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एक देश के तौर पर हमें 'एक' रहना होगा

  • संघ, मुस्लिम समाज, राजनीतिक बिरादरी का कटु, मगर सटीक आंकलन
  • राजनीतिक पार्टियों एवं सरकारों को योग्य, गरिमामय, विचारवान लोगों को प्रवक्ता, थिंक टैंक आदि में शामिल करना चाहिए, बजाय हर जगह चापलूसों को प्रोन्नत करने के!
  • मुसलमान इस देश के बराबर के नागरिक हैं. उनकी भावनाओं का हम खुद ध्यान नहीं रख सकते क्या? क्या कोई दूसरा बताएगा, तभी हम इस मामले पर सजग होंगे?

लेखकमिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली 
Published on 9 June 2022 (Update: 9 June 2022, 15:26 IST)

हाल ही में भारतीय जनता पार्टी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा की कथित विवादित टिप्पणी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब सुर्खियां बटोरी हैं. इस विवाद ने भारतीय समाज में चल रही हालिया उथल-पुथल को भी सतह पर ला दिया है.
बेशक वर्तमान सरकार की विदेश नीति की जितनी भी उसके प्रशंसक, प्रशंसा करें, किंतु इस विवाद ने भारतीय विदेश नीति की नीतिगत कमियों को भी उजागर किया है. हालांकि, इन तमाम विवादों के बावजूद सदियों पुरानी भारतीयता की जड़ें इतनी कमजोर नहीं है, जो इन छोटे-मोटे झटकों से बेतरतीब हो जाएँगी. एक देश के तौर पर, एक सोच के तौर पर, एक भारतीय के तौर पर हम सदा से एक रहे हैं, और हमें आगे भी एक ही रहना होगा. इसके अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है.

परंतु इस संदर्भ में हमारे लिए यह समझना आवश्यक है कि इस विवाद से जुड़े तमाम हितधारकों की क्या भूमिका है, कहाँ बदलाव हो रहा है, और कहाँ बदलाव की आवश्यकता है. आइए इस पर क्रमवार ढंग से गौर करते हैं...

1. 'हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं ढूंढना है!'

यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक का बयान है, जो नूपुर शर्मा विवाद के कुछ ही दिन पहले आया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिंदुत्व का पैरोकार माना जाता है, और उसके राजनीतिक- सामाजिक विरोधी उस पर हिंदुत्व ही नहीं, बल्कि सांप्रदायिकता फैलाने का भी ठप्पा लगाते हैं. ऐसे में कई लोग संघ-प्रमुख मोहन भागवत के बयान को, संघ-नीतियों के परिप्रेक्ष्य में विरोधाभास भी मान सकते हैं, किंतु ध्यान से देखा जाए तो यह आरएसएस की नीति में 'परिवर्तन ही संसार का नियम है' की तर्ज पर परिवर्तन का ही संकेत दे रहा है.


1947 में जब देश आजाद हुआ, और उसी वक्त धर्म के नाम पर देश का बंटवारा भी हुआ, तब इस बात की जरूरत से भला कौन इनकार कर सकता है कि हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए आरएसएस जैसे संगठन की आवश्यकता थी. बाद में मुस्लिम तुष्टीकरण पर भी कई सवाल उठे और धीरे-धीरे, जन समर्थन पाकर आरएसएस मजबूत होती चली गई. संघ से ही निकली भारतीय जनता पार्टी, न केवल केंद्र में काबिज है, बल्कि अनेक राज्यों में उसकी बहुमत की एवं गठबंधन की सरकारें काबिज़ हैं.

इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि हिंदुत्व के मुद्दे ने संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की जड़ों को बेहद मजबूत किया है, पर अब, जब भारतीय जनता पार्टी के रूप में संघ के ही लोग सत्ता में हैं, नीतियों पर उनका नियंत्रण है, तब निश्चित रूप से पुरानी नीतियों में बदलाव आवश्यक हो जाता है. 
आखिर संपूर्ण समाज को साथ लेकर चलना ही तो 'राजधर्म' है!
अगर राजधर्म को समझते हुए संघ की नीति में यह शिफ्ट आ रहा है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. यह समय की मांग भी है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि हर मस्जिद में शिवलिंग ढूंढने का परिणाम विघटनकारी ही होगा. हां! अगर कहीं जायज मांग है, तो उसे अदालती - कानूनी प्रक्रिया द्वारा, आपसी बातचीत द्वारा निश्चित ही सुलझाने का प्रयत्न करना चाहिए, किंतु इतिहास को कूरेदने की भी एक सीमा होती है. 

