गुणा अधिक कीमत माननीयों को चुकानी पड़ सकती है. अब तक की जानकारी के मुताबिक, कैंटीन में खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ाने के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया गया है. 'नो प्रॉफिट नो लॉस' के फॉर्मूले पर क्वालिटी सुधारने की कवायद के तहत अब चीजों के दाम निर्धारित किए जाएंगे. लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने फूड कमिटी की सिफारिशों पर फैसला ले लिया है और इस सम्बन्ध में निर्देश भी जारी किए जा चुके हैं. हालाँकि, इन सभी कवायदों के बावजूद, बाज़ार की तुलना में ये कैंटीन अब भी काफी सस्ती है. सांसदों को अब तक एक शाकाहारी थाली केवल 18 रुपये में मिला करती थी, जो अब से 30 रुपये में मिलेगी. अगर इसी क्वालिटी का खाना आप बाहर मार्किट में खाएं तो, उसकी कीमत निश्चित रूप से 100 रूपये के आस पास होगी. इसी तरह 33 रूपये में मिलने वाली मांसाहारी थाली अब 60 रूपये में मिलेगी. हालाँकि, बाहर 40 - 60 रूपये में 'आमलेट' ही आपको नसीब होता है. इस पूरे फैसले के पीछे सब्सिडी का बढ़ता जा रहा बोझ एक फैक्टर बना है.
एक रिपोर्ट के अनुसार, संसद भवन की कैंटीनों में खाने-पीने पर पिछले एक साल में 14 करोड़ रुपये से ज्यादा की सब्सिडी प्रदान की गई है. एक आरटीआई के जवाब में यह बात सामने आयी है कि 2010 के 10 करोड़ के आसपास सब्सिडी से बढ़ता-बढ़ता यह मामला 14 तक पहुँच गया था, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा था. अब जाहिर है, ईमानदारी की खातिर और उससे बढ़कर पूँजी के रिसाव को रोकने के लिए एक ओर तो केंद्रीय मंत्री तक प्रयास में लगे हैं और दूसरी ओर गैरजरूरी सब्सिडी को लेकर जनता सोशल मीडिया पर चर्चा करने में लगी थी. खैर, इस पूरे प्रयास में एक सकारात्मक सन्देश देने की कोशिश अवश्य की गयी है कि जनता की आवाज को उच्च-स्तर पर भी सुना जा रहा है. संसद की कैंटीनों में सांसद, उनके परिजन, संसद भवन में कार्य करने वाले लोग, वहां कवरेज के लिए जाने वाले मीडियाकर्मी भोजन करते हैं और इस क्रम में यह मांग उठती रही है कि इन सभी लोगों को खाने पर सब्सिडी क्यों दी जा रही है. वैसे भी, जनता के साथ सामाजिक कार्यकर्त्ता भी मोदी सरकार के कामकाज पर बारीक निगाह रखे हुए हैं. नए साल के पहले ही दिन प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर तीखा हमला बोला और कहा कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार और नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली मौजूदा राजग सरकार में कोई अंतर नहीं है. खैर, अन्ना द्वारा मोदी सरकार पर हमले के कुछ अन्य भी निहितार्थ हो सकते हैं, किन्तु उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को संबोधित अपने तीन पेज के बयान में जो कुछ कहा है, उसमें कुछ मुद्दे वाजिब भी हैं. देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के लिए लोकपाल, कृषि उपज का बेहतर मूल्य देकर किसानों की आत्महत्या की समस्या से निजात पाने की बात, मंहगाई पर रोक और संसद के सत्र का आपसी झगड़े और बेवजह की बहस में बीत जाना और काले धन की वापसी का मुद्दा प्रमुख है. जाहिर है, इन तमाम मुद्दों को एक-एक करके निपटाने का यत्न करती दिख रही मोदी सरकार संसद की सब्सिडी को कम करके या ख़त्म करके एक बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत करने का साहस कर रही है, जिसके लिए प्रशासन का आभार किया जाना चाहिए. हालाँकि विदेशी माननीयों को मुफ्त में सुविधा मिलने की दुहाई देने वालों को अभी भी भारी छूट हासिल है और नो प्रॉफिट, नो लॉस पर संसदीय कैंटीन चलाने की बात कहने वालों को यह समझना चाहिए कि हमारे देश में आज भी कई करोड़ लोग भूख से सोने को मजबूर हैं. हमारे देश को ये लोग यूरोप के किसी देश की तरह मानवाधिकार से सम्पन्न बना दें और फिर फ्री में खाना भी खा लें, तो शायद किसी देशवासी को आपत्ति न होगी. किन्तु, अगर देश का एक भी व्यक्ति भूखा सोता है, तब तक किसी को भी संपन्न व्यक्ति या समूह को सब्सिडी लेने का हक नहीं है. अगर कोई इस बाबत जिम्मेदारी उठाता है, तो उसकी सराहना होनी चाहिए, अन्यथा सरकारी सब्सिडी क्रमिक रूप से समाप्त करने की ओर तेजी से बढ़ना चाहिए. आखिर, दुसरे ऑफिशियल कर्मचारियों की तरह सांसद भी अपने घर से टिफिन ले जा सकते हैं या फिर मार्किट रेट पर खरीद कर खाना खा सकते हैं. वर्किंग-लंच तो सभी नागरिक लेते हैं, केवल सांसदों और उनसे जुड़े लोगों को ही क्यों मिले सब्सिडी?
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