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गुरुओं के इतिहास में 'गुरु शिरोमणि' हैं गुरु गोबिंद सिंह - Biography of Guru Gobind Singh, Hindi Article, Essay in Devnagri, Great Warriors, Sikhism, Against Aurangzeb, History of India in Hindi




अन्याय और अत्याचार के खिलाफ जब-जब जंग लड़ने वालों का नाम स्मरण किया जाएगा, तब-तब गुरु गोबिंद सिंह का नाम अनिवार्य रूप से जुबां पर आ ही जाएगा. हाल फिलहाल, गुरु जी की 350वीं जयंती मनाने के उपलक्ष्य में देशभर में कार्यक्रम हो रहे हैं, जो साल भर तक चलने वाले हैं, तो यह अवसर हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि हम इस महान आत्मा के योगदान को समझ सकें और ज्यादा नहीं तो उसका कुछ हिस्सा ही अपने व्यवहार में, चरित्र में आत्मसात कर सकें. Biography of Guru Gobind Singh, Hindi Article, Essay in Devnagri, Great Warriors, Sikhism, Against Aurangzeb, History of India in Hindi
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सर्वबंश दानी
गुरु गोबिंद सिंह के बारे में जो बात सबसे पहले आती है और जिसका अन्यत्र उदाहरण इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता है, वह है सर्व वंशदानी होना! अपने पिता गुरु तेग बहादुर को धर्म की रक्षा के लिए शहीद होने का आग्रह करने वाला पुत्र न केवल भारतीय इतिहास, बल्कि विश्व के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा हुआ हो! केवल पिता ही नहीं, आपने अपने बेटों को शस्त्र प्रदान करते हुए कहा था कि 'जाओ दुश्मन का सामना करो और शहीदी जाम को पियो.' यह बात सर्वविदित है कि गुरू जी के दो बड़े पुत्र चमकौर की लड़ाई में शहीद हुए तो दो छोटे पुत्र सरहिंद की दीवारों में जिंदा ही चिनवा दिए गए. रूह को कंपा देने वाले ऐसे बलिदान ही हैं, जो भारत भूमि के वाशिंदे चैन से सांस ले पा रहे हैं, अन्यथा आततायी और अन्यायियों की फ़ौज ने इसे मिटाने में कोई कोर कसर न छोड़ी थी! इतने महान उदाहरण इतिहास में कहीं दूसरी जगह नहीं हैं. इतना ही नहीं, बलिदान की पराकाष्ठा आप कुछ ऐसे समझ सकते हैं कि चमकौर के युद्ध में काम आने वाले गुरुपुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह के पार्थिव शरीर को देखकर भाई दया सिंह ने उन्हें चादर से ढकने की आज्ञा मांगी थी, तो गुरु गोबिंद सिंह ने तब कहा था कि इनको तभी ढका जाये, जब सभी मृत वीरों को भी ढका जा सके! हृदय विदारक इस महान बलिदान से आखिर कौन भाव-विह्वल नहीं हो जाएगा. अभी आगे सुनिये, चारों पुत्रों की मृत्यु के बाद जब उनकी मां उन्हें नहीं ढूंढ पायीं तो उन्हें ढूंढने का प्रयत्न छोड़कर गुरु से उनके विषय में पूछा, तो गुरु का उत्तर था 
"इन पुत्रन के कारने वार दिए सुत चार. चार मुए तो क्या हुआ जीवित कई हजार." 
यही कह कर उन्होंने खालसा पंथ को आगे बढ़ाया और उसके सभी सभासदों को अपना पुत्र बना लिया था. इस हेतु उन्हें 'दशमेश पिता' की संज्ञा भी प्राप्त हुई. Biography of Guru Gobind Singh, Hindi Article, Essay in Devnagri, Great Warriors, Sikhism, Against Aurangzeb, History of India in Hindi

