जीवन में मनुष्य स्वयं का सबसे बड़ा मित्र बन सकता है, और स्वयं का सबसे बड़ा शत्रु भी वही होता है. स्वयं को मित्र अथवा शत्रु बनाने में अज्ञान सबसे बड़ी बाधा है, जिसे सिर्फ और सिर्फ गुरु ही दूर कर सकता है, यह शास्त्रों में स्पष्ट वर्णित है. गुरु को इसीलिए तो ईश्वर से ऊपर का स्थान दिया गया है.
इससे जुड़ी बात यह है कि संसार में व्यक्ति हर किसी से कुछ न कुछ सीखता ही रहता है, तो क्या सभी को गुरु मान लिया जाना चाहिए?
उत्तर है 'नहीं'!
गुरु वह होता है, जो आपके जीवन की नींव में होता है. जिसका चरित्र, जिसकी शिक्षाएं आपके हृदय में धर्म के रूप में अमिट हो जाएँ, और आप 'स्व कल्याण' के पथ पर चलते हुए 'मानव कल्याण' के यज्ञ में सम्मिलित होते जाते हैं.
गीता के चौथे अध्याय के 39वें श्लोक में ज्ञान के बारे में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने एक और महत्व की बात कही है, और वह है मनुष्य के श्रद्धावान (Grateful) होने के बारे में. 'श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं'
संक्षेप में इसे यूं कहा जा सकता है कि श्रद्धावान मनुष्य को ही ज्ञान प्राप्त होता है.
अब दोनों बातों को अगर एक साथ देखें तो स्पष्ट है कि ज्ञान प्राप्ति हेतु, प्रत्येक मनुष्य का न केवल गुरु होना चाहिए, बल्कि उसे अपने गुरु के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए, और वह श्रद्धाभाव दिखना भी चाहिए - मनसा वाचा कर्मणा - तीनों रूप में, प्रकट रूप में.
वर्तमान समय में कई बार योग्य व्यक्ति भी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करने में यह सोचकर संकोच करते हैं कि बाद में उनके किसी सही - गलत आदेश का विरोध करना कठिन हो जाएगा. किन्तु, भीष्म पितामह और गुरु परशुराम का प्रसंग इस तथ्य को सिद्ध करता है कि श्रद्धा रखते हुए भी गुरु के किसी आदेश का विरोध किया जा सकता है.
द्रोणाचार्य और अर्जुन का उदाहरण भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है. गुरु से विरोध होना, सहमत न होना सामान्य बात है, किन्तु उनके द्वारा ग्रहण किये गए ज्ञान के प्रति श्रद्धा न रखना घोर निंदनीय है.
वास्तविकता यह है कि, अगर हम चुपके से गुरु से ज्ञान लेंगे, उनके प्रति श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो वह ज्ञान, अज्ञान बनकर हमारे भीतर किसी दुर्योधन की भांति अहंकार ही उत्पन्न करेगा, अथवा कर्ण के ज्ञान की भांति वह शापित हो जायेगा... उचित समय पर साथ ही नहीं देगा.
इसलिए गुरु का होना, उनके प्रति श्रद्धावान होना, प्रत्येक ज्ञानवान व्यक्ति के लिए अनिवार्य है.
आइये, गुरु पूर्णिमा के इस पावन अवसर पर हम अपने गुरु के चरित्र के प्रति, उनकी शिक्षाओं के प्रति न केवल श्रद्धा प्रकट करें, बल्कि स्वयं के चरित्र में उसे आत्मसात भी करें, पूरी प्रमाणिकता के साथ.
गुरु पूर्णिमा की कोटि कोटि शुभकामनाएं
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
(उद्यमी, लेखक: 9990089080)
अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धा भाव से 2 शब्द 🙏👇
उपरोक्त लेख के सन्दर्भ में, आज गुरु पूर्णिमा के दिन, श्रद्धा से नतमस्तक होकर अपने 3 गुरुओं का उल्लेख करना चाहूँगा.
1. संयुक्त परिवार
इस संस्था का योगदान अकल्पनीय है, और इसीलिए इस संस्था के प्रति श्रद्धा से खुद को नतमस्तक करता हूँ. बेशक, आज के समय में इसे ख़ारिज करने के लिए तमाम तर्क-कुतर्क गढ़े जाते हैं, किन्तु मनुष्य को संवेदनशील बनाये रखने के लिए यह एक सक्षम संस्था रही है, और आगे भी अगर मनुष्य संवेदनशील बना रहा, तो निश्चित रूप से 'संयुक्त परिवार' का उसमें विशिष्ट योगदान रहेगा ही रहेगा.
