नए लेख

6/recent/ticker-posts

Ad Code

समाज में 'कानून का राज' उतना ही जरूरी है, जितना 'जीवित रहने के लिए भोजन'!

Rule of Law is Mandatory for Civilized Society, Hindi Article 2023
  • पूर्व में पंजाब ने हिंसा का बड़ा दौर देखा है, और दशकों बाद कोई व्यक्ति भारत में ही रहकर भारत के खिलाफ आवाज उठा रहा है.
  • अपहरण उद्योग बिहार में पूरी शिद्दत से पनपा, अब इस उद्योग को कई लोग निश्चय ही शिद्दत से याद कर रहे होंगे!
  • 'बुलडोजर बाबा' की तारीफ होनी चाहिए कि 'संगठित अपराध' करने वालों को मिट्टी में मिलाने की सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं! 
  • साथ में केंद्र सरकार की...
लेखकमिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली 
Published on 13 March 2023 (Update: 13 March 2023, 16:58 IST)

लेख का शीर्षक बहुत सोच समझ कर रखा गया है!इसका सीधा सन्दर्भ यह है कि भोजन नहीं मिलने से आप तुरंत ही मरणासन्न नहीं हो जाएंगे, बल्कि कुछ दिनों तक आप जरूर जीवित रह सकते हैं, किंतु कुछ दिनों के पश्चात अधिकांश लोगों की क्षमता मृत्यु के सामने हार ही जाएगी...  अगर उनको भोजन ना मिले!

ऐसी अवस्था में कुछ लोग, कुछ हफ़्तों से लेकर कुछ महीनों तक सरवाइव कर सकते हैं. चूंकि यह अलग-अलग व्यक्तियों की सर्वाइवल (जीवित रहने) की क्षमता पर भी निर्भर करता है. हमारे शास्त्रों - पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि कई ऋषि मुनि, तपस्वी बिना कुछ ग्रहण किये वर्षों तक तपस्या कर लेते थे, किंतु सामान्य जनों के लिए तो यह 'अपवाद' ही है. अधिकांश लोगों को तो भोजन चाहिए ही चाहिए...

किंतु जरा रूकिये!'कानून का राज' शीर्षक देकर, यह मैं भोजन की बात क्यों करने लगा भला?

ऐसे में हकीकत दुहराना आवश्यक है कि अगर 'कानून का राज' समाज में नहीं रहता है, कमजोर कानून रहता है, तो कुछ समय तक वह समाज अवश्य ही सरवाइव कर लेता है, किंतु अंततः ऐसा समाज अराजकता को प्राप्त होते हुए, नष्ट हो जाता है. कुछ लोग अपनी ताकत के बल पर, संगठन के बल पर, सामान्य जनों के मुकाबले कुछ अधिक दिनों तक स्वतंत्र रूप से ज़रूर सरवाइव कर सकते हैं, किंतु अंततः वह भी गुलामी के रास्ते होते हुए नष्ट हो जाते हैं. 

आखिर जंगल के 'अराजक' कानून में हर जानवर कभी न कभी शिकार बन ही जाता है. शायद यही कारण है कि 'कानून के शासन' की आवश्यकता किसी भी सभ्य समाज के लिए अत्यावश्यक है.अगर ऐसा नहीं होता, तो आदिमानव धीरे-धीरे प्रगति के पथ पर क्यों बढ़ते भला?
क्यों कानून बनते, क्यों संविधान बनते, और भला क्यों संवैधानिक संस्थाओं का निर्माण होता?

यह बेहद बेसिक बात है, किंतु बार-बार दोहराए जाने योग्य बात है.

अब प्रश्न उठता है कि इस मूल प्रश्न को दुहराने की आवश्यकता आखिर क्यों जान पड़ रही है? तो चलिये, पहले भारतीय गणराज्य के कुछ राज्यों की बात कर लेते हैं...

पंजाब जैसे राज्य से शुरू करते हैं तो वहां खालिस्तान की मांग से राज्य में एक अलग तरह का माहौल पनपता जा रहा है.

पूर्व में पंजाब ने हिंसा का बड़ा दौर देखा है, और दशकों बाद कोई व्यक्ति भारत में ही रहकर भारत के खिलाफ आवाज उठा रहा है. पूरे देश ने देखा कि कानून के राज को धत्ता बताते हुए थाने पर एक तरह से हमला करके, एक धार्मिक ग्रन्थ की आड़ लेकर उसने अपने साथी को छोड़ने पर प्रशासन को लगभग मजबूर ही कर दिया. 
हालाँकि पंजाब पुलिस ने उसके द्वारा दिए गए सुबूत को अदालत में पेश करने की बात ज़रूर कही, किन्तु न केवल पंजाब पुलिस, बल्कि समूचे देश के किसी भी राज्य की पुलिस भला इतनी शराफत से सुबूत लेकर किसी बेगुनाह को, कितना छोड़ती है, यह बात भला कौन नहीं जानता है?

