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भारत जोड़ने का कार्य सक्षम 'युवा-नेतृत्व' के कंधों पर जाना चाहिए, किन्तु...

Bharat Jodo Yatra and 'Youth - Leadership', Hindi Article 2023

लेखकमिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली 
Published on 7 Jan 2023

इस लेख के शीर्षक की दो व्याख्या हो सकती है - पहली, भारत जोड़ने का कार्य युवा नेतृत्व के कंधों पर 'डाला जाना चाहिए', और दूसरी भारत जोड़ने का कार्य युवा नेतृत्व को अपने कंधों पर 'लेना चाहिए'!

इसीलिए इन दोनों को मिलाकर शीर्षक में कहा गया है कि, भारत जोड़ने का कार्य युवा नेतृत्व के कंधों पर जाना चाहिए। 

अब शब्दों के मायाजाल में नहीं फंसते हुए सीधे मुद्दे पर आते हैं, और इसे वर्तमान समय में चल रही राजनीतिक यात्रा, 'भारत जोड़ो यात्रा' के संदर्भ में देखते हैं। 

निश्चित रूप से यह एक अच्छा प्रयास है, क्योंकि तकरीबन 120 दिन चलने वाली इस यात्रा को 10 राज्यों के 52 जिलों से गुजरना है। चूंकि कांग्रेस पार्टी का संपूर्ण देश में आधार है, और उस आधार को सक्रिय करने के लिए राहुल गांधी का यह प्रयास एक हद तक सार्थक सिद्ध हो सकता है। 

जनता के बीच में राहुल गांधी की जिस प्रकार की इमेज थी, उसे बदलने में भी इस यात्रा ने एक हद तक सफलता पाई है, क्योंकि जब आप जनता के बीच से नदारद रहते हो, ग्राउंड पर जब उनसे आपका आमना-सामना नहीं होता है, तब तक आपके बारे में लोगों की अलग-अलग धारणा हो सकती है। 
कई बार आपकी इमेज जानबूझ कर बनाई भी जाती है, किंतु जब आप जनता से रूबरू होते हो, उससे बात करते हो, उनसे सवाल जवाब होता है, तो वह धारणा वास्तविकता से काफी हद तक प्रभावित होने लगती है। 
ऐसे में राहुल गाँधी की पहले से चाहे जैसी इमेज रही हो, अब जनता के बीच में जाने से उनकी वास्तविकता से लोग परिचित हो रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी के आधार के अलावा इस यात्रा की एक बढ़िया तैयारी भी नजर आती है।  ग्राउंड पर तो जो तैयारी है वह है ही, साथ में ऑनलाइन भी भारत जोड़ो यात्रा डॉट इन (bharatjodoyatra.in) के नाम से इसके लिए एक डेडिकेटेड वेबसाइट बनाई गई है, तो अलग-अलग सोशल मीडिया चैनल्स पर इसका प्रबंधन भी किया गया है। 
यहां तक कि, जो यात्री इस यात्रा में शामिल रहे हैं, वह अपनी फोटो को अपलोड करके पोस्टकार्ड साइज में डाउनलोड भी कर सकते हैं। यात्रा का लाइव प्रसारण भी हो रहा है, अलग-अलग जगहों से। 

बहरहाल, यह सब विस्तार से बताने का मेरा मकसद सिर्फ इतना ही है, कि इस यात्रा को गंभीरता से लेने का प्रयत्न किया गया है। 

कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल के नेताओं ने इस यात्रा की शुभकामनाएं तो दी ही हैं, साथ में विपक्षी दल के नेताओं ने भी इस यात्रा की गंभीरता को कम करने का वैसा प्रयत्न नहीं किया है, जैसा वह राहुल गाँधी के सन्दर्भ में पहले करते रहे हैं!
कुछ एक नेताओं द्वारा राहुल गांधी के ठंड में टीशर्ट पहनने का मजाक उड़ाने की बात छोड़ दी जाए, तो भारत जनता पार्टी में नंबर दो के नेता, केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस यात्रा की तारीफ की है। 
श्री राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण ट्रस्ट के अध्यक्ष चंपत राय जी ने भी इस यात्रा की तारीफ करते हुए इसे एक सार्थक कदम बताया है। 

इसी के साथ अर्थशास्त्री रघुराम राजन जैसे कई जाने माने व्यक्तित्वों ने इस यात्रा में राहुल के साथ कदम से कदम मिलाया है। 

  • अब सवाल यह है कि, क्या इस यात्रा से वाकई कांग्रेस एक राजनीतिक ताकत के रूप में पुनः खड़ी हो पाएगी?
  • क्या इस यात्रा से वास्तव में भारतीय जनता पार्टी जैसी वर्तमान बड़ी राजनीतिक ताकत को टक्कर देने की हालत में कांग्रेस आ जाएगी?