उस लक्ष्मण रेखा का हम सब को ध्यान रखना चाहिए. यह हमारी जिम्मेदारी भी है, और यही संघ के सरसंघचालक के बयान का असल मतलब भी है. 
इसे संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक, भाजपा एवं दूसरे संघ से निकले संगठन के कार्यकर्ताओं को भली भांति समझने की ज़रुरत है, वह भी तीव्र गति से, क्योंकि सत्ता में होने पर 'राजधर्म' से बड़ा और महत्वपूर्ण और कुछ नहीं

2. भारतीय मुसलमानों की सुननी होगी, एवं भारतीय मुसलमानों को आतंकी सोच से सजग रहना होगा

नूपुर शर्मा विवाद में जो सर्वाधिक कष्ट पहुंचाने वाला कारक रहा है, वह यह रहा है कि भारत सरकार ने विदेशी मुसलमानों, अर्थात खाड़ी के मुस्लिम देशों के दबाव में आकर भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से नुपूर शर्मा एवं दूसरों पर कार्रवाई की.

एक संप्रभु राष्ट्र के लिए यह निश्चित रूप से अच्छा मानदंड नहीं है कि हम दूसरों के दबाव में आकर कोई कार्रवाई करें. इसका यह भी मतलब नहीं है कि 'गलत को हम गलत ना कहें'!

अरे भई! गलत-सही में फैसला हम खुद नहीं कर सकते क्या?

मुसलमान इस देश के बराबर के नागरिक हैं. उनकी भावनाओं का हम खुद ध्यान नहीं रख सकते क्या? क्या कोई दूसरा बताएगा, तभी हम इस मामले पर सजग होंगे? असदुद्दीन ओवैसी के दूसरे बयानों की चाहे लाख आलोचना हो, किंतु इस मामले में उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारतीय मुसलमानों का दर्द सरकार को पहले देखना चाहिए, जबकि उन्होंने खाड़ी देशों के दबाव में आकर यह देखा.

उन्होंने अलकायदा के हमला करने वाले बयानों की भी निंदा करते हुए कहा है कि भारतीय मुसलमानों को आतंकवादियों की जरूरत नहीं है. यह दोनों बातें सटीक हैं. भारतीय मुसलमानों की अगर कोई जायज़ आवाज़ है, जायज़ मुद्दा है, तो सरकार एवं राजनीतिक पार्टियों के साथ, भारतीय समाज को उसे पहले ही तवज्जो देना चाहिए, बजाय इसके कि कोई और हमें इस पर टोके! 

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय मुसलमान, खुले मंच से आतंक एवं अतिवादिता को नकारें!
यह एक ऐसा फैक्टर है, जिसे भारतीय मुसलमानों को सदा ही याद रखना होगा. अगर सत्ता परिवर्तन के दौरान, बहुसंख्यक आंदोलनों के दौरान, सामाजिक उथल-पुथल के दौरान किसी प्रकार का अधिकार हनन होता भी है, तो उन्हें भारतीय कानून एवं भारतीयता को सर्वोपरि रखना होगा. भारतीय मुसलमान अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम है, और उसके लिए भी कानून बराबर है. भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, और उसी अनुरूप यहां शासन चला है, चल रहा है, और आगे भी चलेगा.


अतः किसी एक घटना को आधार बनाकर किसी प्रकार की अतिवादिता के सुर में सुर मिलाना, मुस्लिम समाज को मुख्यधारा से दूर ही करेगी. अगर मुसलमान वैश्विक स्तर पर अलग-थलग हुआ है, तो इसका प्रमुख कारण यही है कि अतिवादिता एवं आतंकवाद का बुद्धिजीवी, जागरूक मुसलमान ने विरोध नहीं किया है. किया भी है, तो बेहद कम मात्रा में... भारत में यह नहीं होना चाहिए. 

