मां, माटी और मानुष का नारा देकर पश्चिम बंगाल की राजनीति में हलचल मचा देने वालीं ममता बनर्जी ने आज खुद को एक पोलिटिकल ब्रांड के रूप में स्थापित किया है और यह उनकी खुद की मेहनत और नीतियों के बदौलत ज्यादा हुआ है. हालाँकि, कई लोग यह बात भी मानते हैं कि ममता दीदी का उभार और लेफ्ट का अवसान अंतर्संबंधित है. टाइम मैगजीन द्वारा विश्व के 100 प्रभावशाली इंसानों में शुमार की गईं ममता का व्यक्तित्व असाधारण है, तो उनकी व्यक्तिगत खूबियां भी कई है. पश्चिम बंगाल की इस 'लौह महिला' को चित्र बनाना और कविता लिखने का खूब शौक है. बेहद साधारण रहन-सहन इनकी खासियत, तांत की साड़ी, रबड़ की चप्पल और कंधे पर झोला लटकाए आप ममता बनर्जी को हमेशा ही देख सकते हैं. साल 2011 में सीएम की कुर्सी संभाल कर बंगाल में नया इतिहास लिखने वालीं ममता को स्थापित करने में दो घटनाओं का बड़ा हाथ बताया जाता है. पहला सिंगूर और दूसरा नंदीग्राम आंदोलन! इन दोनों आंदोलनों का ममता के राजनीतिक उभार में अहम रोल रहा है. इन्हीं आंदोलनों के दौरान ममता ने वाम मोर्चा विरोधी ताकतों के खिलाफ लोगों को आंदोलित किया तो अपनी वाक्पटुता के बल पर बंगाली लोगों को एकत्र भी किया और न केवल एकत्र किया, बल्कि ३५ साल से जड़ जमाए वामपंथियों की राजनीति को खत्म करने के कगार पर ला दिया! अप्रत्यक्ष रूप से माना जाता है कि ममता की बंगाल-विजय में नक्सलवादियों का भी बड़ा हाथ रहा है, इसके कई किस्से भी स्थानीय स्तर पर सुनाये जाते रहे हैं.
ममता की बंगाल में राजनीतिक पकड़ का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि जब 2014 में पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम की आंधी में तमाम क्षत्रप उखड़ गए थे, तब दो नाम अपना इकबाल कायम रखने में सफल रहे थे. इनमें से एक नाम खुद ममता बनर्जी का ही था तो दूसरा नाम तमिलनाडु से जयललिता का था. लोकसभा में अभी तृणमूल कांग्रेस के 35 सदस्य हैं. हालाँकि, पिछले कई इलेक्शन आसानी से जीतने वालीं 'दीदी' के लिए कहा जा रहा है कि 2016 विधानसभा चुनाव थोड़ा मुश्किल भरा जरूर होगा, क्योंकि ममता मंत्रालय के कुछ मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं, तो जनता में भी नाराजगी की फुहारें दिख रही हैं. 'शारदा' चिट फंड घोटाला और 'नारदा' जैसे घोटाले जो कि ममता के शासन काल में हुए हैं, उनकी सच्चाई जनता के सामने आने के बाद ममता की मुश्किलें काफी बढ़ गईं है! शारदा घोटाले ने, ना केवल बंगाल को बल्कि केंद्र तक में सुगबुगाहट पैदा कर दी थी. इस घोटाले में कुछ ऐसे चेहरे थे, जोकि ममता की पार्टी के लिए पिछले चुनावों में जमकर लोगों से वोट मांगते नजर आये थे और लोगों से भ्रष्टाचार मुक्त राज्य बनाने का वादा किया था! इसलिए इस बार टीएमसी को पश्चिम बंगाल की जनता का भरोसा वापस जीतने के लिए काफी पसीना बहाना पड़ रहा है. ममता के सामने एक मुश्किल और भी है और वो है कॉंग्रेसी, जो पिछले चुनाव में ममता के साथ थे लेकिन इस बार गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं. ममता को हराने के लिए कांग्रेस और लेफ्ट एक हो गये हैं, ऐसे में ममता का मुकाबला अकेला लेफ्ट से नहीं बल्कि कभी उनके साथी रहे कांग्रेस से भी है. ये सर दर्द कम नहीं था कि भाजपा के नरेंद्र मोदी ने दीदी की सरदर्दी को और बढ़ा दिया है. अपनी धुआंधार रैलियां, आक्रामक भाषण, और विरोधियों की बखिया उधेड़ना की कला से मोदी ने दीदी को आफत में डाल दिया है. अपने चिरपरिचित अंदाज में प्रधानमंत्री ने मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा था कि टीएमसी का मतलब है ‘टेरर, मौत और करप्शन’!
