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मुफ़्ती का असरदार 'किरदार' - Mithilesh hindi article about Mufti mohammad saeed, ex chief minister of Jammu and Kashmir

जब हम सिनेमा में कोई फिल्म देखते हैं और वह हमें पसंद नहीं आती है, तो उसके लिए फिल्म के किसी एक करेक्टर को आसानी से दोषी ठहरा देते हैं! मसलन, अमिताभ बच्चन की वो फिल्म बड़ी बकवास थी, शाहरुख़ की नयी रिलीज 'दिलवाले' बेहद बकवास फिल्म थी... फलाना, ढिमका! किन्तु, क्या वाकई इन हीरो या हीरोइनों पर ही फिल्म की क्वालिटी निर्भर करती है या फिर दूसरी चीजों का भी इनमें यथा योगदान होता है? जाहिर है, जैसी स्क्रिप्ट मिलेगी, एक्टर्स को उसी अनुसार एक्टिंग भी करनी होती है! हाँ, थोड़ा बहुत बदलाव भी समझदार एक्टर्स अपने लिहाज से कराने की कोशिश जरूर करते हैं. कमोबेश, यही हालत हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में भी होते हैं! आप चाहे राजनीति में हो या फिर किसी संगठन में, आपके किरदार के साथ-साथ पूरा परिदृश्य भी बेहद मायने रखता है. जब नवम्बर, दिसंबर 2014 में जम्मू कश्मीर विधानसभा का चुनाव हुआ और उसमें सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस औंधे मुंह गिर गयी तो इस घाटी राज्य में नए समीकरण उभरे. पहली बार भगवा कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने 25 सीटों पर अपना परचम लहराया तो, इसके विपरीत विचारधारा की पीडीपी ने 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की. चुनाव परिणामों के बाद कई महीनों तक इस बात की उठापठक चलती रही कि इस राज्य में अनिश्चितता के बादल कब तक मण्डराएंगे? पीडीपी और बीजेपी दोनों उत्तर और दक्षिण ध्रुव की तरह थे. मुफ़्ती मोहम्मद सईद का महत्त्व इस बात से ही समझा जा सकता है कि उनके नाम पर न केवल सरकार बनी बल्कि तमाम मुद्दों को बेहद सहूलियत से सुलझाया गया और यह मुफ़्ती के आखिरी समय तक बना रहा. जाहिर है, मुफ़्ती का राजनीतिक कद तो बड़ा था ही, किन्तु उससे भी ज्यादा बड़ा था उनका समस्याओं को समझने और तालमेल बिठाने का ढंग. 