इस यात्रा ने निश्चित रूप से राहुल गांधी की छवि में बदलाव किया है, उनकी स्वीकृति भी बढ़ी है। नीतीश कुमार जैसे बड़े विपक्षी नेता भी अब कहने लगे हैं कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने से उनको कोई दिक्कत नहीं है। 

संभवतः दूसरे क्षेत्रीय दलों के नेता भी पहले की तरह उनके नाम पर आपत्ति नहीं करें, किंतु क्या वाकई भारतीय जनता पार्टी से टक्कर लेने की हालत में कांग्रेस आ सकेगी?

इसका जवाब देना बहुत मुश्किल नहीं है!

वास्तव में कांग्रेस के साथ कुछ मूलभूत समस्याएं हैं, जिनको किसी ना किसी बहाने वह अनदेखा करना चाहती है। परिवारवाद उसमें सबसे प्रमुख है। क्या सच में भारत की जनता कांग्रेस को उसी स्वरूप में स्वीकार करेगी, जिसमें एक परिवार का ही व्यक्ति सर्वोच्च नेता की कुर्सी पर अपना अधिकार रखता हो?

इस धारणा को बेशक मल्लिकार्जुन खड़के जैसे परिवार से बाहर के व्यक्ति को, कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर धुंधला करने का प्रयत्न किया जा रहा हो, पर सभी को पता है कि कांग्रेस में जो भी निर्णय होंगे नेहरू- गांधी परिवार को केंद्र में रखकर ही लिए जाने वाले हैं। 

यहां थोड़ी जटिलता है ...

वास्तव में कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए विचारधारा से अधिक नेहरू -गांधी परिवार का वरदहस्त आवश्यक रहा है। यह भी एक फैक्ट ही है कि जब-जब इस परिवार से बाहर के व्यक्ति ने कांग्रेस को चलाने की कोशिश की, तब - तब कांग्रेसियों ने स्वीकार नहीं किया, पार्टी में टूट -फूट भी हुई। 
परंतु वास्तव में परिवारवाद उसकी बड़ी कमजोरी बनकर उभरा है, खासकर भारतीय जनता पार्टी के उभार से पहले!

जटिलता की बात इसीलिए मैंने कही है कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय फलक पर पूरी ताकत से उभार के पहले कांग्रेस का यह फैक्टर अनदेखा किया जा सकता था, किंतु अब यह एक बड़ा मुद्दा है। 
आप मानें या ना मानें, चाहे राजनीतिक पंडित इसे स्वीकारें या न स्वीकारें, किंतु हकीकत यही है कि वर्तमान लोकतंत्र में परिवारवाद राजनीति में एक बड़ा मुद्दा है, खासकर राष्ट्रीय राजनीति में!

इस परिवारवाद के मुद्दे को छोड़ भी दें, तो युवाओं के ऊपर कांग्रेस आखिर कितना भरोसा कर रही है? 

सच तो यह है कि वह चाहे असम के नेता हेमंत बिस्वा शर्मा हों, चाहें मध्यप्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर राजस्थान के सचिन पायलट! तेज तर्रार युवा नेताओं को आगे बढ़ने से कांग्रेस में बुरी तरीके से रोक दिया जाता है। 



अब कहने को तो कांग्रेस में लोग यह कह सकते हैं कि, इन नेताओं का अपने ही राज्यों में विरोध है, परंतु हकीकत इससे कहीं आगे है!

अगर मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बना दिया जाता, तो जरा सोचिए, उनके पास कांग्रेस की क्षेत्रीय राजनीति से ऊपर उठकर प्रधानमंत्री बनने का दावा इतनी जल्दी मजबूत हो जाता, कि वह राहुल गाँधी के लिए चुनौती बन जाते!

