भारतवर्ष के राजनीतिक परिदृश्य में बहुत कम ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ एक मुख्यमंत्री को सार्वजनिक रूप से डांट पड़ती हो और वह मुस्कुराकर उससे सीख लेता हो, बजाय कि अपना अहम सहलाने के! जी हाँ, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव जबसे राज्य के मुख्यमंत्री बने हैं, तबसे उनको सीख देने के लिए, गलतियों को सुधारने के लिए मुलायम सिंह यादव सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना करने से परहेज नहीं करते हैं और अखिलेश भी विनम्रता से अपने पूरे कार्यकाल में अनुभवी मुलायम से सीख लेते ही दिखे हैं. राजनीतिक रूप से उलझे हुए प्रदेश में जहाँ खुद सपा में ताकत के अनेक ध्रुव हैं, वहां युवा सीएम अगर बिना किसी बड़े विवाद के अपना कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं, तो उसमें उनकी विनम्रता का बहुत बड़ा रोल है. धीरे-धीरे अखिलेश यादव मजबूत होते गए हैं और अब उनकी मजबूती पार्टी और सरकार से भी बाहर दिखती है, इस बात में कोई दो राय नहीं है. उनके सम्बन्ध पार्टी में तो हर जगह है ही, साथ ही साथ विपरीत विचारधारा के प्रधानमंत्री और कांग्रेस तक से वह सहजता से पेश आते हैं.
आने वाले विधानसभा चुनावों में राजनीतिक विश्लेषक खूब किन्तु-परन्तु कर सकते हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी को छोड़ दिया जाय तो अन्य किसी पार्टी के पास अखिलेश यादव के समकक्ष सीएम का उम्मीदवार ही नहीं है. कांग्रेस और भाजपा के साथ बसपा की मायावती भी जानती हैं कि उनका 'युग' जा चुका है और सपा ने जिस तरह समय रहते नयी पीढ़ी को कमान सौंप दी, उसमें बसपा बुरी तरह असफल रही है. 2012 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद के तमाम चुनावों में बसपा का ग्राफ लगातार गिरा ही है. भाजपा भी कभी योगी आदित्यनाथ तो कभी वरुण गांधी और कभी किसी और के नाम पर शिगूफा छोड़ती रहती है, लेकिन इसका केंद्रीय नेतृत्व बखूबी जानता है कि अगर किसी को वह सीएम कैंडिडेट घोषित करती है तो खुद भाजपा का दूसरा गुट ही उसे हराने में लग जायेगा. इसके विपरीत, अगर भाजपा सीएम कैंडिडेट घोषित नहीं करती है तो सिर्फ मोदी के नाम पर जनता दिल्ली और उसके बाद बिहार में इस पार्टी को रिजेक्ट कर चुकी है. जाहिर तौर पर समाजवादी पार्टी के लिए आने वाले विधानसभा चुनाव में खुद अखिलेश यादव सबसे बड़े तुरुप के पत्ते होने वाले हैं और अपनी उम्मीदवारी को वह लगातार धार भी दे रहे हैं. वह चाहे उत्तर प्रदेश को 'उम्मीदों का प्रदेश' बनाने की उनकी मुहीम हो अथवा चुनावी धरातल पर विधानपरिषद (एमएलसी) में एकतरफा जीत हासिल करने में उनकी केंद्रीय भूमिका! उत्तर प्रदेश हर तरह से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है, विशेषकर यहाँ की प्रत्येक राजनीतिक हलचल पर देश भर की निगाहें टिकी रहती हैं. विधानपरिषद चुनाव के नतीजों में जिस प्रकार से समाजवादी पार्टी ने अपना एकछत्र परचम लहराया है, उसने भाजपा सहित बहुजन समाज पार्टी को बौखलाहट से भर दिया है. बजाय अपनी कमियों को देखने और सुधारने के बसपा प्रमुख मायावती अखिलेश सरकार पर बरस पड़ीं और अपने विशेष अंदाज में कह डाला कि इन ‘अप्रत्यक्ष चुनावों' के परिणाम माफिया तत्वों और सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग से हासिल किये गए हैं, जो ‘खोखली जीत' की तरह हैं. यह बात सच है कि विधानपरिषद के इस अप्रत्यक्ष चुनाव में जनता की सीधी-सीधी भूमिका नहीं होती है, किन्तु यह बात भी ठीक नहीं है कि इन चुनावों से जुड़े सभी जन-प्रतिनिधि सीधे तौर पर भ्रष्ट ही हैं और दूसरी पार्टियां पाक-साफ़ हैं.
