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नसीरुद्दीन की 'साफगोई' पर हमले की बजाय फिल्मों की 'क्वालिटी' पर ध्यान दे बॉलीवुड! Naseeruddin Shah, Rajesh Khanna, Hindi, Film Industry, Quality, Hollywood, Regional Cinema, Original Story



पिछले दिनों बॉलीवुड के उम्दा अभिनेताओं में गिने जाने वाले नसीरुद्दीन शाह ने फिल्म इंडस्ट्री के प्रथम सुपरस्टार माने जाने वाले राजेश खन्ना की एक्टिंग और सिनेमा के गिरते स्तर पर जो कुछ कहा, उससे उनके परिवारीजनों का भड़कना तो जायज़ माना जा सकता है, किन्तु बाकी लोगों को इस विवाद पर ओवर-रिएक्ट क्यों करना चाहिए? हालाँकि, नसीरुद्दीन शाह भी बॉलीवुड में गिरावट पर बात करते करते राजेश खन्ना पर व्यक्तिगत हमले करने लगे थे, किन्तु उस दौर में बॉलीवुड फिल्मों में कहानी के नाम पर आपको कुछ खास मिलेगा भी नहीं. यह पूरा मामला कुछ यूं था कि नसीरुद्दीन शाह ने एक बयान में सुपरस्टार राजेश खन्ना को 'कमज़ोर' अभिनेता करार (Naseeruddin Shah, Rajesh Khanna, Hindi, Film Industry, New Article) दिया था. हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक साक्षात्कार में नसीर ने फिल्मों के स्तर गिरने के लिए राजेश खन्ना को जिम्मेदार ठहरा दिया था और खुलकर कहा था कि 'यह 70 का दशक था जब हिंदी फिल्मों का स्तर औसत हो गया था. यह उस समय की बात है जब राजेश खन्ना ने बॉलीवुड में अपना कदम रखा था. वह बहुत सफल हुए, लेकिन मेरे लिए उनका अभिनय काफी सीमित था. वास्तव में वह एक 'कमजोर अभिनेता' थे। मैं जितने लोगों से मिला हूं, उनमें से बौद्धिक तौर पर वह मुझे सबसे कम जागरूक लगे. फिर उनके साधारण अभिनय की छाप पूरे बॉलीवुड पर पड़ गई.' शाह अपने उस साक्षात्कार में यहीं नहीं रुके थे, बल्कि उन्होंने यहाँ तक कह डाला था कि उस समय आपको फिल्में बनाने के लिए किसी कहानी की जरूरत नहीं थी, बल्कि आप किसी हीरो-हीरोइन को लाल-पीले कपड़े पहनाकर फिल्में बना सकते थे. 

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उनकी इस टिपण्णी पर बवंडर उठना ही था, तो इस पर प्रतिक्रिया देते हुए ट्विंकल ने ट्वीट करके शाह से कहा था कि 'उन्हें कम से कम गुज़र चुके लोगों का लिहाज़ करना था. इसके बाद ट्विंकल ने एक और ट्वीट किया जिसमें उन्होंने शाह को राजेश खन्ना की सफल फिल्में याद दिलाई. हालाँकि, बाद में नसीरुद्दीन शाह ने अपनी उस टिप्पणी पर माफी मांग ली और कहा कि 'मैं उन लोगों से माफी चाहता हूं जो मेरी बात से निजी तौर पर आहत हुए हैं, मेरा इरादा उनको (राजेश खन्ना) निशाना बनाने का नहीं था.' मामला यहाँ शांत हो गया और स्व. राजेश खन्ना के दामाद अक्षय कुमार ने भी इस मामले को रफा दफा करते हुए कहा कि जब नसीरुद्दीन शाह ने माफ़ी मांग ली है तो यह मामला ख़त्म (Hindi, Film Industry, Quality, Hollywood, Regional Cinema, Original Story) समझा जाना चाहिए. फिर तो नसीरुद्दीन की बात पर एक तरह से फ़िल्मी दुनिया में राजनीति ही शुरू हो गयी. छोटे-बड़े सभी लोग मैदान में उतर आये और फिल्मों के जिस गिरते स्तर पर नसीर ने चिंता जताई थी, वह कहीं गौड़ हो गया! भाई, नसीरुद्दीन ने राजेश खन्ना का बेशक नाम लिया, जो उन्हें नहीं लेना चाहिए था, किन्तु उनका मुद्दा तो फिल्मों का स्तर था, जिसे समझा जाना चाहिए. आज भी हमारी फिल्में वैश्विक स्तर से काफी दूर हैं. कई फिल्में तो 'सेल्फी-स्टाइल' में बनती हैं, जिसके बारे में बात करना भी सिनेमाई कला का अपमान करना है. सच कहा जाए तो फिल्मों का हमारा स्तर आज भी बेहद घटिया है और यही बात तो नसीरुद्दीन शाह ने उठायी थी. आज भी हाउसफुल 3, ग्रेट ग्रैंड मस्ती, क्या सुपर कूल हैं हम की सीरीज जैसी मूवीज बनती हैं तो बढ़िया कहानी और रिसर्च करने वाले लेखकों और निर्देशकों को बॉलीवुड किनारे लगा देता है. 


