अखिलेश यादव और उत्तर प्रदेश चुनाव की चर्चा इन दिनों बड़े ज़ोर शोर से हो रही है. यूं तो उत्तर प्रदेश चुनाव के सन्दर्भ में भाजपा, बसपा और कांग्रेस तक ने खूब ज़ोर लगाया है और वह विभिन्न कारणों से चर्चा में भी हैं, किन्तु अखिलेश यादव के सन्दर्भ में हो रही चर्चा ने बाकियों को काफी पीछे छोड़ दिया है. यह बात दीगर है कि इस चर्चा का चुनावी परिणाम पर असर सकारात्मक की बजाय सपाई खेमे के लिए नकारात्मक ज्यादा हो सकता है. इस विवाद की हालिया शुरुआत में तो यही लगा कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी मुलायम सिंह यादव ने कोई राजनीतिक पैंतरा फेंका है, किन्तु अखिलेश-शिवपाल विवाद पर अगर शुरू नज़र डाली जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की बजाय टकराव सपा की हकीकत बन चुका है. राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले व्यक्ति अब तक इस बारे में तमाम आंकलन पढ़ चुके होंगे, समझ चुके होंगे और उन सबका लब्ब-ओ-लुआब यही है कि पुरानी पीढ़ी की टकराहट नयी पीढ़ी से है. भारत में प्रचलित कुछ बड़ी कथाओं मसलन रामायण या महाभारत पर अगर आप नज़र डालें तो पूरा नहीं तो कुछ हद तक साम्य जरूर नज़र आएगा. रामायण काल में जब सत्ता के स्वाभाविक दावेदार राम की ताजपोशी की तैयारी होने लगी तो उनके खिलाफ राजनीति करने की कोशिश हुई और फिर उन्हें वन जाना पड़ा. इसी तरह महाभारत काल में युधिष्ठिर की योग्यता से परेशान राजनीति ने उन्हें वर्षों तक वनवास में रखा. न... न... मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अखिलेश यादव राम या युद्धिष्ठिर जैसे योग्य हैं या योग्य नहीं हैं, बल्कि यह फैसला तो जनता को करना है, किन्तु सपा में उनके खिलाफ चल रही राजनीतिक तिलमिलाहट काफी कुछ कह देती है. अखिलेश के खिलाफ छटपटाहट तो 2012 में भी थी, जब वह मुख्यमंत्री बने थे, किन्तु तब उनके विरोधी शायद यह समझ कर चुप रह गए थे कि नया लड़का है, जल्दी ही फेल हो जायेगा और फिर अपना, इसका या उसका नंबर आ जायेगा. Akhilesh Yadav, Samajwadi Party, Hindi Article, New, Shivpal Yadav, Mulayam Singh Yadav, UP Election 2017
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नए होने के बावजूद अखिलेश ने पूरे कार्यकाल तक सजगता से सरकार चलाई और समाजवादी पार्टी की आपराधिक छवि होने के बावजूद खुद को इस छवि से दूर रखने की न केवल कोशिश की, बल्कि इसमें कमोबेश सफल भी रहे. हालाँकि, इस बीच प्रदेश में कई आपराधिक घटनाएं हुईं , सरकार की बदनामी भी हुई, किन्तु बावजूद इसके अखिलेश की छवि बची रही जबकि इन सबका इल्जाम अन्य सपा नेताओं पर लगता रहा. हाँ, अखिलेश के ऊपर अन्य सपा नेताओं के हावी होने की भरपूर आलोचना हुई और उन्हें आधा मुख्यमंत्री तक कहा गया, वह भी साढ़े चार में से आधा! खैर, आलोचना अपनी जगह है किन्तु अखिलेश यह बात बखूबी जानते थे कि समाजवादी पार्टी में उनके विरोधी यही चाहते थे कि वह बीच कार्यकाल में अपना धैर्य खोएं और फिर अखिलेश को नाकाम साबित कर दिया