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2016 में 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं तो पश्चिम बंगाल से 'दीदी' ममता बनर्जी दहाड़ती हुई नज़र आयी हैं. वस्तुतः भाजपा के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े, यानी नरेंद्र मोदी को रोकने वाले चंद बेहद मजबूत और ज़मीनी नेताओं में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो शुमार हो गयी हैं. शुमार शब्द कहना थोड़ा कम आंकना होगा ममता बनर्जी को, बल्कि मोदी विरोध के अग्रिम पंक्ति के एक-दो नेताओं में उन्होंने अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है. हालाँकि, बिहार से नीतीश कुमार भी मोदी विरोध में ताल ठोंक रहे हैं और उनको काफी चर्चा भी मिली है, किन्तु नीतीश कुमार और ममता बनर्जी में कुछेक बातें हैं, जो ममता के पलड़े को थोड़ा भारी करती हैं. बेहद साफगोई से बात रखने वाली ममता बनर्जी ने चुनाव परिणाम अपने पक्ष में आने के बाद भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी आड़े हाथों लिया और साफ़ तौर पर कहा कि 'नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी यूएसपी (USP) खुद राहुल गांधी हैं. जरा देखिये, इस बुलंद लेडी को, जो भविष्य में केंद्रीय भूमिका की खातिर कांग्रेस द्वारा खुद को समर्थन की परवाह किये बिना 'कांग्रेस को आइना दिखा रही है कि 'राहुल गांधी' को ढोने और 'कांग्रेसी दोहरेपन' से पार पाए बिना यह पुरानी पार्टी ख़त्म भी हो सकती है. वहीं नीतीश कुमार ऐसे मामलों में लचर रवैया अपनाते हैं. जाहिर है, देश के लोगों को अगर नरेंद्र मोदी का विकल्प ढूँढ़ने की आवश्यकता महसूस होती है तो वह किसी बुलंद नेतृत्व की ओर ही देखना चाहेंगे, बजाय कि किसी कांग्रेसी पिछलग्गू के! खैर, केंद्रीय भूमिका के प्रश्नों और उनके उत्तर में अभी समय शेष है. हाल-फिलहाल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव का परिणाम लगभग घोषित हो चुका है. पिछली बार की तरह इस बार भी तृणमूल कांग्रेस ने मजबूती से वापसी की है.
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2011 में जहाँ पश्चिम बंगाल के 294 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी गठबंधन को 227 और वामपंथी पार्टी को 62 सीटें मिली थी, वहीं इस बार भी आंकड़ा लगभग इसी के पास है. 215 के आस-पास सीटें इस बार तृणमूल कांग्रेस ने हासिल की है, जबकि भाजपा ने 6 और वामपंथी और कांग्रेस के मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद 72 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है. इस विधानसभा चुनाव में वाम के साथ कांग्रेस के अस्तित्व का भी सवाल था और यही कारण है कि कांग्रेस और वाममोर्चे के गठबंधन ने सियासी घमासान को दिलचस्प बना दिया. हालाँकि, ममता बनर्जी ने कांग्रेस की इस रणनीति को 'बुरी रणनीति' करार दिया और जाहिर है कि उनकी बातें चुनाव परिणामों के बात सच ही निकली हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि 'मां, माटी मानुष' के नारे के साथ सत्ता में आईं दीदी के लिए यह चुनाव शारदा घोटाले और स्टिंग के बाद एक कठिन परीक्षा से कम नहीं था, लेकिन चुनाव परिणामों को देखा जाय तो इसका कोई खास असर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल पर नहीं पड़ा है. अब यह बात साफ़ हो गयी है कि यह मुद्दा सिर्फ विपक्ष को उंगली उठाने के मौके से ज्यादा कुछ भी नहीं था और जनता ने भी इसे इसी रूप में लिया! बताते चलें कि ममता की पहचान 'सादगी की प्रतीक' जमीन से जुड़ी ऐसे नेता के रुप में होती है जो शासन-व्यवस्था को जनता के सरोकारों और जन सहभागिता के साथ आगे बढाने में विश्वास करती हैं. यह चुनाव ममता ने अपने दम पर लड़ा और चिर प्रतिद्वंद्वी वामपंथियों और कांग्रेस के एकजुट होने से भी उनके अभियान पर कोई असर नहीं हुआ. सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों के हक में जमीन अधिग्रहण विरोधी लड़ाई के जरिए गरीबों की मसीहा के तौर पर उभरीं ममता पर निजी या सार्वजनिक जीवन में उनके रहन-सहन और आचरण पर अब तक सवाल नहीं उठे हैं और यही उनकी यूएसपी (USP) भी है.
