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मीडियाई अर्थशास्त्र, लेखनी एवं बदलती तकनीक - Media in Present, Writing, Technology Effect, Hindi Article, Mithilesh



रात को सोने की तैयारी कर रहा था कि मेरा फोन बजा. उधर से कोई मीडिया के सज्जन थे, दैनिक अखबार के संपादक! मुझे बाद में पता चला कि उनके पास चार अख़बार एवं पत्रिकाओं की जिम्मेदारी थी, दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक. अपने परिचय में उन्होंने बताया कि उनके चारों पत्र डीएवीपी में विज्ञापन के लिए 'सूचीबद्ध' हैं. खैर, मेरी वेबसाइट मिथिलेश२०२०.कॉम की तारीफ़ करते हुए उन्होंने बात शुरू की और कहा कि मिथिलेश जी, आपने अपनी वेबसाइट बेहतर ढंग से बनाई और मेंटेन की है. बातों ही बातों में उन्होंने अपना दर्द भी बयान किया और कहा कि मैंने भी अपने अख़बार, पत्रिका के लिए एक नहीं कई-कई बार वेबसाइट बनवाई, लेकिन एक तो वह चल ही नहीं पायी और थोड़ी बहुत चली भी तो उससे न कुछ फायदा हुआ, ऊपर से सर्वर, कोडिंग का एरर, खर्चा ... बला, बला! फिर उन्होंने कहा कि आइये कभी आफिस में बैठते हैं, दिल्ली के साउथ एक्स में ऑफिस है. मुझे शुरुआत में लगा कि यह वेबसाइट के एक क्लायंट हैं तो मैंने दो दिन बाद का समय उन्हें दिया और उनके ऑफिस पहुंचा. वहां पहुंचकर मुझे अंदाजा लगा कि यह मामला सिर्फ वेबसाइट भर का ही नहीं है, बल्कि ज़ख्म कहीं ज्यादा गहरा है. अपने 7 साल के अनुभव और उन महानुभाव के पिछले 25 सालों से ज्यादा मीडिया अनुभव के आधार पर तकरीबन चार घंटे हम लोगों ने बातचीत की! अनेक बातें तो मुझे ध्यान में पहले से थीं तो कई अंदर की बातें पता चलीं, जिसने लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ की हालिया जद्दोजहद को उधेड़ कर सामने रख दिया. इससे जुड़ी समस्याओं, आर्थिक पहलु एवं समाधान की जो बातें वहां हुईं, वह क्रमवार रखने की कोशिश करता हूँ:
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वर्तमान मीडिया का अर्थशास्त्र (Economy of Today's Media): अधेड़ उम्र के शर्मा जी ने साफ़ कहा कि मिथिलेश जी, मेरे पास कई अखबार और पत्रिकाएं हैं किन्तु उनमें से न कोई बनाता हूँ और छापने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, बस फ़ाइल कॉपी का जुगाड़ करके 'डीएवीपी' में जमा कराता हूँ और विज्ञापनों के भरोसे आगे का कार्य जैसे-तैसे चलता है. बताता चलूँ कि कई अख़बारों और पत्रिकाओं की हालत को तो मैं भी जानता हूँ कि किस प्रकार 10% से लेकर 20 और 25% तक के कमीशन आज मोदीराज में भी डीएवीपी के 99 फीसदी अधिकारियों के पास प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में पहुँचते हैं और उसके बदले अखबार न छापने और सर्कुलेशन का लम्बा झोल करने का वह लाइसेंस सा दे देते हैं. कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बिना 'इस खास' चढ़ावे के अख़बार, पत्रिकाएं 