हाँ! वर्तमान में इस संस्था की कार्यप्रणाली में कुछ परिवर्तन, इसे जड़ से चेतन बना सकती है. इस पर पिछले दिनों लिखा गया मेरा एक लेख अवश्य पढ़ें, अगर आप इस संस्था की अहमियत को ज़रा भी उपयोगी समझते हैं (किन्तु पहले यह लेख पूरा पढ़ लें 😊): https://www.articlepedia.in/2022/06/sanyukt-parivar-united-family-hindu.html
2. श्री कृष्ण देव सिंह
प्रत्येक बच्चे के शुरूआती नायक उसके पिता होते हैं, किन्तु आज 40 साल की उम्र में भी मेरे पिता मेरे नायक हैं. अपनी जड़ों से जुड़े रहने का उनका चरित्र मुझे भगवान राम के उस कथन की याद दिलाता है, जब वह लंका विजय के पश्चात् लक्ष्मण से कहते हैं कि विभीषण का राजतिलक करके जल्दी आओ लक्ष्मण, मुझे जल्द से जल्द अयोध्या लौटना है.
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
गाँवों से पलायन की अंधी दौड़ में श्री कृष्णदेव सिंह को मैंने एक मजबूत चरित्र के रूप में देखा है. एक भारतीय सैनिक के रूप में देश भर में भ्रमण करने के पश्चात् अपनी जड़ों को खाद पानी देने की आपकी जिम्मेदारी मुझे सदा ही प्रेरित करती रही है.
यद्यपि, कई मुद्दों पर मैं उनसे न केवल असहमत रहता हूँ, बल्कि विरोध भी करता हूँ, किन्तु उनका चारित्रिक नायकत्व मेरे हृदय की गहराईयों में सदा ही धर्म के विराजमान होने का बोध कराता रहता है.
3. डॉ. विनोद बब्बर
साहित्य संगीत कला विहीनः , साक्षात् पशुः पुच्छ विषाण हीनः I
तृणं न खादन्नपि जीवमानः ,तत् भागधेयं परमं पशूनाम् I I
इस श्लोक का भावार्थ आप सब समझ ही गए होंगे, कि बिना साहित्य, संगीत, कला आदि के मनुष्य पशु समान होता है, और मैं बड़ा भाग्यशाली रहा कि युवावस्था में मुझे गुरुवर (डॉ. विनोद बब्बर) का सानिध्य मिला. जीवन को समझने में साहित्य का योगदान कितना अधिक हो सकता है, इसकी कल्पना शुरुआत में करना आसान नहीं है. यह तो वह रस है, जिसमें डूबकर ही इसे महसूस किया जा सकता है. विश्व के अधिकांश देशों के भ्रमण के साथ-साथ अनेकानेक विषयों पर प्रमाणिक लेखन, राष्ट्रीय दृष्टिकोण की वैचारिक दृष्टि रखने वाले आप जैसे गुरु का सानिध्य निश्चय ही किसी पुण्य का फल है.
जीवन के हर क्षेत्र में प्रमाणिक तथ्यों के आधार पर अपनी सोच को विस्तार कैसे दिया जाए, यह आपसे सीखने का अवसर मिला, विस्तार से चर्चा करने का अवसर मिला, समाज में परखने का अवसर मिला, और इस हेतु आपके प्रति श्रद्धा से सर झुकाता हूँ.
इन 3 का नाम लेने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि मेरे जीवन में और किसी का योगदान नहीं है, बल्कि शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति या संस्था रही हो, जिसके संपर्क में मैं आया हूँ, या जिसके बारे में मैंने जाना या सुना हो, और उससे मैंने कुछ सीखा न हो!
...आने वाले समय में भी यूं ही हमेशा सीखने को तत्पर भी रहने वाला हूँ.
अलग-अलग अवसरों पर उन सभी छोटे- बड़े, साक्षर- निरक्षर, ज्ञात- अज्ञात गुरुओं के प्रति मैं श्रद्धा से सर झुकाता हूँ. जो कुछ भी थोड़ा ज्ञान है, बुद्धि है, वह आप सबकी कृपा से मिला है, बल्कि आप सबके सहयोग से ही आगे भी सार्थक दिशा में बढ़ने की योग्यता को संभाला जा सकता है.
आप सबको प्रणाम, बारम्बार प्रणाम 🙏🌱
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
(उद्यमी, लेखक: 9990089080)
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