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हालाँकि, आज की राजनीति की यह एक कड़वी सच्चाई हो गयी है कि कई जगहों से 'विपक्ष' की भूमिका ही समाप्त होती जा रही है और पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी एकमात्र विकल्प के रूप में नज़र आ रही हैं. सूत्रों की मानें तो, ममता बनर्जी के बेदाग राजनीतिक करियर के बावजूद वहां के चुनाव का मुख्य मुद्दा जबरन वसूली और भ्रष्टाचार ही था. वामदल के पास पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की सूरत में एक दिग्गज जरूर था, लेकिन वे इस चुनाव में राजनीतिक रूप से कम सक्रिय दिखे और प्रचार में भी कम ही देखे गए. यहां अन्य राज्य से आए लोगों खासकर मारवाड़ी, गुजराती और भोजपुरी समुदाय के लोगों को लुभाने का तमाम नेताओं ने भरसक प्रयास किया, लेकिन अंततः मामला ममता बनर्जी के पक्ष में ही रहा. हालाँकि, भाजपा को 6 सीटें इस राज्य में जरूर मिली हैं, किन्तु जाहिर तौर पर उसे इस राज्य से कहीं ज्यादा की उम्मीद रही होगी! यहाँ प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह, राजनाथ सिंह के साथ भाजपा के कई और नेताओं का प्रचार करना भी कुछ ख़ास काम नहीं आया. हालाँकि, इस परिणाम को भाजपा अपने लिए संतोषजनक मान सकती है, किन्तु इससे यह साफ हो जाता है कि बीजेपी के लिए बंगाल की डगर उतनी भी आसान नहीं है, जितनी आसानी से उसके नेता चुनाव प्रचार में ममता बनर्जी पर हमले करते रहे हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में जहां सभी पार्टियां धराशायी नजर आई, लेकिन तब भी ममता बनर्जी ने लोकसभा की 34 सीटों पर कब्जा कर एक संदेश दे दिया था.
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उसके दो साल बाद भी भाजपा ममता बनर्जी की राजनीतिक काट तलाशने में असफल ही रही. वोट शेयर भी मात्र 9% ही हासिल कर सकी है भाजपा इस प्रदेश में, किन्तु जहाँ एक पक्ष की हवा चल रही हो, वहां आप बहुत ज्यादा नहीं कर सकते हैं. हालाँकि, सबसे दिलचस्प रहा है ममता बनर्जी के जीतने के रूझान आने के बाद दिए गए बयान! इसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों को 'दीदी' ने जिस अंदाज में आइना दिखाया है, उसे हलके में नहीं लिया जा सकता है, क्योंकि ममता बनर्जी ने साफ़ तौर पर नीतीश कुमार के साथ जाने के संकेत भी दिया है. आने वाले दिनों में राष्ट्रीय राजनीति क्या करवट लेती है, यह बेहद दिलचस्पी के साथ देखने वाली बात होगी. कांग्रेस के प्रति 'दीदी' के कठोर रूख ने यह जता दिया है कि अब 'मोदी विरोध' की राजनीति सोनिया या राहुल की पहुँच से बाहर निकल चुकी है. हालाँकि, अभी जश्न मनाने के समय है तृणमूल कार्यकर्ताओं के लिए और बाकी लोगों के लिए उन्हें बधाई देने के समय है, ठीक वैसी ही बधाई, जैसे नीतीश ने दी है 'संघ और भाजपा मुक्त' भारत की लड़ाई लड़ने वाले नए 'झंडाबरदार' के रूप में!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली. यदि आपको मेरा लेख पसंद आया तो...
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