इससे भी बढ़कर यह बात कही जा सकती है कि कोई भी जन प्रतिनिधि जनता के रूख के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर सकता है, क्योंकि उसे अंततः जनता के बीच ही जाना होता है. इसलिए मायावती का आरोप पहली नज़र में ठीक नहीं जान पड़ता है तो दलीय राजनीति से प्रेरित भी प्रतीत होता है. इस परिणाम के लिए अखिलेश सरकार को शुरूआती बधाई जरूर दी जानी चाहिए, क्योंकि युवा मुख्यमंत्री के लिए विधानसभा चुनाव में जाने से पहले यह उत्साहवर्धन ही है. हालाँकि, विधानसभा चुनावों को लेकर सपा को बहुत ज्यादा आश्वस्त होने की सलाह शायद ही कोई विश्लेषक दे, किन्तु उसके चुने हुए एमएलसी क्षेत्र में उसके लिए सकारात्मक भूमिका जरूर ही निभाएंगे, इस बात में दो राय नहीं! इस एमएलसी चुनाव में बीजेपी का खाता तक नहीं खुला, वहीं बीएसपी को दो और कांग्रेस को एक सीट मिली है तो दो सीटें निर्दलीयों के खाते में गई हैं. बाकी सारी सीटों पर सत्ताधारी समाजवादी पार्टी बाजी मारने में कामयाब रही है. एक और चर्चित उम्मीदवार की जीत ने लोगों को काफी कुछ सोचने पर मजबूर भी किया है और वह हैं शाहजहांपुर जेल में बंद माफिया डॉन बृजेश सिंह, जिनको विधान परिषद चुनाव में वाराणसी से जीत मिली है. निर्दलीय चुनाव लड़े बृजेश सिंह ने समाजवादी पार्टी की मीना सिंह को 2 हजार से कुछ अधिक वोटों से हराया है, जिसे राजनीतिक हलकों में कई नज़रिये से देखा जा रहा है. अखिलेश सरकार के लिए सबसे बड़ी राहत की बात यह है कि समाजवादी पार्टी के सात प्रत्याशी पहले ही निर्विरोध चुने जा चुके थे, जो अपने आप में दूसरी पार्टियों के लिए एक सबक माना जा रहा है. इस क्रम में सपा के खाते में कुल 30 सीटें गई हैं, जिसके लिए 35 निर्वाचन क्षेत्रों में कुल 105 उम्मीदवार चुनाव मैदान में खड़े हुए थे. सपा के कई प्रत्याशियों ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है, जिसे अनदेखा करना मुश्किल है. फतेहपुर में सपा प्रत्याशी दिलीप सिंह उर्फ पप्पू यादव ने बीएसपी के अशोक कटियार को 1787 वोटों से हराया तो गोंडा में सपा प्रत्याशी महफूज खान ने बीजेपी प्रत्याशी राजेश सिंह को 2453 वोटों से हराया है. इसी क्रम में, देवरिया में सपा प्रत्याशी रामअवध यादव ने बीएसपी के अजीत शाही को 1381 वोटों से हराया तो बरेली में सपा प्रत्याशी घनश्याम लोधी ने बीजेपी के पीपी पटेल को 1323 वोटों से हराया. बदायूं में सपा प्रत्याशी बनवारी सिंह यादव ने बीजेपी के जितेंद्र यादव को 1723 वोटों से हराया तो झांसी से सपा प्रत्याशी रमा निरंजन ने 2800 वोटों से जीत हासिल की. जाहिर तौर पर इन अप्रत्यक्ष चुनावों में इतने बड़े वोट से जीत हासिल करने के बड़े राजनीतिक मायने हैं. मुरादाबाद में सपा प्रत्याशी परवेज अली ने बीजेपी की आशा सिंह को 4434 वोटों से बुरी तरह से हराया तो शाहजहांपुर में सपा प्रत्याशी अमित यादव उर्फ रिंकू ने बीजेपी के जेपीएस राठौर को 2207 वोटों से हराया है. गोरखपुर में सीपी चंद्र ने सपा प्रत्याशी जय प्रकाश यादव को 1589 वोटों से हराया. इसी क्रम में, इटावा में सपा प्रत्याशी पुष्पराज जैन ने 3515 वोट के साथ जीत हासिल की है.
सपा को सिर्फ वाराणसी में टक्कर मिल सकी, जहाँ बाहुबली बृजेश सिंह ने 2000 वोट से जीत दर्ज की है, अन्यथा दुसरे तमाम दलों की घेरेबंदी को अखिलेश ने बखूबी तोड़ा है. जाहिर तौर पर मुलायम सिंह की विरासत संभाल रहे अखिलेश यादव को इन परिणामों ने पार्टी के भीतर मजबूती प्रदान की है, जिसके आधार पर वह आने वाले विधानसभा चुनावों में अधिक आत्मविश्वास से उतर सकेंगे. हालाँकि, भाजपा और कांग्रेस के लिए स्थिति कहीं ज्यादा बुरी दिखी है, जो उत्तर प्रदेश में वापसी के लिए ज़ोर लगाये हुए हैं. कांग्रेस तो देश की चुनावी रणनीति में फिर से वापसी करने के लिए इस हद तक बेचैन है कि उसने पॉलिटिकल कंसल्टेंट प्रशांत किशोर तक को हायर कर लिया है, साथ ही साथ मीडिया में भी इस बात की सुगबुगाहट सामने आ रही है कि इस बार प्रियंका गांधी भी सक्रीय राजनीति में सामने आ सकती हैं. देखना दिलचस्प होगा कि अखिलेश सरकार की युवा छवि और चुनावी मैदान में जीत हासिल करने की काबिलियत से अन्य दल किस प्रकार निपटते हैं. हालाँकि, एमएलसी चुनाव में जिस प्रकार अन्य दल चित्त हुए हैं, उसके सदमा उन्हें कई महीनों तक बने रहने वाला है. देखा जाए तो दुसरे दलों के लिए यह चुनाव परिणाम एक 'अलार्म' की तरह है, जो उन्हें विधानसभा चुनावों के लिए सावधान करता है, वहीं समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए अपने किले और कील-काँटों को दुरुस्त करने के साथ सजगता का सन्देश भी देता है, क्योंकि जनता का निर्णय सकारात्मक रखने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. हालाँकि, सपा के लिए सबसे बड़ी राहत की बात यह है कि अखिलेश यादव अब राजनीति के परिपक्व, किन्तु विनम्र खिलाड़ी के रूप में अपनी पहचान पुख्ता कर चुके हैं.
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