जब देश का नेतृत्व पेचीदगियों और वैश्विक राजनीति में उलझा हो, तब अपनी बेबशी पर रोने के सिवा किया भी क्या जा सकता है? सीमा के साथ कायराना आतंकी हमलों में सेना के जवान अपनी जान गंवाते रहते हैं और हम नम आँखों से उन्हें श्रद्धांजलि देते रहते हैं. किन्तु, बदलते समय के साथ कुछ लोगों का दिल-ओ-दिमाग किस हद तक सड़ गया है कि उन्हें अहसास तक नहीं होता है कि उनके मुख से क्या निकल रहा है और क्या निकलना चाहिए! सोशल मीडिया के पिछले दशक में बढे प्रभाव ने एक तरह से इस प्रकार के बीमारू लोगों को एक मंच भी मुहैया करा दिया है और वह इस मंच का खुल कर दुरूपयोग भी कर रहे हैं. एक तरफ पठानकोट में हमले से पूरा देश सन्न था तो दूसरी ओर सैनिकों की शहादत से देशभक्तों की आँखें नम थीं, वहीं बीमार मानसिकता के लोगों ने इस मामले को लेकर बेहद शर्मनाक टिप्पणी करने में जरा भी संकोच अनुभव नहीं किया! एयरबेस पर हुए आतंकी हमले में शहीद हुए एनएसजी कमांडो लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन कुमार को लेकर एक शख्स ने सोशल मीडिया पर ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणी की, जिसके बाद उसे देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. आरोपी ने अपने फेसबुक अकाउंट पर शहीद की मौत पर लिखा था कि 'अच्छा हुआ, एक और मुसीबत कम हुई'. आखिर, ऐसी बीमार टिप्पणियों पर क्या कहा जाय? काश! ऐसे लोगों को पता भी रहता कि इन शहीदों की वजह से ही उसके मुख से बोल फूट रहे हैं, अन्यथा वह गुलामी की जंजीरों में जकड़ा होता और शायद किसी का 'लैट्रिन' साफ़ कर रहा होता. उस व्यक्ति की घटिया मानसिकता यहीं नहीं रुकी और उसने यह भी कह डाला कि 'अब शहीद की पत्नी को आर्थिक मदद और नौकरी दे दी जाएगी, आम आदमी को कुछ नहीं मिलता, कैसा गंदा लोकतंत्र है.'
जाहिर है, लोग व्यक्तिगत असफलता और सफलता को सरकार और प्रशासन से जोड़ देते हैं और ऐसे में बीमारू लोग अपनी हर समस्या के लिए प्रशासन को दोष देने लगते हैं, वगैर सोचे और समझे कि नेता और शहीद में फर्क होता है! संभव है, वह व्यक्ति किसी लोकल नेता या नेताओं की नीति से नाराज रहा हो, किन्तु इस हद तक बीमार हो जाना क्या लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है? मलप्पुरम के रहने वाले 24 वर्षीय आरोपी अनवर द्वारा की गयी यह अवांछित पोस्ट वायरल हो गई और लोगों ने उस पर खूब गुस्सा निकाला. हालाँकि, मामले की जानकारी मिलते ही पुलिस ने आरोपी को उसके घर से गिरफ्तार कर लिया और आईपीसी के सेक्शन 124 (राष्ट्रदोह) के तहत केस भी दर्ज कर लिया. पुलिस ने इस सम्बन्ध में दी गयी जानकारी में बताया कि आरोपी के फेसबुक वॉल से टिप्पणी डिलीट कर दी गई है और मामले में पूछताछ जारी है.' बता दें कि शहीद निरंजन का पार्थिव शरीर एयरफोर्स के विशेष विमान से बंगलुरू स्थित उनके घर ले जाया गया था. शहीद लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन एनएसजी में बम निरोधक दस्ते के प्रमुख थे और पठानकोट में हुए आंतकी हमले के दौरान उनकी मौत एक बम डिफ्यूज करने की कोशिश में हुई थी. इस पूरे वाकये से एक और गंभीर प्रश्न उठता है कि हज़ारों साल गुलामी के गुजरने के बावजूद, क्या आम-ओ-ख़ास आज़ादी के मायने भूल गए हैं? क्या चैन और सुरक्षा की रोटी अब लोगों को हज़म नहीं हो रही है, जो वह शांति और शहादत पर भी प्रश्न उठा बैठते हैं. क्या अब लता मंगेशकर के 'ऐ मेरे वतन के लोगों...' को लोग भुला रहे हैं? सवाल सिर्फ इस एक व्यक्ति का ही नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर कई लोग शहीदों की फोटो के साथ 'फोटोशॉप-व्यवहार' करके कहते दिखते हैं कि अगर आपने अमुक पेज को लाइक नहीं किया तो आप देशभक्त नहीं माने जाएंगे या फिर अगर आपने 'जय हिन्द' नहीं लिखा तो.... .. आखिर, इस तरह की गरिमा-विहीनता हमारे व्यवहार और संस्कार में कहाँ से घुसपैठ कर रही है, यह बात हमें पता नहीं चल रही.
