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किसानों की समस्याओं पर 'व्यापक दृष्टिकोण' की जरूरत

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देश एक तरफ जहां कोरोनावायरस से जूझ रहा है, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के बॉर्डर पर तमाम किसान संगठन आंदोलनरत हैं.
यह आंदोलन नए कृषि कानून के संदर्भ में किया जा रहा है, जिसमें किसानों की प्रमुख मांग यही है कि नया कानून लागू होने के बाद कहीं उनकी एमएसपी की गारंटी खत्म न हो जाए.

एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइसेस, जो सरकार के द्वारा तय किया जाता है.

इसी एमएसपी पर किसान अपने धान, गेहूं या दूसरी फसलें सरकार को बेचते हैं. एमएसपी किसी किसान के लिए कितना महत्वपूर्ण है, आप इसी बात से जान लीजिए कि किसी फसल का उत्पादन होने के बाद बाजार के व्यापारी और बिचौलिए एमएसपी का आधा प्राइस भी नहीं देते हैं, और अगर एमएसपी नहीं होगा तो किसान मजबूर हो जाता है अपनी फसल औने पौने दाम पर बेचने के लिए!

जाहिर तौर पर यह किसानों के लिए एक सुरक्षा कवच का काम कर रहा है और कम से कम उनको खेती में अगर प्रॉफिट नहीं होता है, तो नुकसान से भी वह कमोबेश बच जाते हैं. इस सन्दर्भ में नए कृषि कानून की बात करें तो में एमएसपी को खत्म करने की बात तो नहीं कही गई है, लेकिन तमाम विशेषज्ञ ऐसी आशंका जरूर जता रहे हैं कि धीरे-धीरे तमाम मंडियां और यहां तक की एमएसपी की जरूरत भी समाप्त हो जाएगी. सरकार भी कहीं ना कहीं इस बात को समझती है, अन्यथा वह कानून में एमएससी की गारंटी देने में हिचकती ही क्यों?

हालाँकि समस्याएं इससे कोसो आगे हैं और इन समस्याओं और उसके समाधान पर किसी का ध्यान है या नहीं है, यह कहना काफी मुश्किल है!

जरा सोचिए, किसानों की आय दोगुनी करने का दम वर्तमान केंद्र सरकार तो जरूर भर रही है, पर क्या वास्तविक रूप से इस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं? हां, नए कृषि कानूनों के तहत प्राइवेट कंपनियों के लिए रास्ता जरूर खोला गया है और अगर लंबी दृष्टि में देखा जाए तो इससे इस क्षेत्र के व्यवसायीकरण की उम्मीद बढ़ेगी और व्यवसायीकरण होने से नई प्रतिभाओं के आगमन की राह भी निकलेगी.


पर कृषि क्षेत्र इतना मजबूत तो नहीं है कि एक झटके में इसे प्राइवेट कंपनियों के हवाले कर दिया जाए?
ना ही भारतीय किसान इतने सशक्त है कि वह प्राइवेटाइजेशन के दबाव को एक साथ बर्दाश्त कर लेंगे. ऐसे में कंपनियों के द्वारा उनके शोषण की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता. प्राइवेट कम्पनियां प्रॉफिट के रूल पर चलती हैं और इस प्रॉफिट के रूल को बनाए रखने के लिए वह तमाम नियमों को न केवल ताक पर रखते हैं, बल्कि उसे तोड़ने मरोड़ने में भी पीछे नहीं हटतीं.

आरएसएस, यानी बीजेपी का मातृ संगठन इस बाबत चुप्पी क्यों साधे हुए हैं, यह भी एक बड़ा प्रश्न है.
क्या वह भी यही मानता है कि प्राइवेट कंपनियों के हवाले भारतीय किसानों को कर देने से तमाम समस्याएं हल हो जाएंगी? अगर ऐसा है तो फिर आर्थिक सामाजिक सुरक्षा का क्या, जिसका दम संघ के तमाम नेता करते रहे हैं. उस समरसता का क्या जिसके आधार पर संघ समाज को संगठित करने की बात करता रहा है.

वैसे नया कानून लाने में सरकार की मंशा पूरी तरह से गलत भी नहीं कही जा सकती. चूंकि कृषि क्षेत्र लगातार घाटे में जाता जा रहा है, बल्कि खड्ड में जा रहा है और इसमें नई इनोवेशन, नई तकनीक, नई प्रतिभाएं टिक नहीं पा रही हैं. ऐसे में जब बड़ी कंपनियों द्वारा इसमें पूंजी का इन्वेस्टमेंट होगा और नई टेक्नोलॉजी से इसे प्रॉफिटेबल क्षेत्र में बदला जाएगा, तब क्षेत्र के कायाकल्प की उम्मीद जगती तो है ही. 

पर सिर्फ प्राइवेट कंपनियों के भरोसे देश की इतनी बड़ी आबादी को भला किस प्रकार छोड़ा जा सकता है?