'डीएवीपी' के गेट से भीतर भी नहीं जा सकती हैं! सो, इस बात पर मुझे कुछ ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि छोटे और बड़े मीडिया हाउसेज सभी इस खेल में कहीं न लगे हुए ही हैं और यह एक सर्वज्ञात तथ्य भी बन चुका है. मैंने उनसे पूछा कि फिर दिक्कत क्या है शर्मा जी, कई लोग तो 'डीएवीपी' से ऐसा काम करके ही रोटी-रोजी चला लेते हैं. बिचारे शर्मा जी के अंदर कहीं पत्रकारिता बची हुई थी, इसलिए बड़े कातर स्वर में बोले कि 'मुझे यकीन नहीं होता है कि इसी तरह की 'पत्रकारिता' के लिए मैंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है! अब तो 'लाइजनिंग, दलाली और ब्लैकमेलिंग' जैसे शब्द जहाँ कहीं सुनता हूँ, वहां लगता है कि मेरी ही बात हो रही है! ठंडी आह भरके मैंने कहा कि, यह तो चलन आम हो गया है और आप भी इसी राह पर हो, फिर इसमें क्या किया जा सकता है. इस पर बेहद साफगोई से उन्होंने कहा कि 'आपकी वेबसाइट को देखकर थोड़ी उम्मीद जगी कि 'शायद पत्रकारिता और लेखन' को कोई राह मिल जाए! लिखते भी हो बेधड़क, छपता भी है वह कई जगह पर, एड भी दिख रहे हैं...  सच बताइए मिथिलेश जी, अपनी वेबसाइट या ब्लॉग को चलाकर आप कितना कमा लेते हो, इसमें कितना खर्च आ जाता है, टेक्नोलॉजी कौन सी और क्यों ली है? क्योंकि मीडिया लाइन में इतनी गिरावट आ चुकी है कि कई बार सोचने पर खुद को ही बुरा लगता है, साथ ही साथ इसमें कमाई के श्रोत भी दलाली, ब्लैकमेलिंग के अलावा कुछ और नहीं दिखता है! वेबसाइट के रूप में जरूर इसका अगला पड़ाव दिखता है, किन्तु छोटे और मझोले मीडिया समूहों को इसमें उलझनें भी इतनी दिखती हैं कि कोई राह स्पष्ट नहीं दिखती! इतने सारे प्रश्नों को एक साथ पूछने पर शर्मा जी थोड़ा झेंप गए और बोले, माफ़ कीजियेगा, कई वेबसाइट वालों से वेबसाइट बनवाई पर संतुष्टि नहीं मिली तो कई धोखा देकर चलते बने. ऐसे में मीडिया, खासकर छोटे और मझोले साइज़ के अपना खर्च किस प्रकार निकालें, यह समझ से बाहर की बात हो गयी है.
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मीडिया क्षेत्र में गिरावट का कारण (Why Media is Non Effective): शर्माजी की बातें मैंने ध्यान से सुनीं और कहा कि, आप खुद मीडिया लाइन में 25 सालों से हो इसलिए आप ही बताओ कि इसमें बड़ी गिरावट का कारण आखिर है क्या? शर्मा जी ने एक स्वर में कहा कि मिशन का अभाव, कॉर्पोरेट घरानों का कब्ज़ा, प्रिंट मीडिया की गिरती अहमियत और इन सबसे बढ़कर छोटे-मझोले अख़बारों के साथ पत्रकारों की कमाई के श्रोत सूख जाना! मेरे दो बेटे इंजीनियरिंग कर रहे हैं, उन्हें इस क्षेत्र में तो कभी न लाऊँ. बातें ट्रैक से भटक न जाएँ, इसलिए उनको रोकते हुए मैंने कहा कि आपका मीडिया क्षेत्र का अपना अनुभव है, किन्तु इस क्षेत्र में जो कठिनाइयां आयी हैं, उनका बड़ा कारण तकनीक की समझ और उसके प्रयोग को लेकर भी है. फिर वह चाहे मीडिया के मिशन की बात हो