जाए. बार-बार उन्हें उकसाया गया, उनके फैसलों को नीचा दिखाने की हद तक पलटा गया, किन्तु राजनीति समझने वाले इस लड़के की तारीफ़ ही करेंगे कि इसने विपरीत समय में भी विकास की राजनीति करने की कोशिश की और जिन्होंने इसे राजनीतिक रूप से नीचा दिखाया था, उनसे लड़ा भी, किन्तु जगह और वक़्त अखिलेश ने अपने हिसाब से तय किया! कार्यकाल समाप्ति की अंतिम बेला में अखिलेश ने उन्हें बच्चा समझने वालों को न केवल आइना दिखाया बल्कि अब तक अपने रूख पर अड़े रहने का माद्दा भी दिखला रहे हैं. ऐसा मानना जल्दबाजी होगी कि अखिलेश अपनी नयी राह चुन लेंगे, किन्तु उन्होंने एक तरह से संकेत जरूर दे दिया है कि अब उन्हें "पुतला मुख्यमंत्री" बने रहना कतई मंजूर नहीं है. मामला टिकट बंटवारे से भी जुड़ा हुआ है, क्योंकि अगर अखिलेश ने इतना भी विरोध नहीं किया तो राजनीतिक कूड़ेदान में उनका जाना तय था. बच्चा जब छोटा होता है तो वह अपने अभिभावक की ऊँगली पकड़ कर चलता है, किन्तु समय बीतने पर वही प्रक्रिया उलट जाती है और किसी बुजुर्ग को बुढापे में अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर चलने में भला क्यों शर्म आनी चाहिए? Akhilesh Yadav, Samajwadi Party, Hindi Article, New, Shivpal Yadav, Mulayam Singh Yadav, UP Election 2017
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कोई अँधा भी बता सकता है कि सपा में अखिलेश यादव ही एकमात्र चेहरे हैं, जिसे कई सर्वे भी लगातार साबित कर रहे हैं. यहाँ तक कि अखिलेश के चेहरे के सामने बसपा की मायावती, कांग्रेसी शीला दीक्षित या फिर कोई अन्य भाजपाई चेहरा यूपी में पीछे ही है. रही बात शिवपाल यादव के परिश्रम और त्याग की, तो निस्संदेह उन्होंने अपने बड़े भाई मुलायम सिंह यादव का लंबा साथ दिया है और इसका उन्हें इनाम भी मिला है. पर उन्हें समझना चाहिए कि वह मुलायम के उत्तराधिकारी नहीं हैं. वैसे भी उनकी पीढ़ी गुजर चुकी है. अगर एक पल मान भी लिया जाए कि शिवपाल यादव की मेहनत और समर्पण का इनाम मुख्यमंत्री पद ही है तो भी जनता की नज़र में अखिलेश के मुकाबले वह कहीं नहीं ठहरते. मुलायम सिंह चतुर राजनेता हैं और वह अपने भाई की मंशा को समझकर उसे पूरा मौका दे रहे हैं, ताकि इतिहास उन पर पक्षपात का आरोप न लगाए! जाहिर है, राजनीति की बिसात बिछ चुकी है और शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल के विलय-प्रसंग को उठाकर अखिलेश को गहरे तक छेड़ दिया है. जबकि वह जानते हैं कि अखिलेश इस फैसले को पचा नहीं पाएंगे. अखिलेश ने भी शिवपाल की इस चाल पर सधी चालें चली हैं जो आखिरी टिकट के बंटवारे तक चली जाएँगी. शिवपाल सहित अखिलेश के अन्य विरोधी अब यह मान बैठे हैं कि सपा विपक्ष में आ रही है, तो असल लड़ाई विपक्षी राजनीति को लेकर ही होगी. जाहिर है, अखिलेश भी यह समझ रहे हैं कि सत्ता तो अब शायद ही बचे, किन्तु लीक छोड़कर कम से कम 'शायर, सिंह, सपूत' की श्रेणी में तो वह आ ही सकते हैं.
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