खैर, सरकार-प्रशासन अभी तक एक व्यक्ति और उसके कथित साथियों पर किसी भी प्रकार का एक्शन लेने से बचती ही दिखी है. हो सकता है यह नीतिगत भी हो. यह तथ्य है कि सरकार को कई मामलों में मजबूरी भरे फैसले भी करने पड़ते हैं. आखिर राजनीति अच्छे या बुरे का नाम तो है नहीं, बल्कि यह कम बुरे का नाम कहीं अधिक है.ऐसे में हो सकता है कि हाल-फ़िलहाल पंजाब सरकार सिचुएशन को और बिगड़ता नहीं देखना चाहती हो, इसीलिए इस मामले को अनदेखा कर रही हो, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि इसका संदेश क्या जा रहा है?


पंजाब में हिंदू समुदाय की मानसिकता के ऊपर इस वाकये का किस प्रकार का प्रभाव पड़ रहा है, इसका आंकलन भी आवश्यक हो जाता है. कहना आवश्यक नहीं है कि बहुत दिनों तक इस तरह के मामलों की टालमटोल से मामला गंभीर ही होता है, और अंततः उसकी परिणति सभी पर भारी पड़ती है. 

स्वर्ण मंदिर और भिंडरावाले का उदाहरण अभी इतना भी पुराना नहीं हुआ है. इसके अलावा भी इतिहास इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है, तो उम्मीद है कि कानून के शासन पर किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जायेगा, और पंजाब में किसी संस्था को समानांतर सरकार चलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी. क्योंकि 'कानून का राज' कमजोर होने, या यूं कह लें कि 'कमजोर दिखने' का परिणाम, अंततः 'अराजकता' ही है.

सिर्फ पंजाब ही क्यों, अभी बिहार की एक खबर आयी, जिसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि कुशवाहा ने एक खास समाज के लोगों को फ्री बंदूक का लाइसेंस देने की मांग कर डाली है. बिना लाग-लपेट के उन्होंने बयान दिया है कि एक खास समाज के नेताओं की हत्या हो रही है, और सरकार उनकी रक्षा करने में असमर्थ है, इसीलिए उनकी सरकार बनने पर लोगों को लाइसेंस फ्री राइफल दिया जाएगा.इतना ही नहीं, इन महोदय ने अमेरिका का हवाला देते हुए कह डाला है कि जिस प्रकार से अमेरिका में बंदूकों के लिए फ्री लाइसेंस है, अर्थात मार्केट से जाकर बंदूक खरीदो और अपनी सुरक्षा खुद करो, ठीक वैसा ही फ्री हथियार लाइसेंस मॉडल यह बिहार में भी लागू कर देंगे.

चलिए किसी मामले में तो बिहार का कोई नेता अमेरिका से अपने राज्य की तुलना कर रहा है!

ऐसे में मुझे एक पुराना चुटकुला याद आ गया, जिसमें बराक ओबामा अपने भारत दौर पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से मिलते हैं, तो दोनों के बीच दिलचस्प कन्वर्सेशन होता है.

इस बातचीत में बराक ओबामा लालू जी से कहते हैं कि "आप हमें 5 साल के लिए बिहार दे दीजिए, हम इसको अमेरिका बना देंगे!"

इसके जवाब में लालू जी का उत्तर होता है कि "आप हमें 5 साल नहीं, बल्कि 5 महीने के लिए ही अमेरिका दे दीजिए, हम उसको बिहार बना देगा!"

भक्क बुड़बक... भक्क!

यह हास्य का विषय होते हुए भी बिहार की सच्चाई रही है. जंगलराज की संज्ञा, अगर किसी एक राज्य को पूरी 'शिद्दत' से मिली है, तो वह बिहार ही है. पिछले कुछ दशकों से संपूर्ण देश में 'बिहारी शब्द' कितना अपमानजनक बनकर रह गया है, वह किसी भी राज्य में कार्यरत किसी बिहारी मजदूर या किसी उच्च पद पर कार्यरत बिहारी प्रवासी से पूछ लीजिये! आज भी आपको वह 'टीस' नज़र आ जाएगी.
आखिर यह 'टीस' और 'दर्द' इसी मानसिकता के कारण ही तो रहा है?