साहित्यानुरागी
गुरु जी का चरित्र देखने पर वह बहुमुखी नजर आता है. उनके दरबार में हमेशा कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती ही थी, जिसके सहारे वह साहित्य और समाज को निरंतर समझने, समझाने का यत्न करते रहते थे. महान दूरदर्शी गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने समय और अतीत को न केवल खुद समझा बल्कि, अपने अनुयाई और सामान्य जनता को भी उससे विधिवत अवगत कराया. यह बहुत बड़ा काम था जिसे अकेले कर पाना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने देशभर के 85 विद्वानों की सेवाएं प्राप्त की थीं, जिसमें 52 प्रसिद्ध कवि और लेखक थे. अधिकांश भारतीय प्राचीन साहित्य चुंकि संस्कृत में है, इसलिए उन्होंने सिक्खों को संस्कृत सीखने के लिए बनारस तक भेजा. वह स्वयं भी ब्रज, पंजाबी और फारसी के बहुत बड़े कवि थे, तो उसके साथ उन्होंने संस्कृत भी सीखी थी. गुरूजी ने अनेक क्रन्तिकारी साहित्यों की भी रचना की, जिसमें चांडी-चरित्र, दशम ग्रंथ, रामावतार, कृष्णावतार, चौबीस चरित्र, गीत गोविंद, प्रेम प्रबोध, जाप साहिब, अकाल स्तुति, शस्त्र नाम माला तथा विचित्र नाटक सहित अन्य रचनाएं शामिल हैं जिसके कारण उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा गया. गुरु जी का भाषा ज्ञान 'जफरनामा' में नजर आता है, जब गुरु गोबिंद सिंह ने अत्याचारी तथा क्रूर मुगल शासक औरंगजेब को मार्च 1705 में यह पत्र लिखा था, जिसे 'विजय-पत्र' भी कहा जाता है. फ़ारसी में लिखा 134 छंद पंक्तियों का यह पत्र अध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य की अद्भुत मिशाल है. यूं तो गुरु जी ब्रज के बहुत अच्छे कवि थे, लेकिन उन्होंने अत्याचारी विदेशी को उसी की भाषा में चुनौती दी थी. जो जिस भाषा में बात समझता है, उसको उसी भाषा में बात समझाने की गुरुजी की दृष्टि इस ऐतिहासिक वाकये से परिलक्षित होती है. iography of Guru Gobind Singh, Hindi Article, Essay in Devnagri, Great Warriors, Sikhism, Against Aurangzeb, History of India in Hindi

जातिरहित समाज की स्थापना एवं खालसा पंथ
सिक्खों के नौवें गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर 1666 में गुरु जी का जन्म हुआ था, तो मात्र 11 वर्ष की आयु में आपका विवाह सुंदर जी के साथ हुआ. आततायी के अत्याचारों के फलस्वरुप सैनिक की नई पहचान और नाम 'खालसा' यानी शुद्ध पवित्र के साथ बलिदान देने को तत्पर पंच प्यारे किसी एक क्षेत्र के नहीं थे, किसी एक जाति संप्रदाय के भी नहीं थे, बल्कि लाहौर पंजाब के भाई दयाराम खत्री, हस्तिनापुर के भाई धर्म सिंह जाट, द्वारका गुजरात के मोहकमचंद धोबी, बीदर कर्नाटक के भाईसाहब चंद नाइ, जगन्नाथ उड़िसा के भाई हिम्मत राय कुम्हार जैसे बलिदानियों ने सुप्त जनमानस में प्राण फूंक दिया था! कोई भेदभाव नहीं था, कोई जातिवादिता नहीं थीं. गुरु जी कहते थे "मानुस की जात सदा एकौ पहचान!" समझ नहीं आता है कि आखिर भारतवर्ष की जाति-प्रथा के लिए की जाने वाली बुराइयों में लोगों को गुरु गोबिंद सिंह जैसे प्रकरण क्यों नजर नहीं आता है? हमारे देश भारतवर्ष के ऊपर कलंक लगा हुआ है कि हम घोर जातिवादी हैं, छूआछूत को बढ़ावा देते हैं बला, बला...! यह बातें काफी हद तक सच भी हैं, किन्तु गुरु गोबिंद सिंह जैसी महानतम आत्माएं भी हमारी ही धरती पर हुई हैं, जिन्होंने जात-पात का बंधन ही नहीं माना. गुरु जी के इस दर्शन का मकसद यही था कि लोगों में सदियों से जड़ जमाए बैठी 'हीन भावना' को दूर किया जाए. इसीलिए उन्होंने हर एक को बड़प्पन के साथ अपने पास बिठाया, सभी को शेर बनाया और तभी उन्होंने अपने नाम गोबिंद सिंह को सार्थक किया. पन्थ प्रकाश के रचयिता के शब्दों में- 

