कुछ ही दिन पहले समाजसेवी अन्ना हज़ारे एक टीवी चैनल के कॉमेडी शो में आये थे और जब कार्यक्रम प्रस्तोता ने उन्हें पूछा कि 'अन्ना आपने इतने आंदोलन किये हैं, आपके कई शिष्य राजनीति में सक्रीय हैं तो आप राजनीति में क्यों नहीं?' सवाल बड़ा दिलचस्प था, किन्तु गांधीवादी अन्ना ने जो जवाब दिया वह उससे भी दिलचस्प था. अन्ना ने कहा कि अगर वह चुनाव मैदान में उतरे तो उनकी ज़मानत भी ज़ब्त हो जाएगी, क्योंकि आज भी वोटर का वोट 500 रूपये की नोट पर बिक जाता है! बेहद सीधी इस बात में हमारे देश की हकीकत पानी की तरह साफ़ दिख जाती है. आप जटिल मुद्दों की बात बाद में करें, पहले कुछ बेसिक मुद्दे जिन पर चर्चा होनी चाहिए, जिसमें सुधार की गुंजाइश आसान है उस पर बात करने की आवश्यकता है. आखिर, लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है और जब तक हम उसे सशक्त नहीं करेंगे, उसे जागरूक नहीं करेंगे, तब तक तमाम मामले सुलझने की बजाय उलझाव की ओर ही बढ़ेंगे! यूनिफॉर्म सिविल कोड बेशक देश के लिए फायदेमंद हो, महिला अधिकारों के लिए आवश्यक हो किन्तु यह एक कटु सत्य है कि देश की लगभग पूरी मुस्लिम आबादी (भारत की जनसंख्या का 18%) इस मामले में अपने अधिकारों को छोड़ने के लिए रत्ती भर भी तैयार नहीं है, खासकर अभी तो बिलकुल भी नहीं. इसका कारण भी बेहद स्पष्ट है कि आज़ादी के लगभग 70 साल बाद देश की सत्ता में मूल रूप से बदलाव हुआ है. कांग्रेस को रिप्लेस करके अब भारतीय जनता पार्टी न केवल केंद्र में मजबूती से सत्तासीन है, बल्कि अरुणाचल प्रदेश में तमाम उठापठक के बाद वह सरकार में शामिल हो गयी है और इस तरह से देश के आधे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों (15) में सत्ता में भागीदार हो गयी है. यह बात भी सर्वविदित है कि आरएसएस बैकग्रॉउंड और दक्षिणपंथी पॉलिटिक्स के कारण भारत में मुस्लिम कम्युनिटी भाजपा को लेकर सशंकित रही है, हालाँकि हालिया दिनों में यह रूझान कुछ हद तक ही सही, बदल भी रहा है. ऐसे समय में इस विवादित विषय को छेड़ा जाना कहाँ की समझदारी है? Uniform Civil Code, Hindi, Article, New, Saman Aachar Sanhita, Debate, Muslim, Teen Talaq, Election Reforms
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यूं तो कहा जा सकता है कि सरकार इस मामले में सीधे इन्वॉल्व नहीं है, बल्कि लॉ कमीशन के जिन क्वेश्चन्स पर बवाल हो रहा है, कहीं न कहीं उसका कनेक्शन सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका से जुड़ा हुआ है. इसके साथ यह बात भी सच है कि तीन तलाक जैसे मामलों पर खुद मुस्लिम समाज के भीतर से ही बड़ी संख्या में महिलाएं आवाज उठा रही हैं, बावजूद इसके कहा जा सकता है कि अभी कम से कम अगले दस सालों के लिए देश इस चर्चा हेतु तैयार नहीं है. अगले दस सालों तक अगर केंद्र सहित अन्य राज्यों में भाजपा अपनी वर्तमान राजनीतिक स्थिति भी कायम रख पाती है तो निश्चित रूप से चीजें काफी आसान हो जाएँगी तो विश्वास का लेवल भी बढ़ जाएगा. तब तक कुछ हद तक जागरूकता भी निश्चित रूप से बढ़ेगी और फिर चर्चा सार्थक दिशा में चल सकने की सम्भावना भी बढ़ जाएगी. अन्यथा, हाल-फ़िलहाल इस मुद्दे पर सिर्फ और सिर्फ राजनीति की रोटियां ही सेंकी जाएगी और इसका परिणाम जनता में वैमनस्यता के रूप में ही नज़र आएगा. एक और आंकड़े की बात करें तो 2012 में भारत सरकार ने ऑफिशियली रूप से स्वीकार किया था कि देश की