मोदी ने कहा था, ‘तृणमूल कांग्रेस नेताओं के खिलाफ नारदा स्टिंग ऑपरेशन को टीवी पर दिखाया गया था और इतने बड़े घोटाले के बाद भी दीदी ने आरोपियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया और न ही उन्हें पार्टी से निष्कासित किया! प्रधानमंत्री इशारा करने से नहीं चुके कि 'दीदी ने भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया है'. बौखलाई ममता बनर्जी भी कहाँ पीछे रहने वालीं थी. वो भी उतर आईं मैदान में और कुछ ज्यादे ही आक्रामकता से पेश आईं, जिसका नतीजा ये हुआ कि चुनाव आयोग ने ममता बनर्जी को नोटिस भेज दिया. इस नोटिस के जवाब में ममता बनर्जी ने कहा कि कई बार कारण बताओ दिखावा (शो) होता है. मैं सही कारण के लिए कारण बताओ का समर्थन करती हूं और उन्होंने लगभग चुनाव आयोग को धमकाते हुए कह डाला कि मैं 19 मई (मतगणना की तारीख) के बाद देख लूंगी! इस बयान के बाद ममता की आलोचना होना लाजमी थी और हुई भी! विरोधी यह भली-भांति जानते हैं कि ममता बनर्जी को उत्तेजित करना आसान है. इससे पहले भी ममता सार्वजनिक जगहों पर अपना क्रोध दिखा चुकी हैं, चाहे वो संसद में रेलमंत्री के ऊपर सॉल फेंकना हो या लोकनायक जय प्रकाश नारायण के कार के बोनट पर चढ़ के विरोध प्रदर्शन! लगे हाथो प्रधानमंत्री मोदी ने 'आचार संहिता उल्लंघन' के मुद्दे पर ममता को चुनाव आयोग की ओर से नोटिस पर सलाह दे डाला कि, 'दीदी, चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है, पूरी दुनिया में इसकी मान्यता है! किसी खेल में जैसे खिलाड़ी अंपायर की आज्ञा का पालन करते हैं, उसी तरह आयोग का आदर करना राजनीतिक पार्टियों का कर्तव्य है'. हालाँकि, राजनेताओं को आपा खोने के बजाय, धैर्य से पेश आना ही चाहिए, और ममता को भी 'चुनाव आयोग के कारण बताओ नोटिस के बाद उनसे मिलना और अपना पक्ष रखना था, तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने थोड़ी ज्यादा ही आक्रामकता दिखा दी.
वैसे भी, चुनाव आयोग से लड़ने की बजाय अगर ममता पश्चिम बंगाल में प्रशासन पर केंद्रित रहीं होतीं तो हालात आज दुसरे होते! पर सच्चाई तो यह है कि आज भी बंगाल में भारी आर्थिक संकट है और यह राज्य बदहाली से बाहर नहीं आ पा रहा है. कोलकाता जैसा शहर, बर्बाद हो चुका है तो युवाओं के लिए स्कोप की भारी कमी सी हो गयी है. हालाँकि, तमाम आंकलनों के अनुसार, बंगाल में बीजेपी का जीतना मुश्किल है, इस के बावजूद बीजेपी ने काफी सशक्त रूप से वहां अपनी दावेदारी पेश की है. उसने रूपा गांगुली और लाकेट चैटर्जी जैसी नामचीन हस्तियों को चुनाव प्रचार में उतारा है, जिसका सीधा मतलब है ममता का वोट और प्रभाव दोनों ही कम होंगे! हालाँकि, ममता बनर्जी पूरे जोश-ओ-खरोश से मैदान में डंटी हैं. हमारे देश में लौह महिला का ख़िताब भले ही स्वर्गीय "इंदिरा गांधी" के पास है, लेकिन ममता बनर्जी का संघर्ष भी कुछ कम नहीं है. बंगाल की राजनीति में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के लगभग 34 वर्ष लंबे और बदहाल शासनकाल को समाप्त करते हुए मुख्यमंत्री बनना ममता बनर्जी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. हालाँकि, वह पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक स्तर पर कुछ ख़ास बदलाव ला पाने में सफल हुईं हों, ऐसा नज़र नहीं आता. हालाँकि, वहां के लोगों के पास विकल्प कुछ ख़ास नहीं हैं, ऐसे में दीदी की दादागिरी के बावजूद अगर 'ताज' उनके माथे पर सज जाए तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए. वैसे, चुनाव के कुछ फेज संपन्न हुए हैं और वहां भारी मतदान के आंकड़े भी ममता बनर्जी के पक्ष में हो सकते हैं. वैसे, राजनीति संभावनाओं का खेल है और अंतिम निर्णय वोटर के हाथ ही में होता है और इसका परिणाम देखने के लिए 19 मई तक इंतजार करना ही होगा.
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1 टिप्पणियाँ
किसी ज़माने में कलकत्ता आर्थिक नगरी हुआ करता था. लेकिन अब शायद सबसे पिछड़ा शहर बन के रह गया है. इस बदहाली की जिम्मेदारी कौन लगा.
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