भारतीय रेलवे द्वारा हाल ही में चलने वाली तेजस ट्रेन को बड़े जोर शोर से प्रसारित किया गया था, किंतु वह प्रॉफिटेबल ना होने के कारण एक झटके में किस प्रकार बंद हुई, यह हम सभी ने अपनी आंखों से देखा.

एक और वाकया मुझे याद आता है. दिल्ली मेट्रो के एयरपोर्ट लाइन को पीपीपी मॉडल के तहत रिलायंस की मदद से निर्मित किया गया था और उसके ऑपरेशन की जिम्मेदारी भी रिलायंस पर ही थी, पर उसे घाटे का सौदा बताकर उस पूरे वेंचर से रिलायंस ने क्विट कर लिया और उसे चलाने का ज़िम्मा फिर डीएमआरसी पर ही आ गया.

ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां प्राइवेटाइजेशन असफल भी हुआ है और ऐसे में सिर्फ प्राइवेट कंपनियों के बल पर सरकार इतनी बड़ी कृषि व्यवस्था और उस पर निर्भर लोगों को मैनेज करना चाहती है, तो यह विचार अपरिपक्व ही जान पड़ता है.


उधर किसानों की बात करें, तो कहां जा रहा है कि देशभर के 500 से अधिक छोटे-बड़े किसान संगठन सरकार से नए कानून की लड़ाई लड़ रहे हैं.
कहना अनुचित न होगा कि इन तमाम किसान संगठनों की अपनी राजनीति है. क्या वह इतना ही समझते हैं कि केवल सरकार ही किसानों को सब्सिडी देकर और फसलों की खरीद की गारंटी देकर किसी व्यवस्था को दुरुस्त कर लेगी?

सच तो यह है कि किसान संगठनों के पास भी कृषि क्षेत्र को लेकर कोई दीर्घ दृष्टि नजर नहीं आती!

देशभर में व्यक्तिगत स्तर पर कई लोगों ने कृषि क्षेत्र में नई संभावनाओं को जन्म दिया है. कोई मशरूम की खेती करके, कोई फलों की खेती करके, कोई फ़ूड प्रोसेस करके, कोई मत्स्य और पशुपालन करके ऐसे हजारों उदाहरण हमारे देश में और चहुँओर मौजूद हैं, लेकिन किसान संगठनों को उनसे कोई वास्ता नहीं है.

यह लोग ना उन्हें सम्मानित करते हैं, और ना ही उन लोगों को मंच पर जगह ही देते हैं, क्योंकि इससे तमाम ठेकेदार लोगों का रुतबा जो खतरे में आ जाएगा!
पर इस राजनीति के चक्कर में कृषि क्षेत्र विकास से निश्चित ही वंचित रह जाता है. कृषि क्षेत्र उन नई प्रतिभाओं के ज्ञान से, नई प्रतिभाओं के प्रबंधन से जिसे उस की सख्त जरूरत है, उससे वंचित रह जाता है. चाहे नई टेक्नोलॉजी हो, चाहे नए प्रकार की व्यवसायिक फसलें हो, चाहे उसकी मार्केटिंग हो या फिर बिजनेस प्रबंधन, तमाम चीजें किसान संगठनों को अपने सदस्यों और सक्रिय मेंबरों के द्वारा समझने - समझाने की आवश्यकता है.

पर चाहे सरकार हो, चाहे किसान संगठन हों, चाहे खुद किसान ही क्यों न हो, कोई भी परिवर्तन की लड़ाई लड़ना नहीं चाहता है, बस एक दूसरे के ऊपर जिम्मेदारी को थोपना चाहता है, जबकि कृषि - क्षेत्र में सुधार के लिए हर एक को अपने स्तर पर बड़े सुधार करने होंगे.

उससे भी पहले दृष्टि परिवर्तन आवश्यक है. सरकार तमाम कृषि संस्थानों को जिन नौकरशाहों के हवाले कर चुकी है, उसमें वास्तविक रूप से क्या रिसर्च हो रहे हैं, इस पर अगर वह दृष्टि बनाए है, तो निश्चित रूप से परिवर्तन आना शुरू हो सकता है. वहीं तमाम किसान संगठन अपने - अपने स्तर पर तमाम नई प्रतिभाओं को उभारने की कोशिश करें, नई तकनीक के प्रयोग की कोशिश करें, तब वह किसानों को उस डर से मुक्त कर पाएंगे जो कारपोरेट के आने से उन्हें लग रहा है.


उम्मीद की जा सकती है, लेकिन वर्तमान आंदोलन ना केवल दिशाहीन प्रतीत हो रहा है, बल्कि सरकार भी बातचीत की औपचारिकता ही निभाना चाहती है. ऐसे में इसे देखने और समझने की दिलचस्पी किसको होगी, अपने आप में बड़ा सवाल है!

- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.




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