अथवा इसके अर्थशास्त्र को लेकर उहापोह ही क्यों न हो? थोड़ा और स्पष्ट करते हुए मैंने कहा कि आप बताइए कि बड़े या छोटे 'प्रिंट मीडिया' के पास पाठक हैं कहाँ? इंटरनेट क्षेत्र में आयी क्रांति और उसके बाद मोबाइल क्रांति ने तो इस क्षेत्र के सभी पाठकों को झटके से छीन लिया है, जिसकी भनक छोटे तो छोडिए, बड़े अख़बार समूहों तक को नहीं लगा, जिसका नतीजा उन्हें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में भुगतना ही पड़ा. हाँ, टाइम्स इंटरनेट (नवभारत टाइम्स समूह) जैसे कुछ समूहों ने वक्त की नज़ाकत भांपते हुए जरूर इस क्षेत्र में अपनी पैठ मजबूत की. अंग्रेजी मीडिया इस तकनीकी परिवर्तन को भांपने में काफी आगे रही तो हिंदी मीडिया का 80 फीसदी हिस्सा इस परिवर्तन को समझने में चूक सा गया. हालाँकि, भास्कर, जागरण, प्रभासाक्षी जैसे कुछ छोटे-बड़े नाम इसमें जरूर लगे रहे. दुसरे भी कई नामों ने इसमें हाथ आजमाने की कोशिश जरूर की, परन्तु उनका संघर्षकाल तकनीकी जानकारियों की गम्भीरता के अभाव में लम्बा खिंच गया. इससे भी बड़ी बात यह हुई कि प्रिंट मीडिया का क्षेत्र काफी समय से इंटरनेट का पिछलग्गू सा बन कर रह गया है. आप अख़बार, पत्रिका कुछ भी उठाकर देख लीजिए और उसके दो चार लेखों या ख़बरों का एक पैरा गूगल में डाल कर देखिये तो आपको अहसास हो जायेगा कि उसे गूगल के माध्यम से किसी वेबसाइट या ब्लॉग से उठाकर छापा गया है. ऐसी स्थिति में पाठकों का छिटकना अस्वाभाविक कहाँ है? हाँ, कुछ पुराने लोग जो इंटरनेट इत्यादि से साम्य बिठा पाने में मुश्किल महसूस करते हैं वह जरूर अख़बार, पत्रिकाओं के पाठक बने हुए हैं. इसके अतिरिक्त, जिन लोगों को अपने लेख, फोटो देखने की आदत होती है, वह भी अख़बार का खुद से सम्बंधित हिस्सा देख लेते हैं. पर ऐसे लोगों की संख्या कम है और लगातार कम होती जा रही है, जिसे प्रिंट मीडिया पर निर्भर रहने वालों को अवश्य ही सोचना चाहिए. जाहिर है, ऐसे में कहाँ का मिशन और कहाँ का अर्थशास्त्र!
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कंटेंट की अहमियत (Content is King on Internet): शर्मा जी से बातचीत के क्रम में मैंने आगे कहा कि कई अख़बार और पत्रिका के लोगों ने मुझसे वेबसाइट बनवाई तो कई ने मुझसे इसे मेंटेन करने को भी कहा, किन्तु महीनों बाद भी जब नतीजा 'ढाक के तीन पात' ही रहा तब उनका मन इससे उचट गया, जो स्वाभाविक ही था. कई लोगों ने मुझसे यह कहा कि अमुक कीवर्ड पर मेरी वेबसाइट गूगल के टॉप पर चाहिए, आप ला दीजिये. ऐसे लोगों से जब मैंने रेगुलर कंटेंट की मांग शुरू की, मसलन एक्सक्लूसिव न्यूज, आर्टिकल्स तब पत्रकारों और सम्बंधित अधिकांश सम्पादकों का अनोखा जवाब था कि दूसरी जगह से उठाकर डाल दीजिये वेबसाइट पर, गूगल पर तो सब मिलता है! मुझे भारी आश्चर्य हुआ, क्योंकि इस पेशे की मैं इज्जत करता था अब तक और वह सिर्फ इसलिए कि  इस क्षेत्र के लोग विचारवान होते