कानून के राज को धता बताने की सोच के कारण ही तो बिहार और बिहारी लोगों ने इतना कुछ सहा है, अन्यथा कौन सा खनिज और कौन-सी प्रतिभा इस महान राज्य में नहीं रही भला!

दे दो सबको बंदूक... और लगा दो सबको एक-दूसरे के शिकार पर! अपहरण उद्योग बिहार में पूरी शिद्दत से पनपा, अब इस उद्योग को कई लोग निश्चय ही शिद्दत से याद कर रहे होंगे!

यह मूवी नहीं, बल्कि एक समय में बिहार का सच थी... देख लीजियेगा, अगर नहीं देखा हो!

न केवल एक राजनेता, बल्कि कहने को तो वहां सुशासन बाबू का राज है, और पहले की तुलना में बिहार में बहुत सुधार भी हुआ है, लेकिन फिर भी 'जंगल राज' की आवाज गाहे-बगाहे क्यों उठती है, यह केवल सरकार को ही नहीं, बल्कि समस्त बिहारी समाज को विचार करना चाहिए.

यही दोनों राज्य क्यों, बल्कि बीते दिनों तमिलनाडु से एक खबर बड़ी तेजी से फैली कि राज्य में बिहारी मजदूरों पर हमला हो रहा है. वहां से 'बिहारी मजदूर' भगाए जा रहे हैं. शुरुआत में खबर को दबाने की कोशिश हुई, और एस ऐसे में यह बहुत ज्यादा उछली भी नहीं. साथ ही इस खबर पर तमिलनाडु के पुलिस प्रमुख सहित तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन तक सक्रिय दिखे, लेकिन जो बिहारी लोग वहां से लौट कर आ रहे हैं, उनका अनुभव कुछ अलग ही है.


खैर, किसी समाज में इक्का-दुक्का घटनाओं को बहुत उछाला भी नहीं जाना चाहिए, किंतु लीपापोती करने से, समस्याओं की अनदेखी करने से, समस्याएं बढ़ भी जाती हैं, और अनदेखा करने के क्रम में कभी-कभी समस्याएं उस स्तर तक पहुंच जाती हैं, जहां से कदम पीछे खींचना मुमकिन नहीं होता.

जाहिर तौर पर एक गणतंत्र के तौर पर भारत वर्ष में इस तरह का दौर महाराष्ट्र से लेकर दूसरे राज्यों तक में देखा गया है, और इसे 'कानून का शासन' तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता.

कानून की बात हो, और यूपी की बात न हो, ऐसा भला कैसे हो सकता है?

उत्तर प्रदेश की बात की जाए, तो वहां पर भी बुलडोजर बाबा के नाम से मशहूर हो चुके योगी आदित्यनाथ ने संगठित अपराध के खिलाफ मजबूत इच्छाशक्ति अवश्य दिखाया है. किसी भी आपराधिक घटना पर मुख्यमंत्री बेहद तल्ख अंदाज़ में देखे गए हैं. इन सबके बावजूद अपराध तो हो ही रहे हैं, और ऐसे में उससे निपटने के तरीकों पर अलग-अलग चर्चा ज़रूर की जा सकती है,  लेकिन 'बुलडोजर बाबा' के इस बयान की तारीफ होनी चाहिए कि 'संगठित अपराध करने और ऐसी सोच रखने वालों को उत्तर प्रदेश में मिट्टी में मिला दिया जाएगा'!

विपक्ष सहित तमाम पत्रकार - मानवाधिकार कार्यकर्ता संदेह की बिना पर, किसी आरोपी की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने को बेशक कानून का शासन मानने में किंतु-परन्तु करें, किन्तु तात्कालिक उपचार के तौर पर योगी सरकार इस उपाय को प्रभावी ढंग से आजमा रही है. इससे कम से कम तात्कालिक तौर पर माफिया - अपराधियों में खौफ तो निश्चित ही है, किंतु तथ्य यह भी है कि यह 'इमरजेंसी उपचार' ही है.

समाज में कानून का राज, अगर इसी तरीके से स्थापित करना संभव होता, तो न्यायालय, संविधान और कानून बनते ही क्यों भला? ऐसे में यह तो बड़ा ही आसान है कि पुलिस केवल अपराधियों का एनकाउंटर कर देती और अपराधी साफ़ हो जाते! पर इसका दूसरा पक्ष यह है कि इस तरह के सिस्टम का भयंकर दुरूपयोग होना शुरू हो जाता है. आखिर यह मध्ययुगीन सभ्यता तो नहीं ही है!


