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दर्शकों के विवेक पर भरोसा करे 'सेंसर बोर्ड' - Censor board and Indian Cinema, Bollywood, Hindi Article, Mithilesh

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जब से फिल्मकार पहलाज निहलानी ने सेंसर बोर्ड की अध्यक्षता संभाली है, काफी फिल्मों में उन्होंने कुछ ना कुछ बदलाव किया है, जिससे फिल्मकारों का एक बड़ा समूह उनके खिलाफ रहा है. फिल्में समाज को आइना दिखाने का काम करती है, क्योंकि फिल्मों का आधार कहीं न कहीं वास्तविकता से जुड़ा होता है और ऐसे में सेंसर बोर्ड को थोड़ी उदारता अवश्य ही दिखानी चाहिए. यदि हम समाज की दृष्टि से सोचें, तब भी सच सामने आना चाहिए और अगर फिल्मकारों की दृष्टि से देखें, तब तो उनकी मेहनत पर की गयी काट-छांट पर उनका परेशान होना जायज़ ही दिखता है. हाल-फिलहाल 'उड़ता पंजाब' फिल्म को ही देख लें, जिसका सीधा संबंध पंजाब में मादक पदार्थ (ड्रग्स) की समस्या झेल रहे लोगों से है. यह पूरा विवाद बेहद अजीब हो गया, क्योंकि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म में कई कट तो लगाए ही, साथ ही साथ इस फिल्म के नाम से 'पंजाब' शब्द हटाने का फरमान सुना डाला! कोई कुछ भी कहे, लेकिन ऐसे में सेंसर बोर्ड का निर्णय बेतुका तो लगता ही है, क्योंकि इससे पहले इसी फिल्म का ट्रेलर, इसी नाम से वह पास कर चुके हैं! अब क्या फिल्मकारों को वह 'ऊँगली' पकड़ कर सिखलायेंगे कि 'कहानी और फिल्में' ऐसे और वैसे बनाइये! सच कहा जाए तो इस तरह के विवाद खड़ा करके मामले को और भी गम्भीर बना दिया जाता है, तो लोगों की उत्सुकता भी ऐसी फिल्मों के प्रति अनावश्यक रूप से बढ़ जाती है. सेंसर बोर्ड से पूछा जाना चाहिए कि उसको 'मस्तीजादे' जैसी अश्लील और बेतुकी फिल्म को पास करने में कोई परेशानी नहीं हुई, तो फिर जिंदगी को डूबने वाली नशा पर बनी फिल्म 'उड़ता पंजाब' के लिए इतना विवाद क्यों? देखा जाय तो यह पहली बार नहीं है जब सेंसर बोर्ड में किसी फिल्म को लेकर विवाद हुआ है. इससे पहले भी कई फिल्में आई हैं जिसको सेंसर बोर्ड का विवाद झेलना पड़ा है.