एक महिला ने अगर कुछ कहा भी, तो नैतिकता एवं कानूनी लड़ाई तो लड़ी जा सकती है, किन्तु आतंक की सोच भी भारतीय मुसलमानों में नहीं पनपना चाहिए. यही वह फ़र्क है, जो भारतीय मुसलमानों को वहाबी आतंकवाद एवं तालिबानी सोच से परे रख सकता है.

यहां पर भारतीय जनता पार्टी के मुख्तार अब्बास नकवी का बयान भी काबिले तारीफ है, जब उन्होंने खाड़ी देशों की आलोचना करते हुए कहा है कि पहले वह अपने यहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करें, लोकतंत्र की बात करें, फिर वह भारत की तरफ देखें. उन्होंने अलकायदा को भी मुस्लिम समाज पर बोझ बताया है.
भारतीय मुस्लिम समाज को अतिवादिता से इसी प्रकार अपने को दूर रखना होगा, और यही वह मंत्र है, जो भारतीय समाज में समरसता लाएगा.


3. सरकार एवं विपक्ष की नाकामी

समाज जब बदलाव के दौर से गुजरता है, तब राजनीति उसमें बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. सरकार चाहे लाख ढोल पीट ले कि उसकी विदेश-नीति इतनी सफल है - उतनी सफल है, किंतु इस एक मामले में, उसे कतर और मालदीव जैसे छोटे आकार के देशों के साथ-साथ पाकिस्तान जैसे नाकाम देश ने भी सलाह देने की हिम्मत कर डाली.

भारतीय जनता पार्टी का अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता को फ्रिंज एलिमेंट कहना भी हास्यास्पद ही है. यहां आवश्यक है कि गवर्नमेंट एवं राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने लोगों को बार-बार दिशा-निर्देश दिया जाना चाहिए. इससे भी बढ़कर इसमें विचारवान, विद्वान् लोगों की एंट्री आवश्यक हो जाती है. अगर सिर्फ चापलूसी, ताकत, पैसा एवं महिमामंडन के आधार पर सरकार एवं पार्टी में लोग प्रोन्नत किए जाते रहेंगे, तो ऐसे ही हालात होंगे. 
क्या यह संभव था कि अगर कोई विचारवान-विद्वान् व्यक्ति किसी पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता हो, तो उससे ऐसी गलती हो जाती? अगर हो भी जाती, तो उसे खुद को निकालना आएगा, वह पार्टी पर- सरकार पर बोझ नहीं साबित होगा.
किंतु चापलूसी की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली राजनीतिक पार्टियों की कार्य-संस्कृति पर भला कौन आवाज़ उठाये! 

पर यह हमें याद रखना होगा कि विद्वता-काबिलियत की बजाय 'कृपा-पात्र' बनकर आगे बढे लोग, खुद के साथ-साथ सरकार और देश को भी नुकसान ही पहुंचाएंगे. विद्वान एवं काबिल लोगों को अपने साथ जोड़ने का एक नुकसान जरूर होता है कि वह 'हाई कमांड' कल्चर में, आपकी हर बात में आंख मूंदकर, हां में हां नहीं मिलाते, किंतु इसका फायदा यह होता है कि वह विपरीत परिस्थितियों में विरोधियों के उकसावे में भी, राह बनाने में सक्षम होते हैं.


अतः सरकार और पार्टी में काबिल लोगों को, विद्वान लोगों को, स्वतंत्र लोगों को शामिल करना, इस तरह की परिस्थितियों से आपको बचाएगा. 

आप किसी फ्रिंज एलिमेंट के व्यवहार वाले व्यक्ति को राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाते ही क्यों हैं...? और एक ही नहीं, बल्कि एक खबर के अनुसार, 27 से अधिक बड़े भाजपा नेताओं को उनके पुराने बयानों पर चेतावनी जारी की गयी है. क्या यह संभव है कि किसी राजनीतिक व्यक्ति को आप नए सिरे से ट्रेनिंग दे लेंगे...? यह राजनीतिज्ञ कोई बच्चे तो हैं नहीं, जो आप इनको क... ख... ग... सिखलाएंगे!

इसकी बजाय आपको योग्य, गरिमामय, विचारवान लोगों को प्रवक्ता, थिंक टैंक आदि में शामिल करना चाहिए, जो रट्टू तोते की बजाय स्वतंत्र दिखें एवं हों भी, साथ ही सनातन-संस्कृति के मूल भाव को गहराई से समझने में सक्षम हों, न कि सिर्फ धर्म के ऊपरी आवरण के नाम पर गली के बच्चों जैसा होहल्ला करें - विवाद उत्पन्न करें.