जिनकी जाति और कुल माही
सरदारी नहीं भई कदा ही
काटना तै इनको मृगिन्दू
करो हरन हित तुरक गजिदू
इन्हीं को सरदार बनावों
तबे गोबिंद सिंह नाम सदावों. 

खालसा पंथ का निर्माण धर्म और संस्कृति के लिए किया गया, जिसमें सदा ही युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश देते हुए गुरु ने पांच ककार यानी केश, कंघा, कड़ा, कृपाण तथा कतार अनिवार्य किए. इन पांचो का अर्थ और उद्देश्य है कि सिर पर पड़ने वाले वार से बचने के लिए केश, केश को सँवारने के लिए कंघा, कड़ा ढाल की तरह वार रोकने के लिए, तो कृपाण आत्मरक्षा के लिए, जो जरूरत पड़ने पर प्रतिकार के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती है. कच्छा, जहां फुर्ती का प्रतीक है, वहीं स्वच्छंद काम पर नियंत्रण का संकेत भी देता है. मात्र 42 वर्ष की आयु में ही देश के अनेक राष्ट्रीय सांस्कृतिक युद्ध और सुरक्षा के प्रकल्पों को संपन्न करके आप भारत के महानतम सपूत कहलाए. साफ़ जाहिर होता है कि गुरु गोबिंद सिंह लोगों में वीर भाव का निर्माण करने के लिए हर आवश्यक कार्य आजीवन करते रहे. आम जनता में उन दिनों प्रचलित नाम खैराती, फकीरा, घसीटा, नीचकू, मंगतू आदि बदल कर उन्हें अजीत सिंह, जुझार सिंह, रणजीत सिंह, रणवीर सिंह सर्वजीत सिंह जैसे नाम दिए. इतना ही नहीं उन्होंने परमात्मा के भी वैष्णव परंपरा वाले कोमल नाम जैसे हरी, बनवारी, गोपाल, केशव, माधव, बंशीधर, रास बिहारी के स्थान पर काल, महाकाल, सर्व काल, चक्रपाणि, खडगकेतु जैसे वीर प्रवृत्ति के नाम से पुकारा. गुरु जी विचित्र नाटक ग्रंथ का आरंभ ही खडग की स्तुति से करते हैं: 
नमस्कार सी खडग करौ सहित चित लाइ.
पूरण करौ गिर थ इह तुम मोहि करहु सहाई.

