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ऑनलाइन अफवाहों एवं ट्रॉल से सजगता जरूरी! New Hindi article about Trolls and abuse online, mithilesh


दुनिया में हर एक चीज का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलु होता है. यही उक्ति हालिया दिनों में सोशल मीडिया के उभार पर भी लागू होती है. इसका सकारात्मक पक्ष जहाँ एक दुसरे से जुड़ाव है, संदेशों का आदान-प्रदान आसानी से होना है, वहीं इसका जो सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष सामने आया है, वह इस पर फैलने वाली अफवाहें और साइबर बुलिंग है. इसी कड़ी में, दिल्ली के विकासपुरी में एक डॉक्टर की मामूली कहासुनी पर कुछ युवकों ने पीट पीटकर हत्या कर दी. कानूनी कार्यवाही चल ही रही थी कि इस मामले में सोशल मीडिया पर अफवाहों का दौर इतनी तेजी से फैलने लगा कि दिल्ली पुलिस सकते में आ गयी और तुरंत उसकी एक सीनियर अधिकारी ने ट्वीट करके इस हत्या में किसी प्रकार के साम्प्रदायिक एंगल को खारिज किया! हालाँकि, इसके बाद भी सोशल मीडिया पर अफवाह फ़ैलाने वाले अपने मिशन में लगे रहे. भारत इस मामले में किस हद तक संवेदनशील बन चुका है, इस छोटी घटना से हम समझ सकते हैं. यह केवल पहला मामला नहीं है जब किसी घटना ने सोशल मीडिया पर अलग ही एंगल से तूफ़ान मचाने की कोशिश की हो, बल्कि सच तो यह है कि जाने-अनजाने, व्यक्तिगत या संगठित हमले से आज लगभग हर व्यक्ति सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार का शिकार होता जा रहा है. आज जब देश में घर-घर और कोने-कोने तक मोबाईल पहुँच चुका है तो इंटरनेट ने भी अपनी पहुँच व्यापक कर ही ली है. ऐसे में जिसके पास इंटरनेट है, वह किसी न किसी रूप में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करता ही है. पिछले दिनों यह बात बड़े शोर शोर से फैली, जिसमें काफी हद तक सच्चाई भी थी कि आतंकी संगठन आईएस (इस्लामिक स्टेट) सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं को बरगला रहा है. गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने जब इसकी तह में जाने की शुरुआत की तो बेहद खौफनाक तस्वीर उभरी. इस कड़ी में, कई वेबसाइट और फेसबुक अकाउंट्स, पेज ब्लॉक किये गए. 
सवाल सिर्फ इस्लामिक स्टेट या दुसरे आतंकी संगठनों का ही नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल देश में ही कई अतिवादी संगठन हिंसा फ़ैलाने के लिए करने लगे हैं तो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी छुपे और खुले रूप में सोशल मीडिया पर दबंगई दिखाने से बाज नहीं आते हैं. अभी हाल ही में जेएनयू, राष्ट्रद्रोह, राष्ट्रभक्ति, भारत माता की जय जैसे कई मुद्दे उठे! इन मुद्दों की सच्चाई क्या है, परिणाम क्या निकला इस बात की चर्चा अपनी जगह है, किन्तु सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा एक अलग ही रूप में देखने को मिली. एक दुसरे पर लोग टूट पड़े कि 'भारत माता की जय बोलने' वाले देशभक्त हैं अथवा नहीं हैं! गाली-गलौच से लेकर तानाशाही और लोकतंत्र को कुचलने जैसे शब्दों से लेकर एक दुसरे के प्रति हिंसात्मक धमकियां दी गयीं. मेरे एक समझदार मित्र, जो एक पक्ष को लेकर सोशल मीडिया पर काफी आक्रामक और कई बार अभद्र भी हो जाते हैं, उनसे मैंने पूछा कि आखिर वह ऐसा क्यों करते हैं? उनका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया! उनका कहना था कि उस पक्ष के एक बड़े नेता ने कहा है कि सोशल मीडिया पर जिसके अधिक फ़ॉलोअर्स और लाइक होंगे, उसको अगले चुनाव में 'टिकट' मिल सकता है! अगले कुछ पलों तक मेरे मुंह से एक शब्द नहीं निकला और वह मित्र महोदय बोलते गए कि 'ऐसे शब्दों और वाक्यों के इस्तेमाल से 'लाइक' मिल जाती हैं. ऐसे तमाम लोग हैं जो मुर्ख नहीं हैं, बल्कि समझदार हैं, किन्तु वह भी राजनेताओं के तिलिस्म में फंसकर येन, केन, प्रकारेण लाइक और कमेंट की खातिर साइबर दबंग की शक्ल धारण कर लेते हैं. आजकल हम अपना अच्छा ख़ासा वक़्त सोशल मीडिया पर बिताते हैं. यहां पर बहुत से लोगों का सामना 'साइबरबुली' या 'ट्रॉल' से होता ही है, जो बात-बेबात लोगों से दबंगई करते हैं, धौंस जमाते हैं और गाली-गलौज भी करते हैं. अपनी ओर से तमाम कोशिशों के बावजूद सोशल नेटवर्क वेबसाइट्स इन इंटरनेट दबंगों से सही तरीक़े से निपटने में लगभग नाकाम ही रही हैं. इसका उदाहरण है ट्विटर के पूर्व सीईओ द्वारा लिखा गया एक मेल, जिसमें उन्होंने लिखा था कि 'हम ट्रॉल्स से निपटने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं'. 