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बता दें कि, सेंसर बोर्ड ने अभिषेक चौबे की इस  फिल्म 'उड़ता पंजाब' में पहले ही 89 काट किये हैं, तो फिल्म से पंजाब शब्द हटाने की सलाह भी दे दी गई है, जबकि फिल्म का आधार ही पंजाब का ड्रग्स रैकेट है. इस कड़ी में पहलाज निहलानी ने फिल्म निर्माताओं पर फिल्म बनाने के लिए 'आम आदमी पार्टी' से फण्ड लेने कि बात कही है, जो कहीं ज्यादा निंदनीय है. एक तो कौन किससे फण्ड लेता है, देता है, एक सेंसर-बोर्ड अध्यक्ष का क्षेत्र नहीं है, और उपर से निहलानी की इस बात के पीछे कोई ठोस सबूत नहीं है. क्या सच में एक सेंसर-बोर्ड अध्यक्ष को इस तरह के उलझाऊ बयान देने चाहिए? आखिर, वह एक सरकारी पद पर हैं न कि किसी पार्टी के प्रवक्ता पद पर. हालाँकि, इस फिल्म के सपोर्ट में दिल्ली के आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए ट्विटर पर कहा है कि "पंजाब का युवा नशे से बर्बाद हो चुका है, लेकिन आप क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, क्या बोलेंगे, क्या देखेंगे, क्या पढ़ेंगे - अब ये सब आरएसएस और मोदी जी तय करेंगे." जाहिर है, आम आदमी पार्टी की इस फिल्म के प्रति विशेष दिलचस्पी से प्रश्न तो उठते ही हैं, लेकिन बेहतर होता कि यह प्रश्न ठोस सबूतों के आधार पर प्रतिद्वंदी पार्टियां उठातीं, न कि सेंसर बोर्ड अध्यक्ष के रूप में पहलाज निहलानी! वैसे भी, अगर कोई फिल्मकार अपनी फिल्म में राजनीतिक विषय उठा रहा है तो उस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए और इसी आधार पर इसके लिए पूरा बॉलीवुड एक साथ आगे आ चुका है. गौरतलब है कि फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ में शाहिद कपूर, करीना कपूर खान, आलिया भट और दिलजीत दोसांझ ने मुख्य भूमिका निभाई है. टॉमी सिंह का किरदार निभाने वाले लोकप्रिय अभिनेता शाहिद कपूर का इस बारे में साफ़ कहना है कि हम सूचना और तकनीक की दुनिया में हैं और एक युवा को पता चलना चाहिए कि ड्रग्स से क्या होता है और 'उड़ता पंजाब' युवाओं के लिए संदेश भरी फिल्म है. 

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इसी क्रम में, आलिया भट्ट के पिता महेश भट्ट ने कहा कि "आज से 30 साल पहले अवार्ड जितने वाली फिल्म के लिए ऐसी ही परेशानी का सामना किया था, और हम भारत को सऊदी अरब नहीं बनने दे सकते, जहाँ समृद्धि तो बहुत है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं है." जाहिर है, 'उड़ता पंजाब' को सिर्फ इसलिए प्रताड़ित नहीं करना चाहिए, क्योंकि पंजाब में अकाली-भाजपा की सरकार है और 'ड्रग्स' का मुद्दा उठने से आने वाले चुनावों में उन्हें नुक्सान उठाना पड़ेगा! सही मायने में अगर कहा जाए तो पंजाब की युवा पीढ़ी नशे की भारी गिरफ्त में है, और यह भारत के किसी भी राज्य से कहीं ज्यादा मात्रा में है. इस बात की चर्चा राजनीतिक स्तर पर भी कभी राहुल गांधी तो कई बार अरविन्द केजरीवाल ने खूब की है. इसी क्रम में, जगजीत सिंह (पूर्व जूडो खिलाडी) ने नशे की लत से अपना करियर बर्बाद करने के बाद खुद नशा मुक्ति को मिशन के लिए काम करना शुरू किया है. पंजाब की यह बड़ी हकीकत है, जिससे कोई भी राजनीतिक नेतृत्व मुंह नहीं मोड़ सकता है. कुछ दिन पहले ही पंजाब के सुखबीर सिंह बादल के साले साहब का नशा खुराकी के बिज़नेस पर्दाफाश हुआ था. जाहिर है, ऐसे में हड़कम्प तो मचेगा ही, उपर से पहलाज निहलानी जैसे लोग सेंसर बोर्ड में बैठे हैं, जो बिना बात ही विवाद खड़ा कर देते हैं. जाहिर है, समाज की किसी भी बुराई की चर्चा को दबाया नहीं जा सकता है और वह दब भी नहीं सकती है. दुर्भाग्य से फिल्मों को भी इस तरह की राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है, जो कहीं से भी उचित नहीं है. बेशक फिल्मकार पर 'राजनीतिक दुराग्रह' के आरोप क्यों न लगे हों, दर्शक इस बात को बखूबी समझ जायेंगे कि 'सब्जेक्ट' के साथ न्याय हुआ है अथवा सिर्फ किसी पार्टी के प्रचार की नियति से फिल्म बनी है. ऐसे में पूरा मामला दर्शकों पर ही छोड़ देना उचित रहता और अब चूंकि मामला हाई कोर्ट में है तो शायद वह भी यही निर्णय ले, क्योंकि दर्शकों से बढ़कर फिल्म समीक्षा कोई और नहीं कर सकता है.

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- मिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली.



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