गुरु जी का बंदा बहादुर
गुरु गोबिंद सिंह की यह खासियत थी कि वह अकेले ही नहीं लड़े, बल्कि अपने जैसे वीरों की बड़ी टोली खड़ी की, जो नास्तिक थे, जो धर्म की खातिर शस्त्र उठाने से विमुख रहते थे, उनको भी गुरुवर ने प्रेरित कर के वीर होने की दिशा में आगे बढ़ने का आदेश दिया. गुरुजी ने कश्मीर में जन्मे लक्ष्मणदास जो कि मात्र 15 साल की आयु में हिरण का शिकार करते हुए हृदय परिवर्तन के कारण वैष्णव सन्यासी बन कर नांदेड़ में गोदावरी के किनारे आश्रम बनाकर रहते थे, उनको देशप्रेम, धर्म के प्रति कर्तव्य का बोध कराया था तो माधवदास कह उठे थे 'आज से मैं आपका बंदा हूँ', तो गुरु गोबिंद सिंह ने उन्हें बंदा बहादुर का नाम देकर खालसा सेनापति नियुक्त किया. सन्यासी से सेनापति बने इस योद्धा ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे. मार्च 1717 में बंदा सिंह बहादुर को जब बंदी बनाकर इस्लाम या मौत में से एक को चुनने को कहा गया तो बंदा बहादुर ही रहा और अपनी जान देने के बाद भी उसने उस उक्ति को सार्थक किया कि 'सुरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत, पुर्जा पुर्जा कट मरे कबहू ना छोड़े खेत.' कहा जा सकता है कि गुरु गोबिंद सिंह ने जन-जन की आत्मा में अपनी बहादुरी के किस्से ना केवल लिखे हैं बल्कि बहादुरी का अनवरत संचार किया है. iography of Guru Gobind Singh, Hindi Article, Essay in Devnagri, Great Warriors, Sikhism, Against Aurangzeb, History of India in Hindi

मानव धर्म एवं संगत
भारतीय संस्कृति में आत्मा परमात्मा के सिद्धांत को माना जाता है, तो गुरु गोबिंद सिंह जी उसी परमात्मा के अंश की भांति तमाम भारतीयों में समाहित हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें अन्याय के खिलाफ खड़े होने को आज भी प्रेरित करते हैं. सिर्फ अन्याय के खिलाफ लड़ने का ही नहीं, बल्कि सच्चे मानव धर्म में विश्वास होने के कारण गुरुजी का दृष्टिकोण सार्वजनिक एवं मानवीय था. उन्होंने भाई कन्हैया सिंह को कह रखा था कि युद्ध में प्रत्येक को जल पिलाओ, चाहे हिंदू हो या मुसलमान! इतना ही नहीं कन्हैया और उसके साथियों को यह भी आदेश था कि मित्र और शत्रु के भेद भुलाकर हाथों की मरहम पट्टी और उपचार भी करो. सिख धर्म में प्रभु सिमरन के साथ संगत यानी जनसाधारण की सेवा करने को भी अनिवार्य घोषित किया गया है और गुरूवों द्वारा शुरू की गयी यह परंपरा हम आज भी देश भर के विभिन्न गुरुद्वारों में देख सकते हैं. मतलब अत्याचार के खिलाफ लड़ो और जरूरतमंदों की सेवा करो, यह मूल मन्त्र देकर गुरु गोबिंद सिंह ने आने वाले भविष्य में भारतीय पीढ़ी को मार्ग दिखलाने का महती कार्य किया. अत्याचारी मुगल शासकों के विरुद्ध  गुरु जी ने 14 धर्म युद्ध लड़े और धर्म की खातिर ही उन्होंने अपने समस्त परिवार का बलिदान कर सरबंस दानी हो गए! ऐसा योद्धा मिलने पर हम भारतीयों को गर्व होना चाहिए, किन्तु अफ़सोस है कि हमारे देश में आज भी गरीबों की संख्या अनगिनत है तो अत्याचार, अन्याय और जातिवाद मानने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं है. काश ... काश कि गुरु की राह पर चलकर हम भारतीय अत्याचार के खिलाफ लड़ते रहते तो मानवता की सेवा में अपना जीवन न्यौछावर कर देते! शायद तभी गुरु गोबिंद सिंह के जीवन-चरित्र का कुछ अंश धारण करने के अधिकारी कहलाते ... !!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

साभार: इस लेख में प्रयोग किये गए तथ्य, उक्तियाँ इन्टरनेट पर उपलब्ध सामग्री से ली गयी है तो राष्ट्र किंकर पत्रिका के अक्टूबर 2016 अंक में गुरु गोविन्द सिंह पर दिए गए लेखों का निचोड़ भी इस लेख में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है. 




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