पुलिस, प्रशासन, राजनीति - राजनेता और दूसरे प्रभावशाली लोग इस तरह के सिस्टम का कब और कहाँ दुरुपयोग कर लेंगे, और करते भी हैं. आखिर कौन नहीं जानता है कि पुलिस-स्टेशन में किस मामले में कितनी घूसखोरी चलती है! 

समाज का हर व्यक्ति प्रशासनिक भ्रष्टाचार का प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष भुक्तभोगी मिल जायेगा. और सबसे बड़ा सवाल तो यह ही है कि 'संगठित अपराध' क्या वाकई बिना पुलिस-प्रशासन के संरक्षण के पनप सकता है? और क्या आगे ऐसा नहीं होगा?

फिर बात तो साफ़ हो जाती है न!

इस बात के एक नहीं, बल्कि अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे. इसीलिए अच्छी नीयत के बावजूद साइंटिफिक और न्याय पूर्ण तरीकों से अपराध को नियंत्रित करने के बारे में न केवल योगी सरकार को, बल्कि दूसरी सरकारों को भी विचार करना चाहिए.कानून के हाथ वास्तव में इतने लम्बे होने चाहिए कि संगठित अपराध पनपे ही क्यों भला?

और भी राज्यों की बात की जा सकती है, किंतु यहाँ केंद्र सरकार की बात न करना इस लेख को अधूरा कर जायेगा!थोड़ी लम्बाई बढ़ गयी है, इसलिए शार्ट में समेटते हैं इसे...

सीबीआई से लेकर ईडी तक, और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से लेकर आईबी तक पर यह आरोप आम हैं कि सिर्फ विपक्षी नेताओं को टारगेट किया जा रहा है, और जो 'भ्रष्टाचारी', भारतीय जनता पार्टी में सम्मिलित हो जा रहा है उसके कृत्यों की अनदेखी की जा रही है!

विपक्ष के तमाम नेता अब यह नहीं कह रहे हैं कि वह पाक - साफ़ हैं, बल्कि उनका जोर इस बात पर है कि भाजपा से सटते ही 'भ्रष्टाचारी-दाग' सफ़ेद कैसे हो जा रहे हैं?

उपरोक्त वाक्य को एक बार और पढ़ें, और सोचें कि हमारी राजनीति का क्या स्तर हो गया है, और चर्चा किस बात पर केन्द्रित हो गयी है. पूरी राजनीति ही व्यंग्य में घुली नज़र आएगी!

बहरहाल सच क्या है, झूठ क्या है, इसकी अपनी-अपनी व्याख्या हो सकती है, और यह व्याख्या अनंत है, किंतु यह एक फैक्ट है कि सरकार विश्वास पर चलती है. ऐसे में  समाज में मैसेज क्या जा रहा है, यह बात सरकार के लिए बेहद आवश्यक है. कानून के शासन के लिए एक समग्र सहमति कहीं ज्यादा आवश्यक है. आखिर, वर्तमान कानून कोई आसमान से थोपा गया 'कानून' तो है नहीं, यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं है, बल्कि समाज के लोगों ने ही, समाज की सुरक्षा के लिए 'कानून का निर्माण' किया है, और यह प्रक्रिया चलती रहती है.
ऐसे में अगर सीबीआई, ईडी या दूसरी एजेंसियां कानून का अनुपालन कर रही हैं, तो इसके प्रति समाज में सहमति बनी रहनी चाहिए, अन्यथा 'विश्वास के अभाव' में लोकतंत्र को नुकसान ही पहुंचता है.

हालाँकि, जो भी स्थिति हो, कोई विदेशी आकर हमें संरक्षित तो करेगा नहीं. रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया, किसी ने क्या ही कर लिया भला?

अफगानिस्तान जैसे छोटे और कमजोर देश से अमेरिका जैसे देश ने एक तरह से हार मान ली, और भारत जैसे अपने सहयोगियों को लगभग धोखा देते हुए, वह अफगानिस्तान से पलायन कर गया. वह भी उन्हीं तालिबानी लड़ाकों के हाथ में देश को सौंपकर, जिसके खिलाफ उसने लड़ाई शुरू की थी. 

इसलिए किसी विदेशी धरती पर 'प्रलाप', निरी मुर्खता ही है. 

यहाँ महाभारत का 'वयं पंचाधिक शतं' का सूत्र लागू होता है. पर इसकी व्याख्या आप गूगल में ढूंढ लें, पहले ही यह लेख लंबा हो गया है. अगर यह नहीं मिले, तो कमेन्ट कीजियेगा, इस पर एक अलग लेख में विस्तार से चर्चा करने का प्रयत्न होगा!