सिर्फ सोशल मीडिया वाले ही दोषी हों, ऐसा कदापि नहीं है, बल्कि पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षित कहे जाने वाले साहित्यकार भी जान बूझकर बदजुबानी करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं. ऐसा ही एक और बुरा देखने और सुनने को मिला मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्रीपाल सबनीस द्वारा. इन पढ़े-लिखे मंडूक ने देश के पीएम के बारे में बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'मोदी पाकिस्तान गया था और अगर वह वहां से ज़िंदा नहीं लौटता तो उसे भी श्रद्धांजलि देने के लिए हमें मजबूर किया जाता.' आखिर, इस तरह की सड़ान्धता ऐसे तथाकथित 'बुद्धिजीवियों' के दिमाग और जुबान पर आती कहाँ से हैं? ऐसा ही वाकया 'गोमांस' पर विवाद खड़ा कर के पैदा किया गया था! इस पूरी हकीकत को उलट पुलट कर देखने के बाद यही लगता है कि हम कहीं न कहीं सामूहिक रूप से लोकतंत्र, शांति, शहादत की कीमत को भूल रहे हैं! हम भूल रहे हैं कि हमारे वतन के सिपाही चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेता रहे हैं, जिन्होंने अपना लहू हँसते-हँसते इसलिए बहा दिया ताकि हम चैन से जी सकें. इसी क्रम में अख़लाक़ की हत्या पर खूब शोर मचाने वाले बुद्धिजीवी और मीडिया का दोहरापन भी देखने को मिला जब पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में मुस्लिम रैली में अचानक हिंसा भड़क उठी. यह रैली हिंदू महासभा के नेता कमलेश तिवारी के पैगंबर मोहम्मद के बारे में की गई कथित आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में निकाली गई थी, जिसमें करीब 2.5 लाख मुसलमान शामिल. कमलेश तिवारी रासुका के तहत जेल में बंद है और शांतिपूर्ण रैली पर किसी को आपत्ति भी नहीं होती, किन्तु नेशनल हाइवे नंबर 34 पर निकाली इस रैली में हिंसक भीड़ ने करीब दो दर्जन गाडि़यों में आग लगा दी, मालदा जिले के कालियाचक पुलिस स्टेशन पर हमला किया गया, वहां से गुजर रही बस के साथ रैली में शामिल लोगों पर भीड़ ने हमला कर दिया और बीएसएफ की एक गाड़ी तक में आग लगा दी गई.