सही ही तो है, किसी न किसी रूप में हर सोशल मीडिया यूज़र, ट्रॉल्स का शिकार होता रहा है. हालाँकि, फेसबुक सहित दुसरे सोशल प्लेटफॉर्म्स ने पोस्ट/ कमेंट की शिकायत का ऑप्शन दिया है, किन्तु लोग उसका प्रयोग करने में जाने क्यों हिचकिचाते हैं. विशेषकर महिलाएं कई जगहों पर अभद्र टिप्पणियों का शिकार हो जाती हैं, जिसे लेकर उनको सजग और सख्त रूख अख्तियार करना ही चाहिए, अन्यथा मामला बिगड़ कर कहीं से कहीं पहुँच सकता है. एक अध्ययन के अनुसार, तमाम वेबसाइट की क़रीब से निगरानी करके ऐसे साइबर दबंगों को शुरू में ही पहचाना जा सकता है. इनकी पहचान किसी ख़ास तरह की पोस्ट या उनके कमेंट से हो सकती है. इससे पता लगाया जा सकता है कि कुछ लोग आगे चलकर ट्रॉल या साइबर दबंग बन सकते हैं. ऐसे लोगों को पहचानकर उन्हें सुधारने की कोशिश की जा सकती है, मगर इसके लिए समाज को कहीं ज्यादा सक्रीय भूमिका निभाने की आवश्यकता पड़ सकती है तो दूसरी व्यवहारिक कठिनाई यह है कि जितनी मात्र में फेसबुक या ट्विटर पर पोस्ट और कमेंट होते हैं, उसके लिए सिर्फ कंप्यूटर एल्गोरिदम के सहारे ऐसे लोगों की पहचान करना बेहद मुश्किल है. साथ ही साथ इसके लिए मैनुअल एम्प्लोयी रखना असम्भव की कटगरी में रखा जा सकता है. हाँ, इसके लिए अगर समाज में जागरूकता फैलाई जाय और कानून के प्रावधानों की जानकारी आगे बढ़ाई जाय तो अवश्य ही परिवर्तन देखने को मिल सकता है. मेरे जैसे कई लोगों के साथ यह वाकया हो चुका होगा, और अधिकतर समय हम उसे अनदेखा ही कर देते हैं, किन्तु एक बार मैंने कड़ाई से अपनी पोस्ट पर गाली-गलौच करने वाले के खिलाफ पुलिस कम्प्लेन करने की बात कही तो वह व्यक्ति मेसेजबॉक्स में माफ़ी मांगता दिखाई दिया. जाहिर है, इसके लिए कानून और एक्टिवनेस दोनों काम आईं. हालाँकि, हर जगह यह फार्मूला कारगर नहीं होता है और कई बार लोग इसको लेकर अत्यधिक तनाव का सामना भी करने लगते हैं. सबसे मुश्किल यह बात आती है कि कब एक सामान्य पोस्ट धार्मिक, राजनीतिक रंग ले ले और न केवल कुछ लोग बल्कि समूह में लोग पोस्ट या कमेंट लिखने वाले व्यक्ति पर दबाव बनाने लगते हैं, इसका आभाष जब तक होता है तब तक देर होने की सम्भावना प्रबल हो जाती है! वह व्यक्ति कई बार अभिव्यक्ति की आज़ादी की व्याख्या को लेकर दोहरे तनाव में आ जाता है. उसे महसूस होता है कि उसे बोलने नहीं दिया जा रहा है, उसे दबाया जा रहा है! 