आज़ादी के समय से ही जिस ढंग से 'कश्मीर' भारत के लिए दुरूह रहा है, उसमें शासन करना और भारतीय गणतंत्र के शेष भाग से तालमेल करना अपने आप में एक अलग तरह की राजनीति और कूटनीति का अध्याय है. कश्मीरी अलगाववादी, पाकिस्तानी आतंकवादी और शेष विश्व की नज़रों के साथ-साथ भारतीय सेना के साथ तालमेल बिठाना आसान कार्य नहीं है, किन्तु मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इन सबसे पार पाने की करिश्माई कोशिश की. हालाँकि, उनके तमाम दुसरे बयानों और उनसे जुडी चर्चित घटनाओं का उदाहरण दुसरे रूप में भी दिया जाता है. इनमें सबसे प्रमुख वह घटना है, जिसको लेकर भारत में सईद के आलोचक उन्हें याद करते हैं कि उनकी अगवा बेटी रुबैया सईद की रिहाई के लिए उसके अपहर्ता, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट (जेकेएलएफ) की तीन चरमपंथियों की रिहाई की मांग पूरी कर दी गयी थी. यह घटना 1989 की है, जब सईद ने कुछ ही दिन पहले वीपी सिंह सरकार में बतौर केंद्रीय गृहमंत्री पद संभाला था. इस दौर को चरमपंथियों और उनके समर्थकों को भारत सरकार से टक्कर लेने का हौसला देने और सशस्त्र संघर्ष को बढ़ाने के लिए भी ज़िम्मेदार माना जाता रहा है. हालाँकि, ऐसे में उनके इन योगदानों को भूल जाना ठीक नहीं होगा, जिनमें भारतीय संविधान के तहत चुनावों के राजनीतिक ढांचे के अंदर रहकर अलगाववादी लोगों के एजेंडे को जहां तक संभव हुआ, मुफ़्ती ने दरकिनार किया तो इन अलगाववादियों से तालमेल बिठाने में भी लगे रहे और इस तरह के प्रयासों के फलस्वरूप सईद 2002 में सूबे के मुख्यमंत्री बने. कश्मीर के अलगाववादी लोगों ने इसे मुफ़्ती के उभार को ऐसे 'ख़तरे' के रूप में भी देखा जो कश्मीरियों के सामने भारत सरकार का बेहतर पक्ष दिखाने की कोशिश करता था. इस घाटी राज्य में लोग आमतौर पर यह कहते भी मिल जाते हैं कि पीडीपी भारतीय गुप्तचर सेवाओं की पैदा की हुई पार्टी है, ठीक उसी तरह जैसे भारत में अतिवादी तत्व इस पर पाकिस्तान के लिए काम करने का आरोप लगाते हैं. इसके अलावा जिस एक प्रयास के लिए मुफ़्ती की आलोचना की जाती रही है, वह है जम्मू कश्मीर में 'पाकिस्तानी मुद्रा' की स्वीकार्यता के लिए उनकी वकालत करना!  जाहिर है, समस्या गंभीर होने पर जो सामने रहता है, उसको दोनों पक्षों से काफी कुछ सुनने को मिलता है. हालाँकि, मुफ़्ती की तारीफ़ इस बात के लिए करनी ही चाहिए कि उन्होंने हालत के अनुसार तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश की और उम्मीद की लौ जलाते रहे. 

देखना दिलचस्प होगा कि उनकी उत्तराधिकारी महबूबा मुफ़्ती पिता के करिश्मे की थाती लेकर कितनी लम्बी और सकारात्मक यात्रा कर पाती हैं. दशक भर से ज़्यादा चले ख़ूनी संघर्ष से बुरी तरह परेशान घाटी की आबादी को 'राहत देने' के प्रयासों के साथ सर्ईद ने भारतीय प्रशासन से तालमेल की अपनी कोशिशों को भी कभी नहीं छोड़ा. कश्मीरियों में से कुछ के लिए यह एक स्वागतयोग्य बदलाव था. अब वहां बेहतर राजनीतिक विकल्प हैं, लोग नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के साथ भाजपा और कांग्रेस के रूप में लोकतंत्र के मजबूत नुमाइंदे हैं. जाहिर है, चरमपंथ कम होने और यह साफ़ होने के बाद कि 9/11 के बाद के समय में 'आज़ादी' मिलना दूर की कौड़ी हो गई है कश्मीरी मुसलमानों को बिजली-सड़क-पानी जैसे रोज़मर्रा के मुद्दों को लेकर राज्य विधानसभा चुनावों में बड़ी मात्रा में शरीक होना पड़ा तो इसके लिए कहीं न कहीं श्रेय मुफ़्ती मोहम्मद सईद को भी दिया जाना चाहिए, जो उन्हें नहीं मिला. इसके साथ भाजपा और विशेष रूप से नरेंद्र मोदी इस बात को किस प्रकार भूल सकते हैं कि जब 'सहिष्णुता और असहिष्णुता' के ऊपर हाल ही में कई लोग तेज आवाज में मोदी और केंद्र सरकार को कोसने में लगे हुए थे, तब मुफ़्ती मोहम्मद सईद खुलकर केंद्र सरकार के साथ दिखे थे. जाहिर है, कश्मीरियों के लिए 'लोकतंत्र' का एक मजबूत विकल्प देने में मुफ़्ती का किरदार बेहद असरदार रहा है. कई विवादित बयानों के बावजूद, मुफ़्ती मोहम्मद सईद को एक कश्मीरी के रूप में, एक भारतीय के रूप में उचित सम्मान और इतिहास में यथोचित स्थान मिलना ही चाहिए, इस बाबत किसी को रत्ती भर भी शक नहीं होना चाहिए.

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