आखिर, हमारे राजनेता और प्रशासन के कर्ताधर्ता एवं 'बुद्धिजीवी समूहों' चुने हुए मामलों पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं और चुने हुए मामलों को लेकर 'असहिष्णुता' का राग ज़ोर ज़ोर से गाते हैं... यह बात समझ से परे है. इस तरह की मानसिकता आखिर कहाँ और किस तरह पोषित हो रही है, इस बाबत सुरक्षा एजेंसियों को अति चौकन्ना रहना होगा, क्योंकि अब तक सेना को हर स्तर पर सम्मान मिला है. तमाम किन्तु-परन्तु के बीच बीमार मानसिकता के व्यक्तियों और समूहों का उचित इलाज सरकारी और सामाजिक दोनों ही स्तरों सटीकता से किया जाना समय की मांग है, क्योंकि एक 'सड़ी मछली' पूरे तालाब को गन्दा कर देती है और यहाँ तो कभी-कभी तालाब में सड़ी-मरी मछलियाँ ही दिखाई देती हैं. हालाँकि, यह बात भी सच है कि जिस प्रकार तालाब की सतह पर ही सड़ी मछलियाँ दिखती हैं, उसी प्रकार से हमारे समाज में भी सिर्फ ऊपरी सतह पर ही बीमार मानसिकता के आम-ओ-ख़ास दिख रहे हैं, जबकि भारतीय समाज की भीतरी सतह बेहद निर्मल और गहरी है. किन्तु, अगर इन्हें साफ़ नहीं किया गया तो पूरा समाज ही ज़हरीला हो जायेगा! जहाँ तक पठानकोट ऑपरेशन और सेना के साथ लोकल पुलिस के तालमेल की बात है तो इस बारे में विभिन्न स्तरों से उठी ख़बरों ने गंभीर प्रश्नों को जन्म दिया है, जिसमें एसपी रैंक के अधिकारी के आतंकियों से मिले होने की अटकलें, ख़ुफ़िया जानकारी होने के बावजूद हमला होने और उससे निपटने में बेहद लम्बा समय लगने, गृहमंत्री का आपरेशन खत्म होने के सम्बन्ध में गलत ट्वीट, रक्षामंत्री और पंजाब के डीजीपी के विरोधाभासी बयान, पठानकोट एयरफ़ोर्स स्टेशन पर बहुत कम (मात्र 60-80) फौजियों की तैनाती, पठानकोट में ऐसे हालात से निपटने के लिए योजना विहीनता, एनएसजी जैसे दक्ष कमांडोज के बम-डिफ्यूज करते समय शहीद होना और आपरेशन कमांड के स्तर पर उहापोह जैसी गंभीर खामियां दिखी हैं, जिनका जवाब खोजा जाना उतना ही आवश्यक है, जितनी आवश्यकता 21वीं सदी में सेना और बलों के पुनर्गठन की है. इन समस्याओं से हम यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि इसके लिए राजनेता जिम्मेदार हैं. आखिर, हमारी नौकरशाही की कुछ जवाबदेही बनती है कि नहीं?
भारत में पिछले कुछ दशकों में हुए अहम आतंकी हमलों एवं बम विस्फोटों में 1993 में बम्बई में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट, मुम्बई पर 26/11 आतंकी हमला, 2006 में मुम्बई में उपगरीय ट्रेनों में बम विस्फोट के अलावा 1998 में कोयंबतूर श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट, 2005 में नई दिल्ली बम विस्फोट, 2006 में वाराणसी में बम विस्फोट, 2007 में समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट, 2008 में गुवाहाटी में बम विस्फोट, 2010 में जर्मन बेकरी बम धमाका आदि शामिल हैं. जाहिर है, ये हमले हमें बल के लेवल पर बेहद चुस्त-दुरुस्त होने की खुनी याद दिलाते हैं, अन्यथा परिणाम हमारे सामने है और यही परिणाम क्यों, आने वाले भविष्य में अगर दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी (अभी तीसरी), भारी-भरकम बजट खर्च करने के बावजूद, अगर सुरक्षा मुहैया कराने में ढीली पड़ रही है तो इसके लिए दोषी हमारे जवान नहीं, बल्कि समय की मांग के अनुसार 'सैन्य-पुनर्गठन' न होना है. समझना मुश्किल नहीं हैं कि अब सैनिकों को हथियारों से लड़ने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक खतरों से भी निपटना पड़ रहा हैं. चीन अपने सैन्य बल में 3 लाख सैनिकों की कटौती करके, सेना के आधुनिकीकरण के प्रयास शुरू कर चुका हैं और जितनी जल्दी भारत इस मामले में अपने हालात के अनुसार संज्ञान ले, उतना ही बेहतर और सुरक्षित परिणाम आने की संभावना बढ़ जाएगी. इसके अतिरिक्त दुनिया के दुसरे आधुनिक बलों से हम अपनी तुलना करते हैं तो यह साफ़ नजर आता है कि महिलाओं की सहभागिता का अनुपात इस मामले में बढ़ना चाहिए. चुनौतियां कई हैं, मगर इनसे निपटने की शुरुआत कब होती है, यह बेहद महत्वपूर्ण होगा.
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