इसी प्रकार विपक्ष भी सामाजिक बदलाव को ठीक ढंग से प्रजेंट करने में नाकाम रहा है. अगर समाज में कोई बदलाव आ रहा है, अगर समाज में कोई दुराव आ रहा है तो आप बैठ कर क्या कर रहे हैं? आप समाज के विभिन्न वर्गों की आवाज कहां बन रहे हैं? 
राहुल गांधी विदेशों में जाकर कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने देश में केरोसिन छिड़क रखा है, किंतु प्रश्न यह है कि उनकी पार्टी क्या कर रही है? क्या वह चुप बैठ कर तमाशा नहीं देख रही है? क्या उनकी पार्टी ऐसे लोगों को आगे बढ़ा रही है, जो इस केरोसिन पर पानी डालने की क्षमता रखते हों?
किसी विदेशी पत्रकार के सवाल पर मिनटों तक चुप रहने वाले राहुल गांधी क्या देश की बड़ी पार्टी का राजनीतिक नेतृत्व संभालने में सक्षम हैं? प्रश्न लाजमी है, और इस प्रश्न का उत्तर सरकार एवं विपक्ष दोनों को ही देना होगा.


कमोबेश अन्य राजनीतिक पार्टियां भी इस सच्चाई से जूझने की क्षमता खो रही हैं. सच्चाई यह है कि राजनीति को गंभीरता से न तो सरकार में बैठे लोग ले रहे हैं, न ही विपक्षी दल.
उनका मतलब है केवल चुनावी राजनीति में जीत हासिल करना! पर क्या इतना पर्याप्त है?
उम्मीद है कि विपक्षी दलों के साथ-साथ, जीत के रथ पर सवार भारतीय जनता पार्टी के नीति नियंता भी इस घटना से सीख लेंगे, और सिर्फ चुनावी जीत दिलाने वालों को ही अपनी पार्टी का मूल नहीं बनाएंगे, बल्कि राजधर्म, गरिमा, विद्वता, विविधता, स्वतंत्रता आदि पर चलने वाले विचारवान लोगों को भी अपने मूल-मानकों में शामिल करेंगे, बेशक उससे 'हाई-कमांड' कल्चर थोड़ा डिसकम्फर्ट ही क्यों न हो!

ध्यान रखिये कि संकट-काल में आपके पास ऐसे जड़ों से जुड़े सामाजिक नेता होने चाहिए, जिन पर भिन्न समाज विश्वास कर सके. हो सकता है कि एक मंत्री के तौर पर कोई एक नौकरशाह प्रशासनिक-नीतियों की बेहतर समझ रखता हो, किन्तु विश्वसनीयता तो 'राजनेता' की ही हो सकती है, जो उस समाज के सुख-दुःख में शामिल रहा हो. हालिया नुपुर शर्मा विवाद में इसका लोप नहीं, तो बड़ा अभाव निश्चित तौर पर दिखा. 

उसी प्रकार से विपक्ष भी केरोसिन-केरोसिन, विदेश में जाकर न चिल्लाये, व भारत की छवि धूमिल न करे, बल्कि वास्तविक क्षमता वाले लोगों को प्रोत्साहन दे और इसी प्रकार से भारतीय समाज का एक रहना सुनिश्चित होगा.

उपरोक्त 3 बड़े फैक्टर, जिसमें आरएसएस की सोच का व्यावहारिक बदलाव, मुस्लिम समाज की आतंकी सोच से सावधानी एवं उनके अधिकारों पर सजगता से समाज का सक्रिय होना, और तीसरी बात सरकार और विपक्ष में योग्य-विद्वान-स्वतंत्र विचारवान लोगों के साथ-साथ भिन्न समाज के विश्वसनीय व्यक्तियों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना ही, भारतीय समाज को एक सूत्र में पिरो सकता है. 


आप इस बारे में क्या सोचते हैं, कमेंट बॉक्स में अपने विचारों से हमें अवगत कराएं.

लेखकमिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली 
Published on 9 June 2022 (Update: 9 June 2022, 15:26 IST)

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