कुल जनसंख्या का 22% हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे है, यानि लगभग 28 करोड़ आबादी आज भी खाने और सोने से ऊपर नहीं सोच सकी है और इस आबादी को बरगलाकर जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, वोट के नाम पर लड़ाने में हमारे राजनेताओं ने महारत हासिल कर रखी है. ऐसे में क्या वाकई हमारा देश समान आचार संहिता पर चर्चा करने की तैयारी रखता है? एक दूसरा व्यवहारिक अनुभव बताऊँ आपको, जब आज सुबह कुछ वरिष्ठ बुद्धिजीवियों के साथ चर्चा में उलझ गया. उस चर्चा का मुद्दा था वोटिंग का और सभी लोग इस बात पर एकमत थे कि समाज का बुद्धिजीवी-वर्ग 'वोट' देने बूथ पर नहीं जाता है. तमाम चुनावों में जिस तरह वोटिंग-परसेंटेज 50 से 60 के बीच रहता है, उससे यह बात प्रमाणित भी होती है कि हमारी कुल जनसंख्या का 40 फीसदी हिस्सा तो वोट देने ही नहीं जाता है. मतलब 50 करोड़ लोग विभिन्न कारणों से वोटिंग नहीं करते हैं. इसे अगर जागरूकता का विषय ही मान लिया जाय तो यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि लोकतंत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार और कर्त्तव्य, जिस पर एकराय भी है, उसको ही लोग वहन करने में आनाकानी करते हैं, मजबूरी जताते हैं, ऐसे में 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' जैसे विवादित और उलझे विषयों पर चर्चा की क्या परिणति होगी, समझना मुश्किल नहीं! Uniform Civil Code, Hindi, Article, New, Saman Aachar Sanhita, Debate, Muslim, Teen Talaq, Election Reforms
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मैं यदि अपनी बात करूं तो पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए, जिसमें चाहकर भी मैं, मेरी पत्नी, मेरे दो भाई और उनकी पत्नियां, मेरे चाचा जी और उनका पूरा परिवार नहीं जा सका, क्योंकि हम रोजगार के सिलसिले में दिल्ली में रहते हैं और आने जाने का खर्च, ड्यूटी नुकसान होने का डर, रेल-यातायात में टिकट न मिल पाना इत्यादि व्यवहारिक कठिनाइयां सामने आ गयीं. इन बातों की कितनी भी आलोचना की जाय, लेकिन यह कारण एक बड़ा कारण है, जिसके कारण वोटिंग-परसेंटेज कम रहता है. वह भी एक चुनाव हो तो आदमी 5 साल में कैसे भी मैनेज करे, किन्तु अलग-अलग समय पर होने वाले ढेरों चुनाव वोट देने वाले नागरिकों के धन और समय की डायरेक्ट / इनडाइरेक्ट बर्बादी ही करते हैं. यह सरकार को ध्यान देना चाहिए कि देश में सर्वाधिक जरूरी चुनाव सुधारों को अमलीजामा पहुंचाए, तो इससे जुड़े अन्य मुद्दों जैसे चुनावी भ्रष्टाचार इत्यादि पर भी लगाम लगाए तो वोटिंग परसेंटेज 100 फीसदी करने के लिए सुविधाएं बढाए, ऑनलाइन वोटिंग जैसा कोई विश्वसनीय विकल्प प्रस्तुत करने की दिशा में भी कदम बढाए (आधार कार्ड से जोड़कर, कुछ-कुछ पोस्टल वैलेट के कांसेप्ट पर). इसके अतिरिक्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की मांग काफी ज़ोर शोर से हो चुकी है, किन्तु इन मुद्दों पर तो राजनीतिक पार्टियों को जैसे सांप सूंघ जाता है. हालाँकि, प्रधानमंत्री तमाम चुनावों को एक साथ कराने की वकालत कर चुके हैं, ताकि विकास करने और जन-संपर्क के लिए ज्यादे से ज्यादे समय मिल सके, किन्तु उनकी यह वकालत किसी ठन्डे बस्ते में पड़ी धूल चाट रही होगी. चुनाव सुधार और गरीबी दूर करने के प्रयासों के साथ शिक्षा-नीति पर भी बड़े कार्य किये जाने की आवश्यकता है, क्योंकि कई शोध और सर्वे में यह बात सामने आ चुकी है कि हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था आउटडेटिड है. यह एक तथ्य है कि हमारी यूनिवर्सिटीज से निकलने वाले ग्रेजुएट्स के अंदर स्किल की भारी कमी है, यहाँ तक कि प्रोफेशनल डिग्रीज जैसे इंजीनियरिंग, डॉक्टरी इत्यादि पढाइयां भी वैश्विक मानकों से बेहद पीछे है. Uniform Civil Code, Hindi, Article, New, Saman Aachar Sanhita, Debate, Muslim, Teen Talaq, Election Reforms