यहां तक कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार भी दांव पर लगा दी गई, लेकिन ज्योतिरादित्य को आगे नहीं बढ़ने दिया गया।

जो राजनीतिक पंडित कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को ज्योतिरादित्य की राह में रुकावट मानते रहे हैं, उनका विश्लेषण अपेक्षाकृत उथला है!

असल मामला तो यह है कि कहीं कोई युवा तेजी से उभरकर राहुल गाँधी के लिए चुनौती न बन जाए, इसीलिए उसके पर मजबूत होने से पहले ही क़तर दिए जाते हैं!

कुछ कुछ ऐसा ही सचिन पायलट के साथ भी हुआ...

ज़रा आप भी सोचिये, अगर सचिन पायलट राजस्थान के मुख्यमंत्री बन जाते हैं, तो अपनी लोकप्रियता से क्या वह केंद्र में राहुल गांधी के लिए चुनौती नहीं बन सकते हैं?

वह युवा हैं, शिक्षित हैं, जनता में उनके प्रति आकर्षण भी है, जनाधार है उनके पास, हिंदी भाषी क्षेत्रों में उनकी स्वीकृति होने में भला कितनी देर लगती?

ऐसे में उन्हें अशोक गहलोत के माध्यम से औकात दिखाई गई। 

राजनीति का खेल ऐसा रचा गया कि मैसेज यह जाए कि राहुल तो युवाओं को बढाने के पक्ष में हैं, जबकि परदे के पीछे की राजनीति कुछ और ही चल रही थी. राजस्थान में अगर सरकार गिर भी जाती, तो भी सचिन को बढ़ने नहीं दिया जाता, क्योंकि असल मामला तो यह है कि कहीं कोई राहुल गाँधी के लिए चुनौती न बन जाए!

वहीं अगर इस स्थिति की भारतीय जनता पार्टी से तुलना करते हैं, तो यह काफी अलग नजर आती है!

कुछ ही समय पहले पार्टी में शामिल हुए हेमंत बिस्वा शर्मा को असम राज्य का न केवल चीफ मिनिस्टर बनाया गया, बल्कि भाजपा की ओर से पूर्वोत्तर में भी वह खासे सक्रिय नजर आ रहे हैं!
यहां तक कि उनकी आवाज राष्ट्रीय स्तर पर सुनी जा रही है। जरा सोचिए एक दूसरी विचारधारा व दूसरी पार्टी से आने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें कितने खुले मन से अपनाया है। अगर मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के बाद किसी उभरते हुए नेता को राष्ट्रीय स्तर पर काउंट किया जा सकता है, तो इस पंक्ति के कुछ नेताओं में हेमंत बिस्वा शर्मा का नाम भी आएगा।

मतलब बड़ा साफ़ है कि भारतीय जनता पार्टी प्रतिभाशाली एवं योग्य युवाओं पर दांव लगाने में संकोच नहीं कर रही है, बेशक उनका बैकग्राउंड संघ का हो या न हो!

और इसे आप छोटी बात न मानिए... संघ के बाहर के व्यक्ति को भी अगर भाजपा आगे बढ़ा रही है, तो यह उसकी राजनीतिक समझ ही नहीं, समावेशी और आधुनिक राजनीति का मजबूत हथियार है, जिससे कांग्रेस हर बार हार जा रही है... !!
 
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार हैं... और शायद सचिन पायलट भी आ जायें राजस्थान में... कहा जाता है कि वसुंधरा राजे ने उनको हरी झंडी नहीं दी थी तब, पर आगे कौन जाने! 

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस द्वारा अस्वीकार्य किये जाने के बाद उसी के 'तेजतर्रार नेता', भारतीय जनता पार्टी को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। 
अब राहुल गांधी बेशक 'भारत जोड़ो यात्रा' निकाल लें, उसका राजनीतिक परिणाम तो संदिग्ध ही रहेगा ... !!

ऐसे में जब तक कांग्रेस परिवारवाद से मुक्त होकर, वास्तविक रूप से सक्षम युवाओं को जिम्मेदारी नहीं देगी, तब तक भला कैसे माना जा सकता है कि, वह कांग्रेस की राजनीतिक पुनर्वापसी के प्रति गंभीर है?

भारत को जोड़ने की पहल तो काफी आगे की बात है! 

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