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बड़े और ताकतवर देश आखिर कैसी भाषा बोल रहे हैं?

आखिर कैसे होगी 'न्यूज-पोर्टल' से कमाई? देखें वीडियो...



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पिछले दिनों रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा कि रूस को अपने परमाणु जखीरे में तेजी से वृद्धि करनी चाहिए, तो उनके कुछ ही दिनों बाद अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी सुर में सुर मिलाया कि अमेरिका को भी परमाणु जखीरे में वृद्धि करनी चाहिए. जरा सोचिए यह दोनों देश विश्व के सर्वाधिक ताकतवर देश हैं, तो क्या और भी ज्यादा परमाणु बेम इकठ्ठा कर संपूर्ण ब्रह्मांड को ही आतंकित करना चाहते हैं अथवा उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं? जाहिर तौर पर शास्त्रों में वर्णित क्षमा, दया और त्याग की तो बात ही भुला दी गयी है. यहां तो सिर्फ और सिर्फ परमाणु जखीरे को बढ़ाने की ही बात हो रही है. याद दिलाना सामयिक होगा कि यह वही अमेरिका और विश्व समुदाय है जो 1998 में अटल बिहारी वाजपेई द्वारा परमाणु परीक्षण करने पर तमाम तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगा देता है और खुद 7000 से अधिक परमाणु हथियार रखने के बाद भी परमाणु जखीरे में और भी वृद्धि करने का दम भरता है. खैर, अमेरिका और उससे आगे चलते हैं तो चीन का दोगलापन भी देख लीजिए. कहने को तो वह अमेरिका जैसे देशों को परमाणु निरस्त्रीकरण के बारे में सीख देता रहता है. इस सम्बन्ध में चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने पत्रकारों से कहा कि, 'हम चिंतित हैं और निरस्त्रीकरण को लेकर चीन के रुख पर दोबारा जोर देती हूं. प्रवक्ता ने आगे कहा कि 'हम परमाणु हथियारों के पूर्ण निषेध और विनाश का समर्थन करते हैं और सबसे ज्यादा परमाणु आयुध वाले देश को परमाणु निरस्त्रीकरण में खास और पहली जिम्मेदारी लेनी चाहिए.' अब आप सोचेंगे कि इस भाषा में चीन का दोगलापन कहा जाहिर होता है? तो देखिए, भारत के सन्दर्भ में उसने कैसी भाषा इसी दरमियान प्रयोग की है. यूं तो आए दिन ही चीन जब तब भारत को वह आँखें दिखाता रहता है, पर पिछले दिनों तो उसने हद ही कर दी. चीनी सरकार से करीबी से जुड़े रहे, वहां के अखबार ग्लोबल टाइम्स में लेख छपा है कि भारत को दलाई लामा जैसे निर्वासित नेताओं का स्वागत करना छोड़ देना चाहिए, अन्यथा चीन उसके साथ दुर्व्यवहार भी कर सकता है. Irresponsible Language of China, Russia, America, Hindi Article, New, World Politics, UNO, Atomic Weapons, Bad China, Global times of China in Hindi

