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जी हाँ, वैसे तो भारतीय संसदीय प्रणाली में राज्यसभा को अपेक्षाकृत भद्रजनों का सदन कहा गया है, पर यह बिडम्बना ही है कि इस बार कुछ खाली हुई सीटों पर खरीद फरोख्त की काली छाया का आरोप लगा! आरोप भी कोई आम नहीं, बल्कि इसे लेकर चुनाव आयोग तक ने बैठक की. जाहिर है, किसी भी संस्था की साख पर जब प्रश्नचिन्ह उठता है तो उसके लिए यह बेहद चिंतनीय बात होती है, लेकिन वह राजनीति ही क्या जहाँ राजनेता चिंतित हो जाएँ! आखिर, राजनीति तो जनता को चिंतित करने, उसको परेशान करने की चीज है! आप मेरी बातों को मजाक में न लीजिए, अन्यथा पिछले दो सालों से राज्यसभा में कामकाज का स्तर किस कदर गिरा है, यह बात आम-ओ-ख़ास सबको ही पता है. पहले तो लोकसभा में नए-नए सांसद आते थे, जिन्हें संसदीय परम्पराओं और मर्यादाओं का भान नहीं होता था, इसलिए वह सदन के कार्यों में बाधा उत्पन्न करते थे, रूकावट पैदा करते थे, लेकिन पिछले दो सालों से आश्चर्यजनक परिवर्तन तो यही है कि 'समझदार लोग ज्यादा उद्दण्ड होते दिखे हैं'.
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11 नए सांसद (अधिकांश पुराने नेता) राज्यसभा में पहुंचकर कोई चमत्कार कर देंगे, यह सोचना दिवास्वप्न ही है! खैर, प्रक्रियाओं को पूरा करना ही पड़ता है और यह प्रक्रिया भी तमाम चक्रों-कुचक्रों के बीच पूरी हो गयी तो जीतने वाले उम्मीदवारों की घोषणा भी हो चुकी है. हालाँकि, इस बीच सदन की गरिमा को कितनी चोट पहुंची है, यह जरूर देखने वाली बात है. हालाँकि, गरीम में गिरावट केवल राजनीति का ही विषय नहीं है, बल्कि साहित्यिक-सामाजिक क्षेत्रों के लोग भी बाल की खाल पकड़कर अपने मनमाफ़िक विषयों पर खूब पुरस्कार वापसी का खेल ज़ोरदार ढंग से खेले, वहीं जो मामला उन्हें मुफीद नहीं लगा, चुप्पी साध गए. खैर, यहाँ जब बात हम राज्यसभा चुनाव की कर रहे हैं तो यह समझना और खुली आँखों से देखा जाना जरूरी है कि 'चुनावों में धन' किस प्रकार अपनी काली परछाईं फैलाता है. लोकतंत्र पर यह किसी काले धब्बे से कम नहीं है और यह न केवल इस बार, बल्कि पहले भी बार-बार साबित हुआ है.
"हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीना ठोक कर कह रहे हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार, काली कमाई रोक दी है. अगर सच में ऐसा है तो फिर राज्यसभा उम्मीदवारों को जीतने-जिताने के लिए यह खेल कहाँ से हो रहा है? और कौन इसे अंजाम दे रहा है, इस बात का जवाब हमारे संसदीय तंत्र को अवश्य ही देना चाहिए.
यूँ तो भारत में चुनावी मौसम साल भर चलते रहता है, और अभी हो रहे विधान परिषद और राज्य सभा के चुनाव ने इसी क्रम में जबरदस्त तरीके से सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा है. कर्नाटक में विधायकों की खरीद-फरोख्त का स्टिंग जबसे सामने आया है, तबसे चुनाव नकारात्मक रूप से चर्चित हो गया है. जैसाकि हम जानते हैं कि 7 राज्यों, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, झारखण्ड और उत्तराखंड में विधान परिषद की 13 सीटों और राज्यसभा की 11 सीटों के लिए चुनाव हुए. हालाँकि, अब परिणाम आ चुके हैं, लेकिन इन परिणामों से पहले कहाँ-कहाँ गोटियां बिछाई गयीं, यह समझना भी जरूरी है. इन चुनावों में विधायकों की कुल संख्या 403 थी, जहाँ विधान परिषद की 13 सीटों के लिए 14 उम्मीदवार मैदान में थे, जबकि राज्यसभा की 11 सीटों पर 12 उम्मीदवारों की दावेदारी थी.
गौरतलब है कि इस साल रिटायर हो रहे राज्यसभा सदस्यों की वजह से इस चरण में 57 सीटों पर सांसदों को चुना जाना था. इसमें 30 उम्मीदवार तो निर्विरोध चुने गए थे, लेकिन 27 लोगों के भाग्य का फैसला वोटिंग के द्वारा हुआ. इसमें जो प्राप्त परिणाम आये हैं, उसके अनुसार, केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू, मुख्तार अब्बास नकवी और निर्मला सीतारमन राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए हैं. राजस्थान से राज्यसभा की चार सीटों पर नायडू के अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर, हर्षवर्धन सिंह और रामकुमार वर्मा ने भी जीत दर्ज कर ली है. इसी कड़ी में, कांग्रेस पार्टी समर्थित निर्दलीय उद्योगपति कमल मोरारका हार गए हैं. उत्तराखंड से राज्यसभा की सीट कांग्रेस के खाते में गई है और कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टम्टा के सर जीत का सेहरा बंधा है. उत्तराखंड में वैसे भी लोगों की नज़र जमी हुई थी, क्योंकि कांग्रेस के बागी 9 सदस्य पहले ही सदन से बर्खास्त थे तो दो और विधायकों की सदस्यता भी पिछले दिनों शक्ति परीक्षण में दलबदल के बाद चली गई थी.
