कहते हैं कि 'जिनके घर शीशे के होते हैं, उन्हें दूसरे के घरों पर पत्थर फेंकने से बचना चाहिए'. इस कहावत को 2014 के आम चुनाव में मिली जबरदस्त हार के बाद कांग्रेस पार्टी ने बहुत जल्दी भुला दिया और सहिष्णुता-असहिष्णुता इत्यादि मुद्दों को लेकर संसद तक को ठप्प करने की एकतरफा कार्रवाई इतने ज़ोरदार ढंग से करने लगी मानो उसकी सीटें कम नहीं हुई हैं, बल्कि बढ़ गयी हैं! जनता का विश्वास उस पर से हटा नहीं है, बल्कि बढ़ गया है. इन प्रश्नों की शिनाख्त आगे की पंक्तियों में करेंगे, उस से पहले एक दिलचस्प टिप्पणी पर गौर करना लाजिमी है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहे हालिया विवाद पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद की एक दिलचस्प टिप्पणी आयी है, जिसकी वर्तमान में तो कम ही लोगों को उम्मीद रही होगी. रविशंकर ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि जेएनयू भारत का एक प्रतिष्ठित संस्थान है जिसका पूरी दुनिया में सम्मान किया जाता है, क्योंकि जेएनयू में रचनात्मक और वैकल्पिक आवाज उठाई जाती है जिसे समाज भी सुनने के लिए तत्पर रहता है. हमारे केंद्रीय मंत्री यहीं नहीं रुके और उन्होंने ये भी जोड़ा कि जेएनयू ने कई उत्कृष्ठ अधिकारी और कई महान शिक्षाविद दिए हैं जिनकी समाज में अपनी एक अलग प्रतिष्ठा है, इसलिए वहां पर उठ रही दूसरे पक्षों की आवाज को पूरा देश सुनने को उत्सुक है. एक तरफ जहाँ जेएनयू पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह समेत तमाम बड़े दक्षिणपंथ के नेता अलग-अलग एंगल से हमला करने में जुटे हैं, वहीं रविशंकर प्रसाद की टिप्पणी इस संस्थान के बारे में और जानने को प्रेरित करती है. देखा जाय तो यह विश्वविद्यालय अपनी अलग छवि रखने के बावजूद जनता से जुड़े आम सरोकारों के बजाय बड़े राजनीतिक और विवादित मुद्दों से खेलने के लिए ही जाना जाता रहा है. वह भी ऐसे मुद्दे, जिन पर जनता की राय अक्सर देश या परम्पराओं के पक्ष में होती रही है, वहीं यह संस्थान उसके विपरीत जाकर दबंगई से अपनी बात कहने की कोशिश करता रहा है. पिछले कुछ दिनों में जो इसकी छवि बनी है, वह निश्चित रूप से नक्सल-समर्थन, विकास विरोधी, यहाँ तक कि राष्ट्र विरोधी तक रहे हैं.
चूँकि, पहले कांग्रेस सरकार थी, इसलिए ऐसे मुद्दों को इग्नोर किया जाता रहा है और इसी इग्नोरेंस का परिणाम यह निकला है कि जेएनयू में प्रशासन से लेकर प्रोफेसर्स तक और स्टूडेंट्स से लेकर उनसे जुड़े बाहरी संगठन तक की मानसिकता एक 'विशिष्ट ग्रंथि' का शिकार हो गयी सी प्रतीत होती है! मानो, वह देश में नहीं हैं, उन पर सरकार का, कानून का कोई दबाव नहीं है, वह उन्मुक्तता के नाम पर राष्ट्रविरोधी कार्य कर सकते हैं, जनता की भावनाओं को जबरदस्ती अनदेखा कर सकते हैं और ... ... और कोई उनको कुछ नहीं कहेगा, क्योंकि यह तो उनकी 'यूएसपी' है! ध्यान से देखें तो आपको प्रतीत होगा कि पहले की सरकारों की तरह शायद दक्षिणपंथी भी इस मामले को राजनीतिक रूप से हैंडल करने की बजाय कानूनी रूप से ज्यादा हैंडल करते और शीर्ष-स्तर पर मामला हैंडल भी कर लिया जाता. किन्तु, मुसीबत यह है कि राजनीतिक समझौते की गुंजाइश को वामपंथी धड़ों और कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों द्वारा पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया था. आप याद कीजिये, 'असहिष्णुता' पर तमाम बुद्धिजीवियों द्वारा पुरस्कार वापसी कार्यक्रम को .... कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों के रूख को! अब इस बार भाजपा के शीर्ष नेता जो हाथ धोकर इस मामले के पीछे पड़ गए हैं, यह संयोगमात्र नहीं है, बल्कि यह पुराना हिसाब चुकता करना तो है ही, साथ ही साथ 'राक्षस की जान तोते में' वाली कहावत से सीख लेने की बात भी सामने आनी है. अगर वामपंथी और कांग्रेस भाजपा के बारे में यह अनुमान लगाये बैठी हैं कि उसे 'असहिष्णुता और साम्प्रदायिकता' के मुद्दे पर घेरा जा सकता है तो भाजपा राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद की चैम्पियन तो पहले से ही है. ऐसे में अफज़ल के समर्थन में इस पूरे मामले पर न केवल त्वरित कार्रवाई हुई, बल्कि राहुल गांधी तक पर राष्ट्रद्रोह का मुकदद्मा दर्ज करने का आदेश, वह भी इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा जारी कर दिया गया. केजरीवाल महोदय पर भी एक कार्टून को लेकर मामला दर्ज करने की खबर है. सोशल मीडिया पर भाजपा का पूरा कैडर इस मामले को राष्ट्रवाद का बड़ा मामला बताने में लगा हुआ है तो वाम धड़े समेत कांग्रेसियों को सांप सूंघ गया है कि आखिर यह हो क्या रहा है? कुछ दिन पहले तक तो मोदी सरकार को सफाई देने पर मजबूर होना पड़ रहा था, किन्तु अब इस 'जेएनयू' ने तो मट्टी पलीत कर दी है. इस पूरे मामले को ध्यान से देखने पर सिर्फ और सिर्फ सामने आता है कि 'जेएनयू' के हालिया देशविरोधी कृत्यों के रिकॉर्ड को बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया गया है तो इस राजनीतिक जाल में कांग्रेस और दूसरे बुद्धिजीवी धड़े बुरी तरह से फंस चुके हैं. निश्चित रूप से आने वाले बजट-सत्र में इस मामले का हल निकालने की कोशिश होगी और शायद कई अँटके बिल भी इस लहर में पास हो जाएँ.