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हमारे यहाँ के इरफ़ान खान, प्रियंका, दीपिका और अनिल कपूर जैसे कुछेक अभिनेताओं को हॉलीवुड फिल्मों में एकाध सीन मिल जाता है तो इंडिया में 'ब्रेकिंग न्यूज' बन जाती है, आखिर क्यों? साफ़ है कि हमारा बॉलीवुड आज भी विश्व सिनेमा के पासंग भी खड़ा नहीं होता है. यहाँ पूरे विश्व में सबसे ज्यादा फिल्में जरूर बनती हैं, किन्तु क्वालिटी और रिसर्च की कसौटी पर कसा जाए तो शायद ही एकाध नाम आपके दिमाग में आये. यहाँ तक कि 2016 में रिलीज 'बाहुबली' जैसी क्षेत्रीय फिल्म से टक्कर लेने का माद्दा बॉलीवुडिये फिल्मकार नहीं दिखला पाते हैं. ऐसे में अगर नसीरुद्दीन शाह ने फिल्मों की क्वालिटी (Naseeruddin Shah, Rajesh Khanna, Hindi, Film Industry, Quality of Movies) पर सवाल उठाये तो क्या गलत किया? नसीरुद्दीन शाह ने भी अभिनय दुनिया को बहुत कुछ दिया है और अगर एक वरिष्ठ अभिनेता व्यापक परिप्रेक्ष्य में सिनेमाई क्वालिटी की बात करता है तो उससे सीख ली ही जानी चाहिए, न कि उसकी बातों में व्यक्तिगत मीन-मेख निकालकर मामले को किसी और दिशा में मोड़ने का प्रयास करना चाहिए. राजेश खन्ना तो नहीं रहे, किन्तु सवाल आज के फिल्मकारों, लेखकों और अभिनेताओं का भी है. मामला थोड़ा ठंडा पड़ने पर नसीर ने इस मामले में सफाई देने की कोशिश की है. उन्होंने एक बार फिर सवाल किया है कि क्या घर के बाहर जमा होने वाली भीड़ से कोई एक्टर महान बन जाता है? जाहिर तौर पर वे सलीम खान की उस बात को भी गलत ठहरा रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरे बेटे (सलमान खान) के घर के सामने लगने वाली भीड़ से ज्यादा लोग राजेश खन्ना के बंगले के सामने जमा हुआ करते थे. इस बात में भला क्या शक है कि लोकप्रियता एक अलग मानक है तो अभिनय और अच्छी फिल्मों का निर्माण बिलकुल अलग! 

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नसीरुद्दीन शाह ने यह कह कर विवाद पैदा करने वालों पर निशाना भी साधा कि जब खन्ना जीवित थे तो बॉलीवुड ने उन्हें कितना सम्मान दिया? इस सम्बन्ध में, नसीर ने आगे कहा कि "70 के दशक में साहित्यिक चोरी की शुरुआत हुई, तो संगीत, स्क्रिप्ट राइटिंग, स्टोरीटेलिंग सब कुछ औसत था. खन्ना के अलावा, 70 के दौर में और कौन-से पॉपुलर स्टार थे. जॉय मुखर्जी, बिस्वजीत चटर्जी... क्या कोई भी इन महानुभावों को याद करता है? अपनी बातों से निकले चर्चा को नसीरुद्दीन ने आगे बढ़ाया जो निश्चित रूप से एक सार्थक डिस्कशन में तब्दील हो सकती है और बॉलीवुड का भला चाहने वालों को इससे परहेज करने की बजाय इसमें अपने लिए सीख ढूंढनी चाहिए. शाह ने उस दौर की बात कहते हुए आगे कहा कि उस समय देव आनंद, राज कपूर और दिलीप कुमार की तिकड़ी का आकर्षण ढल रहा था, तो बॉलीवुड को एक नए आइकन (Hindi, Film Industry, Quality, Hollywood, Regional Cinema, Original Story, Icon) की जरूरत थी और राजेश खन्ना ने उस मांग को पूरा किया." नसीर यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री को अवसरवादी बताते हुए कहा कि "बॉलीवुड ने राजेश को क्रिएट किया, इस्तेमाल किया और जब वे पैसा बनाने वाली मशीन नहीं रह गए तो उन्हें दूर फेंक दिया." आखिर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि "अवसरवादिता ही बॉलीवुड का स्वभाव बन चुका है और पैसा कमाने के अतिरिक्त समाज को दिया जाने वाला मेसेज और सिनेमाई कला की परवाह यहाँ कम लोग ही करते हैं." आज बॉलीवुड को इन बातों पर विचार करने की जरूरत है कि क्यों हॉलीवुड फिल्मों का इन्तजार हर शुक्रवार को भारतीय दर्शक करने लगे हैं तो क्षेत्रीय सिनेमा को डब करके रोज टेलीविजन पर चलाया जा रहा है. यह बेहद आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों साउथ सिनेमा इंडस्ट्री की दर्जनों फिल्मों का रीमेक बॉलीवुड में बनाया गया और वह सफल भी हुईं. साफ़ जाहिर है कि यहाँ, वहां से कहानी उठाकर सड़ियल फिल्म बनाने की मानसिकता पर नसीर ध्यान दिलाना चाहते थे, किन्तु दुर्भाग्य से उनकी कही बातों को व्यक्तिगत चर्चा में बदल दिया गया और असल मुद्दा जस का तस ही रह गया. ऐसे में तो 
भारतीय सिनेमा के क्वालिटी की गाड़ी और ओलंपिक खेलों में भारत को मिलने वाले पदकों की तुलना एक सटीक रूपक हो सकता है. क्या कहते हैं आप ... !!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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