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गौरतलब है कि इस साल रिटायर हो रहे राज्यसभा सदस्यों की वजह से इस चरण में 57 सीटों पर सांसदों को चुना जाना था. इसमें 30 उम्मीदवार तो निर्विरोध चुने गए थे, लेकिन 27 लोगों के भाग्य का फैसला वोटिंग के द्वारा हुआ. इसमें जो प्राप्त परिणाम आये हैं, उसके अनुसार, केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू, मुख्तार अब्बास नकवी और निर्मला सीतारमन राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए हैं. राजस्थान से राज्यसभा की चार सीटों पर नायडू के अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर, हर्षवर्धन सिंह और रामकुमार वर्मा ने भी जीत दर्ज कर ली है. इसी कड़ी में, कांग्रेस पार्टी समर्थित निर्दलीय उद्योगपति कमल मोरारका हार गए हैं. उत्तराखंड से राज्यसभा की सीट कांग्रेस के खाते में गई है और कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टम्टा के सर जीत का सेहरा बंधा है. उत्तराखंड में वैसे भी लोगों की नज़र जमी हुई थी, क्योंकि कांग्रेस के बागी 9 सदस्य पहले ही सदन से बर्खास्त थे तो दो और विधायकों की सदस्यता भी पिछले दिनों शक्ति परीक्षण में दलबदल के बाद चली गई थी.
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अगर इस बात को समझने की कोशिश करें तो कुछ ऐसा होगा, जिसमें वरीयता क्रम के फार्मूलेे के चलते प्रथम वरीयता के मतों में अगर किसी उम्मीदवार को सबसे कम वोट मिल रहा हो, लेकिन उसे द्वितीय या अन्य वरीयता के ज्यादा वोट मिल जाएं, तो वह उम्मीदवार अपने प्रतिद्वन्दियों से आगे निकल सकता है. जाहिर है, यहाँ हर वोट की अलग मगर अहम कीमत रहती है. ऐसे में, राज्यसभा के लिए एक उम्मीदवार के लिए न्यूनतम 34 और विधान परिषद के उम्मीदवार के लिए न्यूनतम 29 वोटों की जरूरत होती है. इस कड़ी में, विधान परिषद की 13 सीटों पर14 उम्मीदवार, जबकि राज्यसभा की 11 सीटों पर 12 उम्मीदवार थे. इस लिहाज से राज्यसभा के 12 उम्मीदवारों को प्रति उम्मीदवार 34 वोट के हिसाब से 408 वोट चाहिए थे, जबकि विधान परिषद में 14 प्रत्याशियों को 406 वोट चाहिए थे. गौर करने वाली बात यह भी है कि इस चुनाव में विधायकों की संख्या 403 थी और इसमें कुछ के वोट निरस्त हो गए थे. अब साफ तौर कुछ उम्मीदवारों को निर्धारित कोटे से कम वोट मिलने की बात थी और यहीं पर 'गणित' की जरूरत माननीयों को थी! अब ऐसे में सारी पार्टियां अपना सारा दमखम और जुगाड़ तकनीक का इस्तेमाल स्वाभाविक रूप से कर रही थीं अपने- अपने दल के उम्मीदवारों को जिताने के लिए! स्टिंग के सामने आने की वजह से कर्नाटक का मामला तो वैसे ही हाइलाइटेड था तो बाकी राज्यों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही थी.
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उत्तर प्रदेश की बात करें तो राज्यसभा के लिए भाजपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी प्रीति महापात्रा द्वारा समीकरण बिगाड़ने की बात कही जा रही थी, लेकिन अंततः यह गुब्बारा फूट गया. हालाँकि, क्रॉस-वोटिंग के डर से खलबली खूब मची तो बिचारे, हर सरकार में मलाई खाने वाले अजीत सिंह बेरोजगार से हो गए थे, लेकिन चुनावी समीकरण के कारण उनका महत्व बढ़ गया था. इस चुनाव में वोट-समीकरणों के अतिरिक्त, टीका टिप्पणियां और नोंक झोंक भी खूब हुई. समाजवादी पार्टी के अब राज्यसभा सांसद अमर सिंह ने राज्यसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बीच हुई नोकझोंक पर चुटकी ली और भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधते हुए कहा कि "बीजेपी करे तो रासलीला बाकी कोई और करे तो उनका कैरेक्टर ढीला!" साफ़ तौर पर अमर सिंह का मंतव्य कहीं और रहा होगा, किन्तु वह खुद हमाम में किस कदर नंगे हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है! जाहिर है, अब जबकि परिणाम आ चुके हैं, तब चुनाव में किन हथियारों का प्रयोग हुआ, यह बात धुंधली पड़ जाएगी. पर उच्च सदन के सदस्यों के साथ-साथ पूरी व्यवस्था को यह जरूर सोचना चाहिए कि उन पर निम्न आरोप क्यों लगे! क्या वाकई, ऐसे आरोप और इस प्रकार का संशय लोकतंत्र के हित में है? इस यक्ष प्रश्न पर विचार किये बिना उच्च सदन किन मायनों में उच्च सदन कहलायेगा, यह समझना बेहद उलझाऊ है. ठीक, 12 उम्मीदवारों के इस चुनाव की ही तरह, जो जीत तो गए हैं, लेकिन उनमें से कई अपने पीछे उलझनें भी छोड़ गए हैं!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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