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शिक्षा के बाद स्वास्थ्य सुविधाओं में हम कहाँ खड़े हैं, इसकी चर्चा न ही की जाए तो बेहतर होगा. भारत उन देशों में आज भी शामिल है, जहाँ शिशु-मृत्यु दर सर्वाधिक है. हेल्थ इन्शुरन्स सेक्टर में कंपनियां क्लेम देने में बड़े स्तर पर गलत खेल कर रही हैं और अंततः आम आदमी ही पिस रहा है. प्राइवेट हॉस्पिटल्स का खुला लूटपाट धंधा चल रहा है, गरीब आदमियों की कुछ हज़ार पर किडनियां निकाल कर बेचीं जा रही हैं और हमारी सरकार और समाज बात और चर्चा करना चाहता है 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' पर! अरे, पहले हम चुनाव-सुधार, गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम मुद्दों पर कुछ ठोस प्रगति तो करें, फिर जब जनता जागरूक होगी, वह स्वतः ही अपने हितकारी और नुक्सान पहुंचाने वाले मुद्दों पर आगे आने लगेगी और तब राजनेताओं को गलत राजनीति करने का मौका भी नहीं मिलेगा. आज हम सुपर-पावर बनने की दिशा में खूब शोर मचा रहे हैं, हथियार भी खरीद रहे हैं, कभी चीन से तो कई बार अमेरिका से अपनी तुलना कर रहे हैं, किन्तु क्या हमें ज़रा भी अंदाजा है कि चीन और अमेरिका जैसे देश शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे विषयों पर हमसे कोसों आगे हैं! आबादी में हमसे ज्यादा होने के बावजूद चीन की प्रति व्यक्ति आय हमसे दोगुनी (लगभग 12 हज़ार यूएस डॉलर सालाना) है तो अमेरिका की 53 हज़ार डॉलर के आसपास. हालाँकि, इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार मिलना चाहिए, तीन-तलाक जैसी प्रथा का अंत होना चाहिए (वैसे भी कई मुस्लिम देशों में यह समाप्त की जा चुकी है). शायद इसीलिए, भारत के विधि आयोग ने 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' यानी समान नागरिक संहिता को लेकर आम लोगों की जो राय माँगी है, उसमें लोगों से यह भी पूछा जा रहा है कि क्या समान नागरिक संहिता ऑपशनल यानी वैकल्पिक होनी चाहिए. इस प्रश्नावली का जवाब देने के लिए लोगों को 45 दिनों का वक़्त दिया गया है और इसके आधार पर आयोग अपना प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजेगा. वस्तुतः भारतीय विधि आयोग ने कुछ ऐसा नहीं किया था, जिस पर होहल्ला मचता, किन्तु जिस तरह से इसका विरोध किया गया और तमाम राजनीतिक दलों ने इस पर बयानबाजी की, उसे देखते हुए साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि भारत अभी इस तरह के नाजुक मसलों पर चर्चा करने के लायक नहीं है, बल्कि इसकी बजाय लोगों को चुनाव-सुधार, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का तोहफा दिया जाना चाहिए. Uniform Civil Code, Hindi, Article, New, Saman Aachar Sanhita, Debate, Muslim, Teen Talaq, Election Reforms
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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