यह एक तरह से सीधी धमकी भी कही जा सकती है और उसके लिए बकायदा चीनी अख़बार में उदाहरण दिया गया था. इस हेतु संदर्भ दिया गया कि 'डोनाल्ड ट्रंप' को भी चीन ने सबक सिखा दिया और भारत को इससे सबक लेना ही चाहिए. गौरतलब है कि पिछले दिनों ट्रम्प और ताइवान के बीच होने वाली बातचीत पर चीन ने बड़ी बेरुखी जताई थी और जवाब में अमेरिका का ड्रोन जब्त कर लिया था जिस पर खूब बवाल हुआ था. यह अमेरिकी ड्रोन दक्षिणी चीन सागर में था, जिस पर चीन अपना अवैध दावा ठोकता रहा है. भारत को डराते हुए लेख में यह भी कहा गया कि 'अमेरिका भी चीन के मामले में कई बार सोचता है तो भारत चीज क्या है'? जाहिर तौर पर आर्थिक शक्ति बन जाने के बाद किसी साधारण मनुष्य की ही तरह चीन का दिमाग भी फिर गया लगता है. वह शायद यह भूल चुका है कि 1962 के बाद गंगा और ब्रह्मपुत्र में काफी पानी बह चुका है, और अगर अब उसने कोई दुस्साहस किया तो उसका विनाश होने से कोई रोक नहीं सकता. इसलिए वह धमकी देना छोड़ कर अपने लोगों के हितों के लिए ही कार्य करे और उन मानवाधिकारों की रक्षा करने पर कार्य करे जिसके लिए वह सम्पूर्ण विश्व में बदनाम है. आखिर इसे चीन का दोहरापन नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को धत्ता बताते हुए दक्षिणी चीन सागर पर उसने अवैध कब्ज़ा किया हुआ है तो भारत की आपत्ति के बावजूद पाक द्वारा कब्ज़ा किये गए कश्मीर के हिस्से से जबरदस्त अपनी परियोजना लागू करने पर लगा हुआ है. समझा जा सकता है कि परमाणु निरस्त्रीकरण के बारे में उसकी बातें 'मुंह में राम, बगल में छूरी' वाली ही हैं. वैसे भी, 'हिंदी चीनी भाई-भाई' का नारा देकर भारत की पीठ में वह छूरा भोंक ही चुका है. कुल मिलाकर बात कही जा सकती है कि जैसे जैसे महाशक्तियों के पास, बड़े देशों के पास ताकत बढ़ रही है, आर्थिक क्षमता बढ़ रही है वैसे-वैसे उनकी भाषा भी अनियंत्रित होती जा रही है. कोई परमाणु हथियार डेवलप करने की बात करता है, कोई अपने जखीरे को बढ़ाने की बात करता है, कोई दक्षिणी चीन सागर जैसे समुद्री हिस्से पर ही कब्जा करने की बात करता है और अंतरराष्ट्रीय नियमों को धत्ता बताता रहता है. जाहिर तौर पर जब बड़े और जिम्मेदार देश इस तरह की गैर जिम्मेदाराना हरकतें करेंगे, तो फिर पाकिस्तान जैसे छोटे और आतंक को प्रमोट करने वाले देश से भला क्या उम्मीद की जा सकती है? Irresponsible Language of China, Russia, America, Hindi Article, New, World Politics, UNO, Atomic Weapons, Bad China, Global times of China in Hindi

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आखिर इन सबसे बेहतर तो आतंकवादी बगदादी ही है, जो आतंक फैला रहा है, लेकिन कम से कम बड़ा और जिम्मेदार होने का दावा तो नहीं कर रहा है! वह एक आतंकवादी है इसलिए आतंक फैला रहा है, लेकिन चीन और रूस-अमेरिका जैसे बड़े देश जो जिम्मेदार होने का ढोंग करते हैं, साथ में विनाश की भाषा, आतंकी भाषा बोलते हैं, डराने धमकाने की भाषा बोलते हैं, तबाही की भाषा बोलते हैं, उन्हें आखिर क्या समझा जाए? सोचने पर बड़ी कुढ़न सी होती है तथाकथित विश्व बिरादरी पर! सीरिया में आखिर क्या हो रहा है? कौन नहीं जानता है कि वहां पश्चिमी देशों और रूस, ईरान इत्यादि के हित आपस में टकरा रहे हैं और एलेप्पो जैसी जगहों पर भारी तबाही मच रही है. कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सीरिया का मामला जितना बिगड़ा था उसे रूस और अमेरिका जैसे देशों ने कहीं और ज्यादा बिगाड़ दिया है. मानवाधिकारों की थोथी बातें करने वाले इन देशों को जरा सी भी शर्म नहीं है कि असली मानवाधिकारों को वह किस तरह फौजी बूटों के तले कुचल रहे हैं, जिससे छोटे-छोटे बच्चों की मौत हो रही है, तो मासूम औरतों, बुजुर्गों और अक्षम व्यक्तियों को और भी ज्यादा पीड़ा प्राप्त हो  रही है. युद्ध-स्थान की पीढ़ी सालों पीछे जा रही है, तो इसका जिम्मेदार इन तथाकथित जिम्मेदार और शक्तिशाली देशों को क्यों नहीं माना जाना चाहिए? आखिर यह सब किसलिए और किस वजह से किया जा रहा है? क्या ऐसे ही व्यवहार से, क्या इन्हीं वैश्विक नीतियों से हम आधुनिक समाज में शांति लाने की बात करते हैं? यह बात सभी को विचार करनी चाहिए और यह मान लेना चाहिए कि हम कहीं ना कहीं आदिवासी युगों में ही जी रहे हैं, जो सिर्फ जंगली कानूनों को जानता है, जो अपना राज्य फैलाने के लिए जंगली कानूनों को ही मानता है. जब अमेरिका, रूस और चीन जैसे देश इस तरह की बेवकूफाना बातें करते हैं, तब शक होता है कि हम 21वीं सदी में हैं! बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि हम कहीं ना कहीं मध्ययुगीन से भी पीछे प्राचीन और पत्थरों के हथियार वाली सभ्यता में जी रहे हैं, जहाँ जंगली जानवर, जंगली कानून के मुताबिक एक दूसरे का शिकार करते थे. Irresponsible Language of China, Russia, America, Hindi Article, New, World Politics, UNO, Atomic Weapons, Bad China, Global times of China in Hindi