हैं, लिखकर दूसरों तक अपने सटीक विचार पहुंचाते हैं! जहाँ तक गूगल और इंटरनेट पर भी अपनी वेबसाइट या ब्लॉग की पॉपुलैरिटी की बात है तो वहां भी 90 फीसदी से ज्यादा अहमियत 'यूनिक कंटेंट' की ही है. बाकी 10 फीसदी में मेटा, कीवर्ड, बैकलिंक इत्यादि कुछ अन्य कार्य हैं, किन्तु अगर आपका कंटेंट दमदार और सबसे अलग नहीं है तो आप अपनी वेबसाइट पर खूब मसाला डालिए, किन्तु कुछ भी लाभ नहीं होने वाला है! यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे संपादक और पत्रकार जान बूझकर अपनी आँखें चुराते हैं. यह बात दावे से कही जा सकती है कि अगर एक साल, प्रतिदिन हज़ार शब्दों का 1 यूनिक लेख अपनी वेबसाइट या ब्लॉग पर आप डालते हैं और 10 फीसदी कीवर्ड, टैग, सबमिशन इत्यादि गतिविधियाँ (जोकि आसान है यूट्यूब से सीखना, समझना) करते हैं तो कोई कारण नहीं कि 365 लेख आपकी पहचान को स्थापित न कर दें! इतना ही नहीं, पत्रकार और संपादक महाशयों को इस क्षेत्र से इतनी बड़ी ऑपर्चुनिटी दिखाई देगी कि वह 'डीएवीपी' की दलाली की बजाय शान से 'यूनिक विजिट' के दम पर विज्ञापन लेने की सार्थक कोशिश कर सकते हैं. वैसे भी सुनने में आया है कि डीएवीपी (डाइरेक्टोरेट ऑफ़ विजुअल एडवर्टिजमेंट एंड पब्लिसिटी) ऑनलाइन मीडिया के लिए एक अलग सेक्शन बनाने जा रही है. हालाँकि, यह प्रावधान अभी भी है, किन्तु इसमें अभी तक के नियम अव्यवहारिक बताये जा रहे थे. खैर, जो भी हो, सरकारी अधिकारी अगर कमीशन से ही चलते हैं तो कोई नहीं, उसके बावजूद भी कलम (कीबोर्ड) वाले पत्रकारों और सम्पादकों को कमाई के अनेक विकल्प दिखेंगे. इसमें गूगल के एडसेंस से लेकर, दर्जनों अफिलिएट प्रोग्राम का रास्ता है, जो सीधे आपके पाठकों से जुड़ा हुआ है. यदि यह भी रास्ता आपकी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता है तो फ्रीलांसर.कॉम, अपवर्क.कॉम, कन्टेन्टमार्ट.कॉम जैसी सैकड़ों वेबसाइट हैं जो आपकी क्षमता का उपयोग करने के लिए पूरी विश्वसनीयता से कार्य कर रही हैं. आखिर यह दलाली और ब्लैकमेलिंग से तो अच्छा ही है!
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ब्लॉग/ वेबसाइट का तकनीकी पक्ष (When you want to make your Website or Blog): कंटेंट पर मेरे वक्तव्य से शर्माजी के चेहरे पर थोड़ी आशा के भाव आये, किन्तु अभी यह पूर्ण संतुष्टि जैसे नहीं थे. इसलिए, उन्होंने मुझसे कहा कि थोड़ा इसके तकनीकी पक्ष के बारे में भी बताइये, जिससे कोई अंजान या कम जानकार पत्रकार, संपादक ठगा न जाए. मैंने कहा कि इसमें कोई रॉकेट साइंस जैसा विषय नहीं है, किन्तु इसके लिए ध्यान जरूर देना होगा और क्रमिक रूप से सफर को लगातार जारी रखना होगा. अगर कोई पत्रकार मित्र हैं तो शुरू में उनके लिए फ्री-ब्लॉग बनाना ही फायदेमंद हैं और अगर इसे वह छः महीनों तक लगातार मेंटेन करने की इच्छाशक्ति दिखा पाते हैं तो फिर ब्लॉग को कस्टमाइज करा लेने से इसकी ख़ूबसूरती बढ़ जाएगी. इसे यूट्यूब पर खुद भी सीखा जा सकता है अथवा किसी योग्य की मदद लेकर शुरूआती रूप में कुछ हजार में कस्टमाइज कराया जा सकता है. फिर धीरे-धीरे आप फ्लिपकार्ट, अमेज़न, ऐडसेंस इत्यादि में कमाई के श्रोत ढूंढ सकते हैं तो पाठकों की संख्या और उनकी प्रतिक्रिया भी काफी मायने रखेगी. इसके लिए आप ब्लॉगर.