ऐसी परिस्थिति में वह कई बार लोगों से कटने लगता है तो कई बार अपना अकाउंट भी डिलीट कर देता है और कुछ मामलों में तो बात आत्महत्या तक जा पहुँचती है! हालाँकि, इसके लिए सिर्फ सोशल मीडिया और ट्रोल्स को ही दोष देना ठीक नहीं है, क्योंकि कई बार लोग व्यक्तिगत तनाव को सोशल मीडिया से जोड़कर बड़ा बना देते हैं और इसकी आड़ में खतरनाक कदम उठा लेते हैं, जिससे बचा जाना चाहिए! इसके अतिरिक्त आज़ादी के बारे में कहा जाता है कि 'एक व्यक्ति की आज़ादी सामने वाले की नाक से आगे नहीं होती है', इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कई लोग जान बूझकर व्यक्ति या समुदाय की भावनाओं को चोट पहुँचाने का कार्य करते हैं और जब लोग उसके अनुसार रिएक्शन देने लगते हैं तब वह अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रोते हैं! ऐसे मामलों में सच यही होता है कि ऐसे लोग जान बूझकर विवादित मामलों को उछालते हैं, ताकि उनको पब्लिसिटी मिले. कानूनी प्रावधानों में इसको लेकर भी संशोधन की आवश्यकता संभव है. हालाँकि, टेक्नोलॉजी की मदद से सोशल मीडिया में गाली गलौच करने वालों पर नकेल कसने की कोशिश तमाम कंपनियां कर रही हैं. इसी कड़ी में, एपल के सीरी सॉफ्टवेयर को डेवलप करने वाली कंपनी एसआरआई ने भी ऐसे आंकड़े जुटाए थे, जिनकी मदद से इंटरनेट दबंगों की पहचान शुरुआत में ही की जा सकती है. पर मुश्किल यह है कि कुछ इंटरनेट दबंगों की बातें कब समूह का रूप ले लेती हैं, और हालात बद से बदतर हो जाते हैं, इस 'वायरल दबंगई' का ठोस और तात्कालिक इलाज किसी के पास शायद ही हो! पुलिस और प्रशासन को भी ऐसी स्थिति में मामले को शांत कराना भारी पड़ जाता है. हालाँकि लोगों और सरकारों की कुछेक ऐसी कोशिशें हैं, जिनको आधार बनाकर गलत लोगों के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है. ब्रिटेन में सरकार ने ''स्टॉप एब्यूज़ ऑनलाइन'' के नाम से अभियान चलाया है जिससे इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों को ऐसे साइबर दबंगों से बचाया जा सके तो एक ग़ैर-सरकारी संगठन, ''द पेंग कलेक्टिव'' ने इंटरनेट ट्रॉल्स के ख़िलाफ़ ही ट्रॉलिंग का अभियान शुरू किया. ट्रॉल्स की पहचान करके उन्हें संदेश भेजे जाते थे कि वो ट्रॉलिंग से बाज़ आएं. अगर वो ऐसा जान-बूझकर नहीं कर रहे हैं तो इससे निपटने में उन्हें मदद का भी ऑफ़र दिया गया. मुख्य बात यह है कि साइबर दबंगों से निपटने के लिए ज़रूरी है कि उनको यह सन्देश जाना चाहिए कि उन्हें अपनी हरकतों की क़ीमत चुकानी ही होगी. भारत जैसे देश में इस प्रकार का प्रयास शुरू करने की आवश्यकता है. कहते हैं कि 'भय बिन होय न प्रीति', इसलिए बदमाशी करने वाले लोगों को कड़ाई से मेसेज दिया जाना ही दीर्घकालिक रणनीति कही जा सकती है. 

मुश्किल यह भी है कि लोगों को यह समझना होगा कि इस प्रकार ऑनलाइन दबंगई करने वाले कोई आसमान से तो आते नहीं, वह हमारे आपके बीच से ही तो होते हैं. ऐसे में घर और स्कूलों में बच्चों और किशोरों को इसके प्रभाव में आने से बचाने के लिए अभियान शुरू किया जाना चाहिए. माँ-बाप को भी अपने बच्चों के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर नज़र रखनी चाहिए, जिससे इस समस्या के निजात का हल दिख सकता है. सिर्फ यही क्यों बल्कि अनेक अग्रेसिव लोगों के व्यवहार के पीछे मनोवैज्ञानिक समस्याएं होती हैं और ऐसे लोगों से निपटने के लिए ज़रूरी है कि हम उनके प्रति हमदर्दी रखें, क्योंकि ऐसा करने वाले लोग अक्सर अकेलेपन के शिकार होते हैं. इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया का अत्यधिक इस्तेमाल करने से भी दिमाग पर बुरा असर पड़ता है, जिससे लोग चिड़चिड़े होकर एक-दुसरे पर गुस्सा निकालने से परहेज नहीं करते हैं. हालाँकि हर मामले में ऐसा कतई नहीं होता है और कई लोग नुक्सान पहुंचाने की हद तक जान बूझकर दबंगई करते हैं और निश्चित रूप से ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए. गूगल पर अगर आप लोगों पर धौंस जमाने से, ट्रॉलिंग करने से रोकने के बारे में सर्च करते हैं तो वेबसाइट ''ए थिन लाइन'' जैसी जगहों पर अनेक आर्टिकल्स आपको मिल सकते हैं, जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने में आपकी बेहतर मदद कर सकते हैं, लेकिन इससे निपटने को लेकर जो सामान्य बातें हैं, उसे तो हर एक को ही आजमाना चाहिए, मसलन शुरुआत से ही सजग रहना, अपनी प्रोफाइल को सिक्योर रखना, जानकार लोगों को ही प्रोफाइल में रखना, जरा भी संदिग्ध गतिविधि होने पर वार्निंग और फिर रिपोर्ट करना और अगर मामला खुद के कंट्रोल से बाहर होता जा रहा हो तो कानून की मदद लेना! इसके अतिरिक्त अपने से जुड़े लोगों की गतिविधियों पर नज़र रखना निश्चित रूप से ऐसे हमलों में बेहतर परिणाम दे सकता है.
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