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संयुक्त राष्ट्र संघ और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं मूकदर्शक बनी हुई देख रही हैं. कहने को विश्व के बारे में नीतियां तय करने वाले यह संस्थान कुछ बड़े देशों के हाथ का खिलौना भर बनकर रह गए हैं. बड़े देश अपनी रुचि से कभी पाकिस्तान को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं, तो कभी सीरिया को अपना युद्ध स्थल बना लेते हैं. चीन को ही ले लीजिये, वह अपनी आर्थिक कॉरिडोर परियोजना (CPEC) से पाकिस्तान को अपना उपनिवेश बनाने की ओर मजबूती से कदम बढ़ा चुका है, तो पाकिस्तान बहुत खुश हो रहा है कि चीन उसका विकास करने आ रहा है. अरे मूर्खों, आज़ादी को 70 साल हुए और जिस गुलामी से तुम बाहर निकले, कभी उस गुलामी का इतिहास तो पढ़ लेते कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार करने के नाम पर किस तरह तत्कालीन संयुक्त भारत की मानसिकता को हाईजैक किया था और 100 सालों से ज्यादा समय तक हमें गुलामी झेलनी पड़ी थी. कई विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि जिस आर्थिक कारिडोर की परियोजना को पाकिस्तान अपने लिए अमृत मान रहा है, वह उसे चीन का उपनिवेश बना कर ही दम लेगी! जाहिर तौर पर जिम्मेदारियों को व्यापक रूप से समझना होगा और इसी तरह इस विश्व को हम रहने लायक बना सकेंगे. 2016 बीतने वाला है और 2017 की शुरुआत हो रही है, तो क्या इस अवसर पर तमाम बड़ी शक्तियां, विश्व के कल्याण के लिए एक मंच पर एक न्यायिक सुर में बात नहीं कर सकती हैं? सोचने और समझने वाली बात तो यह है ही, सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न भी है कि 21वीं सदी का तथाकथित 'विकसित' मानव और उसके द्वारा नियंत्रित शक्तिशाली देश परमाणु बम और धमकी की भाषा के अतिरिक्त इंसानियत और न्याय की भाषा क्यों नहीं बोलते हैं? चीन जैसे देश हिटलर और मुसोलिनी जैसों के मटियामेट होने से ज़रा भी सीख लेते तो उनकी भाषा में जरूरी परिवर्तन अवश्य आता, तो इनसे सीख लेने पर रूस और अमेरिका भी अपने परमाणु ज़खीरे में वृद्धि करने की बात करने की बजाय दुनिया से गरीबी का ज़खीरा कम करने की ही बात करते!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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