कॉम, टुंबलर.कॉम, वर्डप्रेस.कॉम जैसे पॉपुलर और कस्टमाइजेबल प्लेटफॉर्म इस्तेमाल कर सकते हैं. बाद में आप इन्हीं ब्लॉग अड्रेस को अपने डोमेन का नाम दे सकते हैं. अख़बार या पत्रिकाओं में अपेक्षाकृत ज्यादा अपडेट होती है तो उसके लिए कई सेक्शन बनाने पड़ते हैं. इसके अतिरिक्त, आपको ईपेपर, ईमैगजीन भी अपलोड करनी पड़ती है. इसके लिए आपको बकायदा वेबसाइट बनाना ही ठीक रहेगा, किन्तु कस्टमाइज वेबसाइट से हज़ार गुना बेहतर और सुविधाजनक रहेगा ओपन सोर्स 'सीएमएस' का चुनाव, जैसे वर्डप्रेस, जुमला, द्रुपल इत्यादि. इनमें भी वर्डप्रेस का चुनाव आसान है. हालाँकि, वर्डप्रेस होस्टिंग को लेकर थोड़ा खर्चीला है और जब ट्रैफिक बढ़ता है तब इसका खर्च और मेंटिनेंस भी बढ़ती जाती है. अगर आप इस खर्च को वहन कर सकते हैं तो ठीक, अन्यथा आप ब्लॉगर/ टुंबलर जैसे प्लेटफॉर्म को प्रिफर करें. न...न... आप के यह ब्लॉग कम खर्चीले और बिलकुल उसी तरीके से प्रोफेशनल दिख सकते हैं, जैसे वर्डप्रेस! यकीन न हो तो आप मिथिलेश२०२०.कॉम (यही वेबसाइट) देख कर अंदाजा लगाइए कि यह किस प्लेटफॉर्म पर है!! जाहिर है, शुरुआत में आपको मार्किट से हेल्प लेनी पड़ेगी, किन्तु कोई आपको चीट न कर सके, इसके लिए आप खुद भी चुने हुए प्लेटफॉर्म की जानकारी लेने का समय निकालें. फ़ाइल और डेटाबेस का बैकअप लेते रहें. बाकी, यूनिक कंटेंट आप डालते हैं और सोशल मीडिया, ईमेलर इत्यादि से प्रचार शुरू करते हैं तो कोई कारण नहीं कि आपकी वेबसाइट प्रॉफिटेबल वेंचर में कन्वर्ट न हो जाए! फिर सावधानी से शेयर्ड होस्टिंग, वीपीएस होस्टिंग और फिर डेडिकेटेड होस्टिंग की ओर बढ़ें. किन्तु, यहाँ तक बढ़ने से पहले आप सूचना प्रौद्योगिकी इंडस्ट्री के बारे में किसी और से ज्यादा जान जायेंगे, यकीन कीजिये. और हाँ, जानकारी ही बचाव है. शुरू में आपको इंटरनेट पर सैकड़ों प्लगइन, रीडव्हेयर.कॉम जैसी वेबसाइट से मुफ्त के ईपेपर, ईमैगजीन सल्यूशन मिल जायेंगे, इसलिए हर जगह पैसे खर्चने की जरूरत नहीं. बस जरूरत है तो रेगुलर कार्य करने और अपडेट करने की और सीखने की! 
वैसे भी, दुनिया में ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे बिना सीखे आप कर पाते हैं, तो फिर पत्रकारिता और लेखन 'ऑनलाइन माध्यमों' की सहायता से कैसे करें और किस प्रकार इसे 'लाभदायी उपक्रम' में बदलें, इसे सीखने में हीलाहवाली क्यों? इसके लिए आपका 'इच्छाशक्ति' रुपी शस्त्र सबसे बड़ा सहायक साबित होगा, इस बात में शंका नहीं कीजियेगा!


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