समझना मुश्किल है कि तमाम नीतिगत सुधारों पर बात की जाती रहती है, और अब टेक्नोलॉजी के 'चैट जीपीटी' युग में, पारदर्शिता भला क्या मुश्किल है?
'कानून का राज', कानून का एक्शन, लोगों से संवाद, पारदर्शी क्यों नहीं हो सकता भला?
अदालती कार्रवाइयाँ हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में क्यों नहीं हो सकतीं भला, जिससे जनता खुद समझती चली जाएगी.

सच कहा जाए तो ऐसी जगहों पर 'ग्रे एरिया' का होना, हमारे भारत जैसे विशाल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. जैसे-जैसे लोग परिपक्व होते जायेंगे, हमारे सामने 'कानून का राज' शुरुआत से आखिर तक पारदर्शी करने की चुनौतियाँ बढती ही जाएँगी. इसे हम अनदेखा नहीं कर सकते. 

आखिर आज हम जी-20 जैसे संगठन की मेजबानी कर रहे हैं, तो विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, तो कानून और न्याय-व्यवस्था को पारदर्शी बनाने में अधूरापन क्यों दिख रहा?

न्यायिक नियुक्ति आयोग पर सहमति क्यों नहीं बन पा रही आखिर? 

अब इस लाइन को उठाकर कोई 'छुटभैया' क्रेडिट न ले कि देखो हमारी पार्टी तो चाहती है, अदालतें ही नहीं चाहतीं...  हकीकत इससे काफी गहरी है, और अगर इस पर सहमति नहीं बन पा रही है, तो यह अपने आप में बड़ा सवाल है. और इस पर खुलकर भिन्न मंचों पर चर्चा करने में भला क्या गुरेज है? आखिर न्यायाधीशों पर राजनैतिक दबाव होने की बात भी तो साथ ही में की जा रही है, उसका समाधान कौन करेगा भला?

लोकतंत्र में तो जनता मालिक है, ऐसे में गंभीर मुद्दों पर जन जागरूकता से पारदर्शिता ही तो आएगी!


हर व्यक्ति, हर राजनेता, हर महान शासक अपने शासनकाल में कुछ बड़ा परिवर्तन करना चाहता है, और उसे नीतिगत स्तर पर अवश्य ही चुनौतियों को स्वीकारना चाहिए. बाकी पीआर एक्टिविटीज तो होती ही रहेंगी, किन्तु इनका दीर्घकालिक प्रभाव भला किस ओर और कितना होगा भला? 

फिर वही बात, दुहराकर इस लेख की समाप्ति करना चाहूंगा कि जिस प्रकार से एक मनुष्य बिना भोजन के कुछ समय, कुछ दिन या कुछ महीने ही जिंदा रह सकता है, और अंततः वह अपने अस्तित्व को खो देगा.

ठीक उसी प्रकार से कमजोर 'कानून के राज' से भी समाज भी अस्तित्व विहीन हो सकता है, और खासकर जब लोकतंत्र की बात की जाए, तो इसके तमाम पहलुओं पर ध्यान देना, साथ में पारदर्शी संवाद करना, और कानून जिसके लिए बना है, उसके साथ तालमेल करना भी उतना ही आवश्यक हो जाता है.इस प्रक्रिया से निश्चित रूप से एक स्वस्थ और सजग समाज का निर्माण संभव है.आप इस संबंध में क्या कहेंगे, कमेंट बॉक्स में अपने विचारों से निश्चित रूप से अवगत कराएं.

जय हिन्द, जय भारत 

लेखकमिथिलेश कुमार सिंहनई दिल्ली 
Published on 13 March 2023 (Update: 13 March 2023, 16:58 IST)

डिजिटल दुनिया से अपने बिजनेस को फायदा पहुँचाने हेतु, यह वीडियो अवश्य देखें 👆



एक पत्रकार हैं, तो सीखने-जानने-समझने एवं जूनियर्स को बताने हेतु इन लेखों को अवश्य पढ़ें:

क्या आपको यह लेख पसंद आया ? अगर हां ! तो ऐसे ही यूनिक कंटेंट अपनी वेबसाइट / ऐप या दूसरे प्लेटफॉर्म हेतु तैयार करने के लिए हमसे संपर्क करें !


** See, which Industries we are covering for Premium Content Solutions!

Web Title: Rule of Law is Mandatory for Civilized Society, Hindi Article 2023, by Writer Mithilesh Kumar Singh, Premium Unique Content Writer, Hindi Editorial Articles

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