कहा जा सकता है कि पलटवार करने की राजनीति का भाजपा ने बखूबी इस्तेमाल किया है, किन्तु पक्ष-विपक्ष की इस लड़ाई में देश को क्या फायदा और क्या नुक्सान हुआ है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा! वैसे 'शीशे के मकान और पत्थर' वाली कहावत के अतिरिक्त एक और कहावत पर जनता का विश्वास गँवा चुके विपक्ष और विशेषकर कांग्रेस को करना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि "दुश्मनी उतनी ही करो कि बाद में दोस्त बनने पर शर्मिंदा न होना पड़े"! जाहिर तौर पर नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत दुश्मनी का खूंटा गाड़े रखने का नुक्सान ये लोग भुगत रहे हैं और जनता में तो इसका सन्देश और भी घातक रूप में पहुँच रहा है. लोग इस बात की खुलकर चर्चा कर रहे हैं कि अब तक तो कांग्रेस सिर्फ मोदी का ही अंध-विरोध करती रही है, किन्तु अब उसका अंधविरोध उसे 'राष्ट्रद्रोह' तक ले जा रहा है! जैसा कि एक सोशल मीडिया पोस्ट को उद्धृत करने से मामले को समझना आसान हो जायेगा, जिसमें कहा गया है कि "मोदी विरोध का आलम यह है कि अगर प्रधानमंत्री यह कहें कि हमें शौच के बाद हाथ धोना चाहिए तो, विपक्षी कहेंगे कि नहीं "हम तो ... .." ... निश्चित रूप से इस प्रकार का अंध विरोध राजनीति तो नहीं ही है और इसका परिणाम इन सबको भुगतना पड़ रहा है. जहाँ तक जेएनयू का सवाल है तो इसे अपनी 'विशिष्ट' सोच से जल्द ही उबरना चाहिए और जनता के साथ सरकार से ऊपर की सोच रखने की मानसिकता त्याग देनी चाहिए! अगर इस बात को समझने में उसे थोड़ी भी दिक्कत हो तो उसे आसाराम, रामपाल जैसों की मट्टी पलीत होने का अध्ययन कर लेना चाहिए. यदि फिर भी न समझ आये तो उसे सहारा जैसे बड़े संस्थान के मुखिया सुब्रत रॉय का ही अध्ययन कर लेना चाहिए, जिनके क़रीबी लोगों और कर्मचारियों में एक राय मिलेगी कि उनका पतन सिर्फ़ अहंकार के कारण हुआ है. जेएनयू में चूंकि रिसर्च खूब होते हैं तो उसके शोधार्थियों को उस दृश्य को रिवर्स करके देखना चाहिए, जब सिक्योरिटीज़ एंज एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (सेबी) और अदालत से निर्देश आते थे, तब सहारा-प्रमुख अख़बारों में लाखों के विज्ञापन देकर बताया करते थे कि उन्हें क़ानून न सिखाया जाए. मुक़दमा जब निर्णायक दौर में पहुंच गया तब भी वे बहाने कर अदालत में हाज़िर होने से बचते रहे. इन सब वजहों से अपनी साख बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए मजबूर हो गया और आज वह तिहाड़ से अपने अहम को कोस रहे होंगे. चाहे वह आसाराम हों, सुब्रत रॉय हों या जेएनयू ही क्यों न हो, राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्थानों के आगे इनकी अहमियत को वरीयता कतई नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए! इस तरह की एलिट क्लास मानसिकता का समापन लोकतंत्र में होना तय ही रहता है, किन्तु कुछ लोग जबरदस्ती अकड़ दिखाते हैं तो कुछ लोगों को जानबूझकर राजनेता अकड़ दिखाने के लिए 'झाड़' पर चढ़ाते हैं. ऐसे में जनता कभी बैलेट से तो कभी मुखर होकर अपना फैसला सुना देती है और सहमति मिलते ही 'सरकार' ... जी हाँ! वाट लगा देती है.
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